Book Title: Dharmik Sahishnuta aur Jain Dharm Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 1
________________ धार्मिक सहिष्णुता और जैन धर्म अतः धार्मिक सहिष्णुताः आज की आवश्यकता विज्ञान और तकनीक की प्रगति के नाम पर हमने मानव जाति आज का युग बौद्धिक विकास और वैज्ञानिक प्रगति का युग के लिए विनाश की चिता तैयार कर ली है। यदि मनुष्य की इस है। मनुष्य के बौद्धिक विकास ने उसकी तार्किकता को पैना किया उन्मादी प्रवृत्ति पर कोई अंकुश नहीं लगा, तो कोई भी छोटी सी घटना है। आज मनुष्य प्रत्येक समस्या पर तार्किक दृष्टि से विचार करता इस चिता को चिनगारी दे देगी और तब हम सब अपने हाथों तैयार है, किन्तु दुर्भाग्य यह है कि इस बौद्धिक विकास के बावजूद भी एक की गयी इस चिता में जलने को मजबूर हो जायेंगे। असहिष्णुता और ओर अंधविश्वास और रूढ़िवादिता बराबर कायम है, तो दूसरी ओर वर्ग-विद्वेष-फिर चाहे वह धर्म के नाम पर हो, राजनीति के नाम वैचारिक संघर्ष अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया है। धार्मिक एवं पर हो, राष्ट्रीयता के नाम पर हो या साम्प्रदायिकता के नाम परराजनीतिक साम्प्रदायिकता आज जनता के मानस को उन्मादी बना रही हमें विनाश के गर्त की ओर ही लिये जा रहे हैं। आज की इस स्थिति है। कहीं धर्म के नाम पर, कहीं राजनीतिक विचारधाराओं के नाम के सम्बन्ध में उर्दू के शायर 'चकबस्त' ने ठीक ही कहा हैपर, कहीं धनी और निर्धन के नाम पर, कहीं जातिवाद के नाम पर, मिटेगा दीन भी और आबरू भी जाएगी। कहीं काले और गोरे के भेद को लेकर मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद तुम्हारे नाम से दुनिया को शर्म आएगी।। की दीवारें खींची जा रही हैं। आज प्रत्येक धर्म-सम्प्रदाय, प्रत्येक अत: आज एक ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो मानवता राजनीतिक दल और प्रत्येक वर्ग अपने हितों की सुरक्षा के लिए दूसरे को दुराग्रह और मतान्धता से ऊपर उठाकर सत्य को समझने के लिए के अस्तित्व को समाप्त करने पर तुला हुआ है। सब अपने को एक समग्र दृष्टि दे सके, ताकि वर्गीय हितों से ऊपर उठकर समग्र मानव-कल्याण का एकमात्र ठेकेदार मानकर अपनी सत्यता का दावा मानवता के कल्याण को प्राथमिकता दी जा सके। कर रहे हैं और दूसरे को भ्रान्त तथा भ्रष्ट बता रहे हैं। मनुष्य की असहिष्णुता की वृत्ति मनुष्य के मानस को उन्मादी बनाकर पारस्परिक धार्मिक मतान्यता क्यों? घृणा, विद्वेष और बिखराव के बीज बो रही है। एक ओर हम प्रगति धर्म को अंग्रेजी में 'रिलीजन' (Religion) कहा जाता है। रिलीजन की बात करते हैं तो दूसरी ओर मनुष्य-मनुष्य के बीच दीवार खड़ी शब्द रिलीजेर से बना है। इसका शाब्दिक अर्थ होता है—फिर से करते हैं। 'इकबाल' इसी बात को लेकर पूछते हैं जोड़ देना। धर्म मनुष्य को मनुष्य से और आत्मा को परमात्मा से फ़िकेंबन्दी है कहीं, और कहीं जाते हैं, जोड़ने की कला है। धर्म का अवतरण मनुष्य को शाश्वत शान्ति और क्या जमाने में पनपने की यही बाते हैं? सुख देने के लिए हुआ है, किन्तु हमारी मतान्धता और उन्मादी वृत्ति यद्यपि वैज्ञानिक तकनीक से प्राप्त आवागमन के सुलभ साधनों के कारण धर्म के नाम पर मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद की दीवारें ने आज विश्व की दूरी को कम कर दिया है, हमारा संसार सिमट खड़ी की गयीं और उसे एक-दूसरे का प्रतिस्पर्धी बना दिया गया। रहा है; किन्तु आज मनुष्य-मनुष्य के बीच हृदय की दूरी कहीं अधिक मानव जाति के इतिहास में जितने युद्ध और संघर्ष हुए हैं, उनमें धार्मिक ज्यादा हो रही है। वैयक्तिक स्वार्थलिप्सा के कारण मनुष्य एक-दूसरे मतान्धता एक बहुत बड़ा कारण रही है। धर्म के नाम पर मनुष्य ने को कटता चला जा रहा है। आज विश्व का वातावरण तनावपूर्ण एवं अनेक बार खून की होली खेली है और आज भी खेल रहे हैं। विश्वविक्षुब्ध है। एक ओर इजरायल और अरब में यहूदी और मुसलमान इतिहास का अध्येता इस बात को भलीभाँति जानता है कि धार्मिक लड़ रहे हैं, तो दूसरी ओर इस्लाम धर्म के ही दो सम्प्रदाय शिया असहिष्णुता ने विश्व में जघन्य दुष्कृत्य कराये हैं। आश्चर्य तो यह है और सुत्री इराक और ईरान में लड़ रहे हैं। भारत में भी कहीं हिन्दू कि दमन, अत्याचार, नृशंसता और रक्तप्लावन की इन घटनाओं को धर्म और मुसलमानों को, तो कहीं हिन्दू और सिखों को एक-दूसरे के का जामा पहनाया गया और ऐसे युद्धों को धर्मयुद्ध कहकर मनुष्य को विरूद्ध लड़ने के लिए उभाड़ा जा रहा है। अफ्रीका में काले और एक-दूसरे के विरूद्ध उभाड़ा गया, फलतः शान्ति, सेवा और समन्वय का गोरे का संघर्ष चल रहा है, तो साम्यवादी रूस और पूँजीवादी संयुक्त प्रतीक धर्म ही अशान्ति, तिरस्कार और वर्ग-विद्वेष का कारण बन गया। राज्य अमेरिका एक-दूसरे को नेस्तनाबूद करने पर तुले हुए हैं। आज यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि धर्म के नाम पर जो कुछ मानवता उस कगार पर आकर खड़ी हो गई है, जहाँ से उसने यदि किया या कराया जाता है, वह सब धार्मिक नहीं होता। इन सबके अपना रास्ता नहीं बदला तो उसका सर्वनाश निकट है। 'इकबाल' पीछे वस्तुत: धर्म नहीं, धर्म के नाम पर पलने वाली व्यक्ति की स्वार्थपरता स्पष्ट शब्दों में हमें चेतावनी देते हुए कहते हैं काम करती है। वस्तुत: कुछ लोग अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए अगर अब भी न समझोगे तो मिट जाओगे दुनियाँ से। मनुष्यों को धर्म के नाम पर एक-दूसरे के विरोध में खड़ा कर देते तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में।। हैं। धर्म भावना-प्रधान है और भावनाओं को उभाड़ना सहज होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3