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धार्मिक सहिष्णुता और जैन धर्म
अतः
धार्मिक सहिष्णुताः आज की आवश्यकता
विज्ञान और तकनीक की प्रगति के नाम पर हमने मानव जाति आज का युग बौद्धिक विकास और वैज्ञानिक प्रगति का युग के लिए विनाश की चिता तैयार कर ली है। यदि मनुष्य की इस है। मनुष्य के बौद्धिक विकास ने उसकी तार्किकता को पैना किया उन्मादी प्रवृत्ति पर कोई अंकुश नहीं लगा, तो कोई भी छोटी सी घटना है। आज मनुष्य प्रत्येक समस्या पर तार्किक दृष्टि से विचार करता इस चिता को चिनगारी दे देगी और तब हम सब अपने हाथों तैयार है, किन्तु दुर्भाग्य यह है कि इस बौद्धिक विकास के बावजूद भी एक की गयी इस चिता में जलने को मजबूर हो जायेंगे। असहिष्णुता और ओर अंधविश्वास और रूढ़िवादिता बराबर कायम है, तो दूसरी ओर वर्ग-विद्वेष-फिर चाहे वह धर्म के नाम पर हो, राजनीति के नाम वैचारिक संघर्ष अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया है। धार्मिक एवं पर हो, राष्ट्रीयता के नाम पर हो या साम्प्रदायिकता के नाम परराजनीतिक साम्प्रदायिकता आज जनता के मानस को उन्मादी बना रही हमें विनाश के गर्त की ओर ही लिये जा रहे हैं। आज की इस स्थिति है। कहीं धर्म के नाम पर, कहीं राजनीतिक विचारधाराओं के नाम के सम्बन्ध में उर्दू के शायर 'चकबस्त' ने ठीक ही कहा हैपर, कहीं धनी और निर्धन के नाम पर, कहीं जातिवाद के नाम पर, मिटेगा दीन भी और आबरू भी जाएगी। कहीं काले और गोरे के भेद को लेकर मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद तुम्हारे नाम से दुनिया को शर्म आएगी।। की दीवारें खींची जा रही हैं। आज प्रत्येक धर्म-सम्प्रदाय, प्रत्येक अत: आज एक ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो मानवता राजनीतिक दल और प्रत्येक वर्ग अपने हितों की सुरक्षा के लिए दूसरे को दुराग्रह और मतान्धता से ऊपर उठाकर सत्य को समझने के लिए के अस्तित्व को समाप्त करने पर तुला हुआ है। सब अपने को एक समग्र दृष्टि दे सके, ताकि वर्गीय हितों से ऊपर उठकर समग्र मानव-कल्याण का एकमात्र ठेकेदार मानकर अपनी सत्यता का दावा मानवता के कल्याण को प्राथमिकता दी जा सके। कर रहे हैं और दूसरे को भ्रान्त तथा भ्रष्ट बता रहे हैं। मनुष्य की असहिष्णुता की वृत्ति मनुष्य के मानस को उन्मादी बनाकर पारस्परिक धार्मिक मतान्यता क्यों? घृणा, विद्वेष और बिखराव के बीज बो रही है। एक ओर हम प्रगति धर्म को अंग्रेजी में 'रिलीजन' (Religion) कहा जाता है। रिलीजन की बात करते हैं तो दूसरी ओर मनुष्य-मनुष्य के बीच दीवार खड़ी शब्द रिलीजेर से बना है। इसका शाब्दिक अर्थ होता है—फिर से करते हैं। 'इकबाल' इसी बात को लेकर पूछते हैं
जोड़ देना। धर्म मनुष्य को मनुष्य से और आत्मा को परमात्मा से फ़िकेंबन्दी है कहीं, और कहीं जाते हैं,
जोड़ने की कला है। धर्म का अवतरण मनुष्य को शाश्वत शान्ति और क्या जमाने में पनपने की यही बाते हैं?
सुख देने के लिए हुआ है, किन्तु हमारी मतान्धता और उन्मादी वृत्ति यद्यपि वैज्ञानिक तकनीक से प्राप्त आवागमन के सुलभ साधनों के कारण धर्म के नाम पर मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद की दीवारें ने आज विश्व की दूरी को कम कर दिया है, हमारा संसार सिमट खड़ी की गयीं और उसे एक-दूसरे का प्रतिस्पर्धी बना दिया गया। रहा है; किन्तु आज मनुष्य-मनुष्य के बीच हृदय की दूरी कहीं अधिक मानव जाति के इतिहास में जितने युद्ध और संघर्ष हुए हैं, उनमें धार्मिक ज्यादा हो रही है। वैयक्तिक स्वार्थलिप्सा के कारण मनुष्य एक-दूसरे मतान्धता एक बहुत बड़ा कारण रही है। धर्म के नाम पर मनुष्य ने को कटता चला जा रहा है। आज विश्व का वातावरण तनावपूर्ण एवं अनेक बार खून की होली खेली है और आज भी खेल रहे हैं। विश्वविक्षुब्ध है। एक ओर इजरायल और अरब में यहूदी और मुसलमान इतिहास का अध्येता इस बात को भलीभाँति जानता है कि धार्मिक लड़ रहे हैं, तो दूसरी ओर इस्लाम धर्म के ही दो सम्प्रदाय शिया असहिष्णुता ने विश्व में जघन्य दुष्कृत्य कराये हैं। आश्चर्य तो यह है और सुत्री इराक और ईरान में लड़ रहे हैं। भारत में भी कहीं हिन्दू कि दमन, अत्याचार, नृशंसता और रक्तप्लावन की इन घटनाओं को धर्म और मुसलमानों को, तो कहीं हिन्दू और सिखों को एक-दूसरे के का जामा पहनाया गया और ऐसे युद्धों को धर्मयुद्ध कहकर मनुष्य को विरूद्ध लड़ने के लिए उभाड़ा जा रहा है। अफ्रीका में काले और एक-दूसरे के विरूद्ध उभाड़ा गया, फलतः शान्ति, सेवा और समन्वय का गोरे का संघर्ष चल रहा है, तो साम्यवादी रूस और पूँजीवादी संयुक्त प्रतीक धर्म ही अशान्ति, तिरस्कार और वर्ग-विद्वेष का कारण बन गया। राज्य अमेरिका एक-दूसरे को नेस्तनाबूद करने पर तुले हुए हैं। आज यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि धर्म के नाम पर जो कुछ मानवता उस कगार पर आकर खड़ी हो गई है, जहाँ से उसने यदि किया या कराया जाता है, वह सब धार्मिक नहीं होता। इन सबके अपना रास्ता नहीं बदला तो उसका सर्वनाश निकट है। 'इकबाल' पीछे वस्तुत: धर्म नहीं, धर्म के नाम पर पलने वाली व्यक्ति की स्वार्थपरता स्पष्ट शब्दों में हमें चेतावनी देते हुए कहते हैं
काम करती है। वस्तुत: कुछ लोग अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए अगर अब भी न समझोगे तो मिट जाओगे दुनियाँ से। मनुष्यों को धर्म के नाम पर एक-दूसरे के विरोध में खड़ा कर देते तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में।। हैं। धर्म भावना-प्रधान है और भावनाओं को उभाड़ना सहज होता है।
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धार्मिक सहिष्णुता और जैन धर्म
३५७ अत: धर्म ही एक ऐसा माध्यम है जिसके नाम पर मनुष्यों को एक अपने साथी प्राणियों के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझ सके। दूसरे के विरूद्ध जल्दी उभाड़ा जा सकता है। इसीलिए मतान्धता, यदि यह सब उसमें नहीं है तो वह मनुष्य ही नहीं है, तो फिर उसके उन्मादी और स्वार्थी तत्त्वों ने धर्म को सदैव ही अपने हितों की पूर्ति धार्मिक होने का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि कोई पशु धार्मिक या का साधन बनाया है। जो धर्म मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने के लिए अधार्मिक नहीं होता, मनुष्य ही धार्मिक या अधार्मिक होता है। यदि था, उसी धर्म के नाम पर अपने से विरोधी धर्मवालों को उत्पीड़ित मानवीय शरीर को धारण करने वाला व्यक्ति अपने पशुत्व से ऊपर करने और उस पर अत्याचार करने के प्रयत्न हुए हैं और हो रहे हैं। नहीं उठ पाया है, तो उसके धार्मिक होने का प्रश्न तो बहुत दूर की किन्तु धर्म के नाम पर हिंसा, संघर्ष और वर्ग-विद्वेष की जो भावनाएँ बात है। मानवीयता धार्मिकता की प्रथम सीढ़ी है। उसे पार किये बिना उभाड़ी जा रही हैं, उसका कारण क्या धर्म है? वस्तुतः धर्म नहीं, कोई धर्ममार्ग में प्रवेश नहीं कर सकता। मनुष्य का प्रथम धर्म अपितु धर्म का आवरण डालकर मानव की महत्वाकांक्षा, उसका अहंकार मानवता है। और उसकी क्षुद्र स्वार्थपरता ही यह सब कुछ करवा रही है। यथार्थ वस्तुत: यदि हम जैन धर्म की भाषा में धर्म को वस्तु-स्वभाव में यह धर्म का नकाब डाले हए अधर्म ही है।
माने तो हमें समग्र चेतन सत्ता के मूल स्वभाव को ही धर्म कहना
होगा। भगवतीसूत्र में आत्मा का स्वभाव समता-समभाव कहा गया धर्म के सारतत्त्व का ज्ञान : मतान्यता से मुक्ति का मार्ग है। उसमें गणधर गौतम भगवान् महावीर से प्रश्न करते हैं कि आत्मा
. दुर्भाग्य यह है कि आज जनसामान्य, जिसे धर्म के नाम पर क्या है और आत्मा का साध्य क्या है? प्रत्युत्तर में भगवान् कहते सहज ही उभाड़ा जाता है, धर्म के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ है, हैं-आत्मा सामायिक (समत्ववृत्ति) रूप है और उस समत्वभाव को वह धर्म के मूल हार्द को नहीं समझ पाया है। उसकी दृष्टि में कुछ प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य है। आचाराङ्गसूत्र भी समभाव कर्मकाण्ड और रीति-रिवाज ही धर्म है। हमारा दुर्भाग्य यह है कि हमारे को ही धर्म कहता है। सभी धर्मों का सार समता तथा शान्ति है। तथाकथित धार्मिक नेताओं ने हमें धर्म के मूल हार्द से अनभिज्ञ रखकर, मनुष्य में निहित काम, क्रोध, अहंकार, लोभ और उनके जनक रागइन रीति-रिवाजों और कर्मकाण्डों को ही धर्म कहकर समझाया है। द्वेष और तृष्णा को समाप्त करना ही सभी धार्मिक साधनाओं का मूलभूत वस्तुत: आज आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य धर्म के वास्तविक लक्ष्य रहा है। इस सम्बन्ध में श्री सत्यनारायण जी गोयनका के निम्न स्वरूप को समझे। आज मानव समाज के समक्ष धर्म के उस सारभूत विचार द्रष्टव्य हैं-'क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि न हिन्दू हैं, न बौद्ध, न तत्त्व को प्रस्तुत किये जाने की आवश्यकता है, जो सभी धर्मों में जैन, न पारसी, न मुस्लिम, न ईसाई। वैसे इनसे विमुक्त रहना भी सामान्यतया उपस्थित है और उनकी मूलभूत एकता का सूचक है। न हिन्दू है न बौद्ध; न जैन है न पारसी; न मुस्लिम है न ईसाई। आज धर्म के मूल हार्द और वास्तविक स्वरूप को समझे बिना हमारी विकारों से विमुक्त रहना ही शुद्ध धर्म है। क्या शीलवान, समाधिवान धार्मिकता सुरक्षित नहीं रह सकती है। यदि आज धर्म के नाम पर और प्रज्ञावान होना केवल बौद्धों का ही धर्म है? क्या वीतराग, वीतद्वेष विभाजित होती हुई इस मानवता को पुन: जोड़ना है तो हमें धर्म के और वीतमोह होना जैनों का ही धर्म है? क्या स्थितप्रज्ञ, अनासक्त, उन मूलभूत तत्त्वों को सामने लाना होगा, जिनके आधार पर इन टूटी जीवन-मुक्त होना हिन्दुओं का ही धर्म है? धर्म की इस शुद्धता को हुई कडियों को पुन: जोड़ा जा सके।
समझें और धारण करें। (धर्म के क्षेत्र में) निस्सार छिलकों का अवमूल्यन
हो, उन्मूलन हो; शुद्धसार का मूल्यांकन हो, प्रतिष्ठापन हो।' जब धर्म का मर्म
यह स्थिति आयेगी, धार्मिक सहिष्णुता सहज ही प्रकट होगी। यह सत्य है कि आज विश्व में अनेक धर्म प्रचलित हैं। किन्तु यदि हम गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो इन विविध धर्मों का मूलभूत साधनागत विविधता : असहिष्णुता का आधार नहीं लक्ष्य है-मनुष्य को एक अच्छे मनुष्य के रूप में विकसित कर उसे तृष्णा, राग-द्वेष और अहंकार अधर्म के बीज हैं। इनसे मानसिक परमात्म तत्त्व की ओर ले जाना। जब तक मनुष्य, मनुष्य नहीं बनता और सामाजिक समभाव भंग होता है। अतः इनके निराकरण को सभी
और उसकी यह मनुष्यता देवत्व की ओर अग्रसर नहीं होती, तब धार्मिक साधना-पद्धतियाँ अपना लक्ष्य बनाती हैं। किन्तु मनुष्य का तक वह धार्मिक नहीं कहा जा सकता। यदि मनुष्य में मानवीय गुणों अहंकार, मनुष्य का ममत्व कैसे समाप्त हो, उसकी तृष्णा या आसक्ति का विकास ही नहीं हुआ है तो वह किसी भी स्थिति में धार्मिक का उच्छेद कैसे हो? इस साधनात्मक पक्ष को लेकर ही विचारभेद नहीं है। 'अमन' ने ठीक ही कहा है
प्रारम्भ होता है। कोई परम सत्ता या ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण में इन्सानियत से जिसने बशर को गिरा दिया।
ही आसक्ति, ममत्व और अहंकार के विसर्जन का उपाय देखता है, या रब! वह बन्दगी हुई या अबतरी हुई।।
तो कोई उसके लिए जगत् की दुःखमयता, पदार्थों की क्षणिकता और मानवता के बिना धार्मिकता असम्भव है। मानवता धार्मिकता अनात्मता का उपदेश देता है, तो कोई उस आसक्ति या रागभाव की का प्रथम चरण है। मानवता का अर्थ है-मनुष्य में विवेक विकसित विमुक्ति के लिए आत्म और अनात्म अर्थात् स्व-पर के विवेक को हो, वह अपने विचारों, भावनाओं और हितों पर संयम रख सके तथा धार्मिक साधना का प्रमुख अंग मानता है। वस्तुत: यह साधनात्मक
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________________ 358 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ भेद ही धर्मों की अनेकता का कारण है। किन्तु यह अनेकता धार्मिक है किअसहिष्णुता या विरोध का कारण नहीं बन सकती। आचार्य हरिभद्र जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा। ने योगदृष्टिसमुच्चय में धार्मिक साधना की विविधताओं का सुन्दर जो आस्रव अर्थात् बन्धन के कारण हैं, वे ही परिस्रव अर्थात् विश्लेषण प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं मुक्ति के कारण हो सकते हैं और इसके विपरीत जो मुक्ति के कारण यद्वा तत्तत्रयापेक्षा तत्कालादिनियोगतः। हैं, वे ही बन्धन के कारण बन सकते हैं। अनेक बार ऐसा होता है ऋषिभ्यो देशना चित्रा तन्मूलैषापि तत्त्वतः।।। कि बाह्य रूप में हम जिसे अनैतिक और अधार्मिक कहते हैं, वह अर्थात् प्रत्येक ऋषि अपने देश, काल और परिस्थिति के आधार देश, काल, व्यक्ति और परिस्थितियों के आधार पर नैतिक और धार्मिक पर भिन्न-भिन्न धर्ममार्गों का प्रतिपादन करते हैं। देश और कालगत हो जाता है। धार्मिक जीवन में साधना का बाह्य कलेवर इतना महत्त्वपूर्ण विविधताएँ तथा साधकों की रुचि और स्वभावगत विविधताएँ धार्मिक नहीं होता जितना उसके मूल में रही हुई व्यक्ति की भावनाएँ होती साधनाओं की विविधताओं के आधार हैं। किन्तु इस विविधता को हैं। बाह्य रूप से किसी युवती की परिचर्या करते हुए एक व्यक्ति अपनी धार्मिक असहिष्णुता का कारण नहीं बनने देना चाहिए। जिस प्रकार मनोभूमिका के आधार पर धार्मिक हो सकता है, तो दूसरा अधार्मिक। एक ही नगर को जाने वाले विविध मार्ग परस्पर भिन्न-भिन्न दिशाओं वस्तुत: परिचर्या करते समय परिचर्या की अपेक्षा भी जो अधिक में स्थित होकर भी विरोधी नहीं कहे जाते हैं; एक ही केन्द्र को योजित महत्त्वपूर्ण है, वह उस परिचर्या के मूल में निहित प्रयोजन, प्रेरक या होने वाली परिधि से खींची गयी विविध रेखाएँ चाहें बाह्य रूप से मनोभूमिका होती है। एक व्यक्ति निष्काम भावना से किसी की सेवा विरोधी दिखायी दें, किन्तु यथार्थतः उनमें कोई विरोध नहीं होता है; करता है, तो दूसरा व्यक्ति अपनी वासनाओं अथवा अपने क्षुद्र स्वार्थों उसी प्रकार परस्पर भिन्न-भिन्न आचार-विचार वाले धर्ममार्ग भी वस्तुतः की पूर्ति के लिए किसी की सेवा करता है। बाहर से दोनों सेवाएँ विरोधी नहीं होते। यह एक गणितीय सत्य है कि एक केन्द्र से योजित एक हैं, किन्तु उनमें एक नैतिक और धार्मिक है, तो दूसरी अनैतिक होने वाली परिधि से खींची गयीं अनेक रेखाएँ एक-दूसरे को काटने और अधार्मिक। हम देखते हैं कि अनेकानेक लोग लौकिक एषणाओं की क्षमता नहीं रखती हैं, क्योंकि उन सबका साध्य एक ही होता की पूर्ति के लिए प्रभु-भक्ति और सेवा करते हैं किन्तु उनकी वह सेवा है। वस्तुत: उनमें एक-दूसरे को काटने की शक्ति तभी आती है जब धर्म का कारण न होकर अधर्म का कारण होती है। अत: साधनागत वे अपने केन्द्र का परित्याग कर देती हैं। यही बात धर्म के सम्बन्ध बाह्य विभिन्नताओं को न तो धार्मिकता का सर्वस्व मानना चाहिए और में भी सत्य है। एक ही साध्य की ओर उन्मुख बाहर से परस्पर विरोधी न उन पर इतना अधिक बल दिया जाना चाहिए, जिससे पारस्परिक दिखाई देने वाले अनेक साधना-मार्ग तत्त्वत: परस्पर विरोधी नहीं होते विभेद और भिन्नता की खाई और गहरी हो। वस्तुत: जब तक देश हैं। यदि प्रत्येक धार्मिक साधक अपने अहंकार, राग-द्वेष और तृष्णा और कालगत भिन्नताएँ हैं, जब तक व्यक्ति की रुचि या स्वभावगत की प्रवृत्तियों को समाप्त करने के लिए, अपने काम, क्रोध और लोभ भिन्नताएँ हैं, तब तक साधनागत विभिन्नताएँ स्वाभाविक ही हैं। आचार्य के निराकरण के लिए, अपने अहंकार और अस्मिता के विसर्जन के हरिभद्र अपने ग्रन्थ योगदृष्टिसमुच्चय में कहते हैंलिए साधनारत है, तो फिर उसकी साधना-पद्धति चाहे जो हो, वह चित्रा तु देशनैतेषां स्याद् विनेयानुगुण्यतः। दूसरी साधना-पद्धतियों का न तो विरोधी होगा और न असहिष्णु। यस्मादेते महात्मानो भाव्याधि भिषग्वराः।। यदि धार्मिक जीवन में साध्यरूपी एकता के साथ साधनारूपी अनेकता अर्थात् जिस प्रकार एक अच्छा वैद्य रोगी की प्रकृति, ऋतु आदि रहे तो भी वह संघर्ष का कारण नहीं बन सकती। वस्तुत: यहाँ हमें को ध्यान में रखकर एक ही रोग के लिए दो व्यक्तियों को अलग-अलग यह विचार करना है कि धर्म और समाज में धार्मिक असहिष्णुता का औषधि प्रदान करता है, उसी प्रकार धर्ममार्ग के उपदेष्टा ऋषिगण भी जन्म क्यों और कैसे होता है? भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले व्यक्तियों के लिए अलग-अलग साधना-विधि वस्तुत: जब यह मान लिया जाता है कि हमारी साधना-पद्धति प्रस्तुत करते हैं। देश, काल और रुचिगत वैचित्र्य धार्मिक साधना ही एकमात्र व्यक्ति को अन्तिम साध्य तक पहुँचा सकती है तब धार्मिक पद्धतियों की विभिन्नता का आधार है। वह स्वभाविक है, अत: उसे असहिष्णुता का जन्म होता है। इसके स्थान पर यदि हम यह स्वीकार अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है। धर्मक्षेत्र में साधनागत विविधताएँ कर लें कि वे सभी साधना-पद्धतियाँ जो साध्य तक पहुंचा सकती सदैव रही हैं और रहेंगी, किन्तु उन्हें विवाद का आधार नहीं बनाया हैं, सही हैं, तो धार्मिक संघर्षों का क्षेत्र सीमित हो जाता है। देश जाना चाहिए। हमें प्रत्येक साधना-पद्धति की उपयोगिता और और कालगत विविधताएँ तथा व्यक्ति की अपनी प्रवृत्ति और योग्यता अनुपयोगिता का मूल्यांकन उन परिस्थितियों में करना चाहिए जिसमें आदि ऐसे तत्त्व हैं, जिनके कारण साधनागत विविधताओं का होना उनका जन्म होता है। उदाहरण के रूप में, मूर्तिपूजा का विधान और स्वाभाविक है। वस्तुत: जिससे व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास होता मूर्तिपूजा का निषेध दो भिन्न देशगत और कालगत परिस्थितियों की है, वह आचार के बाह्य विधि-निषेध या बाह्य औपचारिकताएँ या देन हैं और उनके पीछे विशिष्ट उद्देश्य रहे हुए हैं। यदि हम उन संदर्भो क्रियाकाण्ड नहीं, मूलत: साधक की भावना या जीवन-दृष्टि है। में उनका मूल्यांकन करते हैं, तो इन दो विरोधी साधना-पद्धतियों में प्राचीनतम जैन आगम आचारांगसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया भी हमें कोई विरोध नजर नहीं आयेगा। सभी धार्मिक साधना-पद्धतियों
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________________ धार्मिक सहिष्णुता और जैन धर्म का एक लक्ष्य होते हुए भी उनमें देश, काल, व्यक्ति और परिस्थिति करो, झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, व्यभिचार मत करो, नशीले के कारण साधनागत विभिन्नताएँ आई हैं। उदाहरण के रूप में, हिन्दू पदार्थों का सेवन मत करो, संचयवृत्ति से दूर रहो और अपने धन धर्म और इस्लाम दोनों में उपासना के पूर्व एवं पश्चात् शारीरिक शुद्धि का दीन-दुःखियों की सेवा में उपयोग करो-ये सब सभी धर्मशास्त्रों का विधान है। फिर भी दोनों की शारीरिक शुद्धि की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न में समान रूप से प्रतिपादित हैं, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि हम इन है। मुसलमान अपनी शरीरिक शुद्धि इस प्रकार से करता है कि उसमें मूलभूत आधार स्तम्भों को छोड़कर उन छोटी-छोटी बातों को ही अधिक जल की अत्यल्प मात्रा का व्यय हो, वह हाथ और मुँह को नीचे से पकड़ते हैं, जिनसे पारस्परिक भेद की खाई और गहरी होती है। ऊपर की ओर धोता है, क्योंकि इसमें पानी की मात्रा कम खर्च होती जैनों के सामने भी शास्त्र की सत्यता और असत्यता का प्रश्न है। इसके विपरीत हिन्दू अपने हाथ और मुँह ऊपर से नीचे की ओर आया था। किसी सीमा तक उन्होंने सम्यक्-श्रुत और मिथ्या-श्रुत के धोता है। इसमें जल की मात्रा अधिक खर्च होती है। शारीरिक शद्धि नाम पर तत्कालीन शास्त्रों का विभाजन भी कर लिया था, किन्तु फिर का लक्ष्य समान होते हुए भी अरब देशों में जल का अभाव होने भी उनकी दृष्टि संकुचित और अनुदार नहीं रही। उन्होंने ईमानदारीपूर्वक के कारण एक पद्धति अपनायी गई, तो भारत में जल की बहुलता इस बात को स्वीकार कर लिया कि जो सम्यक्-श्रुत है, वह मिथ्या-श्रुत होने के कारण दूसरी पद्धति अपनायी गयी। अत: आचार के इन बाहरी भी हो सकता है और जो मिथ्या-श्रुत है वह सम्यक्-श्रुत भी हो सकता रूपों को लेकर धार्मिकता के क्षेत्र में जो विवाद चलाया जाता है, वह है। श्रुति या शास्त्र का सम्यक् होना या मिथ्या होना शास्त्र के शब्दों उचित नहीं है। चाहे प्रश्न मूर्तिपूजा का हो या अन्य कोई, हम देखते पर नहीं, अपितु उसके अध्येता और व्याख्याता पर निर्भर करता है। हैं कि उन सभी के मूल में कहीं न कहीं देश, काल और व्यक्ति के जैन आचार्य स्पष्टरूप से कहते हैं कि 'एक मिथ्यादृष्टि के लिए रुचिगत वैचित्र्य का आधार होता है। इस्लाम ने चाहे कितना ही बुतपरस्ती सम्यक्-श्रुत भी मिथ्या-श्रुत हो सकता है और एक सम्यग्दृष्टि के लिए का विरोध किया हो किन्तु मुहर्रम, कब-पूजा आदि के नाम पर प्रकारान्तर मिथ्या-श्रुत भी सम्यक्-श्रुत हो सकता है। सम्यक्-दृष्टि व्यक्ति मिथ्या-श्रुत से उसमें मूर्तिपूजा प्रविष्ट हो ही गयी है। इसी प्रकार इस्लाम एवं अन्य में से भी अच्छाई और सारतत्त्व ग्रहण कर लेता है, तो दूसरी ओर परिस्थितियों के प्रभाव से हिन्दू और जैन धर्म में अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों एक मिथ्यादृष्टि व्यक्ति सम्यक्-श्रुत में भी बुराई और कमियाँ देख सकता का विकास हुआ। अत: धार्मिक जीवन की बाह्य आचार एवं रीति-रिवाज है। अत: शास्त्र के सम्यक् और मिथ्या होने का प्रश्न मूलत: व्यक्ति सम्बन्धी दैशिक, कालिक और वैयक्तिक भिन्नताओं को धर्म का मूलाधार के दृष्टिकोण पर निर्भर है। ग्रन्थ और इसमें लिखे शब्द तो जड़ होते न मानकर, इन भिन्नताओं के प्रति एक उदार और व्यापक दृष्टिकोण हैं, उनको व्याख्यायित करने वाला तो व्यक्ति का अपना मनस है। रखना आवश्यक है। हमें इन सभी विभिन्नताओं को उनके उद्भव की अत: श्रुत सम्यक् और मिथ्या नहीं होता है, सम्यक् या मिथ्या होता मुलभूत परिस्थितियों में समझने का प्रयत्न करना चाहिए। है उनसे अर्थ-बोध प्राप्त करने वाले व्यक्ति का मानसिक दृष्टिकोण। एक व्यक्ति सुन्दर में भी असुन्दर देखता है तो दूसरा व्यक्ति असुन्दर शाख की सत्यता का प्रश्न में भी सुन्दर देखता है। अत: यह विवाद निरर्थक और अनुपयोगी धार्मिकता के क्षेत्र में अनेक बर यह विवाद भी प्रमुख हो जाता है कि हमारा शास्त्र ही सम्यक्-शास्त्र है और दूसरे का शास्त्र मिथ्या-शास्त्र है कि हमारा धर्मशास्त्र ही सच्चा धर्मशास्त्र है और दूसरों का धर्मशास्त्र है। हम शास्त्र को जीवन से नहीं जोड़ते हैं अपितु उसे अपने-अपने सच्चा और प्रामाणिक नहीं है। इस विषय में प्रथम तो हमें यह जान ढंग से व्याख्यायित करके उस विचार-भेद के आधार पर विवाद करने लेना चाहिए कि धर्मशास्त्र का मूल स्रोत तो धर्म-प्रवर्तक के उपदेश का प्रयत्न करते हैं। परन्तु शास्त्र को जब भी व्याख्यायित किया जाता ही होते हैं और सामान्यतया प्राचीन धर्मों में वे मौखिक ही रहे हैं। है, वह देश, काल और वैयक्तिक रुचि भेद से अप्रभावित हुए बिना जिन्होंने उन्हें लिखित रूप दिया, वे देश और कालगत परिस्थितियों नहीं रहता। एक ही गीता को शंकर और रामानुज दो अलग-अलग से सर्वथा अप्रभावित रहे, यह कहना बड़ा कठिन है। महावीर के उपदेश दृष्टि से व्याख्यायित कर सकते हैं। वही गीता तिलक, अरविंद और उनके परिनिर्वाण के एक हजार वर्ष बाद लिखे गये-क्या इतनी लम्बी राधाकृष्णन् के लिए अलग-अलग अर्थ की बोधक हो सकती है। अत: कालावधि में उसमें कुछ घटाव-बढ़ाव नहीं हुआ होगा? न केवल यह शास्त्र के नाम पर धार्मिक क्षेत्र में विवाद और असहिष्णुता को बढ़ावा प्रश्न जैन शास्त्रों का है अपितु हिन्दू और बौद्ध धर्म के शास्त्रों का देना उचित नहीं है। शास्त्र और शब्द जड़ है, उससे जो अर्थबोध भी है। दुर्भाग्य से किसी भी धर्म का धर्मशास्त्र, उसके उपदेष्टा के किया जाता है, वही महत्त्वपूर्ण है और यह अर्थबोध की प्रक्रिया श्रोता जीवनकाल में नहीं लिखा गया। न महावीर के जीवन में आगम लिखे या पाठक की दृष्टि पर निर्भर करती है; अत: महत्त्व दृष्टि का है, गये, न बुद्ध के जीवन में त्रिपिटक लिखे गये, न ईसा के जीवन शास्त्र के निरे शब्दों का नहीं है। यदि दृष्टि उदार और व्यापक हो, में बाइबिल और न मुहम्मद के जीवन में कुरान। पुनः यदि प्रत्येक हममें नीर-क्षीर विवेक की क्षमता हो और शास्त्र के वचनों को हम धर्मशास्त्र में से दैशिक, कालिक और वैयक्तिक तथ्यों को अलग कर उस परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास करें जिसमें वे कहे गये हैं, तो धर्म के उत्स या मूलतत्त्व को देखा जाये, तो उनमें बहुत बड़ी भिन्नता हमारे विवाद का क्षेत्र सीमित हो जायेगा। जैनाचार्यों ने नन्दीसूत्र में भी दृष्टिगोचर नहीं होती है। आचार के सामान्य नियम-हत्या मत जो यह कहा कि सम्यक्-श्रुत मिथ्यादृष्टि के लिए मिथ्या-श्रुत हो जाता
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________________ 360 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ है और मिथ्या-श्रुत भी सम्यक्-दृष्टि के लिए सम्यक्-श्रुत होता है, जैन आचार्यों ने दर्शनमोह को भी तीन भागों में बाँटा है—सम्यक्त्व उसका मूल आशय यही है। मोह, मिथ्यात्वमोह और मिश्रमोह। मिथ्यात्व-मोह का अर्थ तो सहज ही हमें समझ में आ जाता है। मिथ्यात्व-मोह का अर्थ है-मिथ्या धार्मिक असहिष्णुता का बीज-पागात्मकता सिद्धान्तों और मिथ्या विश्वासों का आग्रह अर्थात् गलत सिद्धान्तों और धार्मिक असहिष्णुता का बीज तभी वपित होता है, जब हम अपने गलत आस्थाओं में चिपके रहना। किन्तु सम्यक्त्वमोह का अर्थ धर्म या साधना-पद्धति को ही एकमात्र और अन्तिम मानने लगते हैं सामान्यतया हमारी समझ में नहीं आता है। सामान्यतया सम्यक्त्व-मोह तथा अपने धर्म-गुरु को ही एकमात्र सत्य का द्रष्टा मान लेते हैं। यह का अर्थ सम्यक्त्व का मोह अर्थात् सम्यक्त्व का आवरण-ऐसा किया अवधारणा ही धार्मिक वैमनस्यता का मूल कारण है। जाता है, किन्तु ऐसी स्थिति में वह भी मिथ्यात्व का ही सूचक होता __ वस्तुत: जब व्यक्ति की रागात्मकता धर्मप्रवर्तक, धर्ममार्ग और है। वस्तुतः सम्यक्त्वमोह का अर्थ है-दृष्टिराग अर्थात् अपनी धार्मिक धर्मशास्त्र के साथ जुड़ती है, तो धार्मिक कदाग्रहों और असहिष्णुता मान्यताओं और विश्वासों को ही एकमात्र सत्य समझना और अपने का जन्म होता है। जब हम अपने धर्म-प्रवर्तक को ही सत्य का एकमात्र से विरोधी मान्यताओं और विश्वासों को असत्य मानना। जैन दार्शनिक द्रष्टा और उपदेशक मान लेते हैं, तो हमारे मन में दूसरे धर्मप्रवर्तकों यह मानते हैं कि आध्यात्मिक पूर्णता या वीतरागता की उपलब्धि के के प्रति तिरस्कार की धारणा विकसित होने लगती है। राग का तत्त्व लिए जहाँ मिथ्यात्वमोह का विनाश आवश्यक है वहाँ सम्यक्त्वमोह जहाँ एक ओर व्यक्ति को किसी से जोड़ता है, वहीं दूसरी ओर वह अर्थात् दृष्टिराग से ऊपर उठना भी आवश्यक है। न केवल जैन परम्परा उसे कहीं से तोड़ने भी लगता है। जैन परम्परा में धर्म के प्रति इस में अपितु बौद्ध परम्परा में भी भगवान् बुद्ध के अन्तेवासी शिष्य आनन्द ऐकान्तिक रागात्मकता को दृष्टिराग कहा गया है और इस दृष्टिराग के सम्बन्ध में भी यह स्थिति है। आनन्द भी बुद्ध के जीवन काल को व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में बाधक भी माना गया है। भगवान् में अर्हत् अवस्था को प्राप्त नहीं कर पाये। बुद्ध के प्रति उनकी रागात्मकता महावीर के प्रथम शिष्य एवं गणधर इन्द्रभूति गौतम को जब तक भगवान् ही उनके अर्हत् बनने में बाधक रही। चाहे वह इन्द्रभूति गौतम हो महावीर जीवित रहे, कैवल्य (सर्वज्ञत्व) की प्राप्ति नहीं हो सकी, वे या आनन्द हो, यदि दृष्टिराग क्षीण नहीं होता है, तो अर्हत् अवस्था वीतरागता को उपलब्ध नहीं कर पाये। आखिर ऐसा क्यों हुआ? वह की प्राप्ति सम्भव नहीं है। वीतरागता की उपलब्धि के लिए अपने कौन सा तत्त्व था जो गौतम की वीतरागता और सर्वज्ञता की प्राप्ति धर्म और धर्मगुरु के प्रति भी रागभाव का त्याग करना होगा। में बाधक बन रहा था? प्राचीन जैन साहित्य में यह उल्लिखित है कि एक बार इन्द्रभूति गौतम 500 शिष्यों को दीक्षित कर भगवान् धार्मिक मतान्यता को कम करने का उपाय-गुणोपासना महावीर के पास ला रहे थे। महावीर के पास पहुँचते-पहुँचते उनके धार्मिक असहिष्णुता के कारणों में एक कारण यह है कि हम वे सभी शिष्य वीतराग और सर्वज्ञ हो चुके थे। गौतम को इस घटना गुणों के स्थान पर व्यक्तियों से जुड़ने का प्रयास करते हैं। जब हमारी से एक मानसिक खिन्नता हुई। वे विचार करने लगे कि जहाँ मेरे द्वारा आस्था का केन्द्र या उपास्य आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास की अवस्था दीक्षित मेरे शिष्य वीतरागता और सर्वज्ञता को उपलब्ध कर रहे हैं विशेष न होकर व्यक्ति विशेष बन जाता है, तो वहाँ मैं अभी भी इसको प्राप्त नहीं कर पा रहा हूँ। उन्होंने अपनी से ही आग्रह का घेरा खड़ा हो जाता है। हम यह मानने लगते हैं इस समस्या को भगवान् महावीर के सामने प्रस्तुत किया। गौतम पूछते कि महावीर हमारे हैं, बुद्ध हमारे नहीं। राम हमारे उपास्य हैं, कृष्ण हैं-हे भगवन्! ऐसा कौन-सा कारण है, जो मेरी सर्वज्ञता या वीतरागता या शिव हमारे उपास्य नहीं हैं। की प्राप्ति में बाधक बन रहा है? महावीर ने उत्तर दिया-हे गौतम! अत: यदि हम व्यक्ति के स्थान पर आध्यात्मिक विकास की भूमिका तुम्हारा मेरे प्रति जो रागभाव है, वही तुम्हारी सर्वज्ञता और वीतरागता विशेष को अपना उपास्य बनायें तो सम्भवतः हमारे आग्रह और मतभेद में बाधक है। जब तीर्थंकर महावीर के प्रति रहा हुआ रागभाव भी कम हो सकते हैं। इस सम्बन्ध में जैनों का दृष्टिकोण प्रारम्भ से ही वीतरागता का बाधक हो सकता है तो फिर सामान्य धर्मगुरु और धर्मशास्त्र उदार रहा है। जैन परम्परा में निम्न नमस्कार मन्त्र को परम पवित्र माना के प्रति हमारी रागात्मकता क्यों नहीं हमारे आध्यात्मिक विकास में गया हैबाधक होगी? यद्यपि जैन परम्परा धर्मगुरु और धर्मशास्त्र के प्रति ऐसी नमो अरहताणं। नमो सिद्धाणं। रागात्मकता को प्रशस्त-राग की संज्ञा देती है, किन्तु वह यह मानती नमो आयरियाणं। नमो उवज्झायाणं। है कि यह प्रशस्त-राग भी हमारे बन्धन का कारण है। राग राग है, नमो लोए सव्व साहूणं। फिर चाहे वह महावीर के प्रति क्यों न हो? जैन परम्परा का कहना प्रत्येक जैन के लिए इसका पाठ आवश्यक है, किन्तु इसमें किसी है कि आध्यात्मिक विकास की सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त करने के व्यक्ति के नाम का उल्लेख नहीं है। इसमें जिन पाँच पदों की वंदना लिए हमें इस रागात्मकता से भी ऊपर उठना होगा। ___ की जाती है, वे व्यक्तिवाचक न होकर गुणवाचक हैं। अर्हत, सिद्ध, जैन कर्मसिद्धान्त में मोह को बन्धन का प्रधान कारण माना गया आचार्य, उपाध्याय और साधु व्यक्ति नहीं है, वे आध्यात्मिक और है। यह मोह दो प्रकार का है—(१) दर्शनमोह और (2) चारित्रमोह। नैतिक विकास की विभिन्न भूमिकाओं के सूचक हैं। प्राचीन जैनाचार्यों
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________________ धार्मिक सहिष्णुता और जैन धर्म 361 की दृष्टि कितनी उदार थी कि उन्होंने इन पांच पदों में किसी व्यक्ति रंगने का स्वप्न न केवल दिवास्वप्न हैं, अपितु एक दुःस्वप्न भी है। का नाम नहीं जोड़ा। यही कारण है कि आज जैनों में अनेक सम्प्रदायगत महावीर ने सूत्रकृतांग में बहुत ही स्पष्ट रूप से कहा हैमतभेद होते हुए भी नमस्कार मंत्र सर्वमान्य बना हुआ है। यदि उसमें सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वयं। कहीं व्यक्तियों के नाम जोड़ दिये जाते तो सम्भवत: आज तक उसका जे उ तत्थ विउस्संति संसारे ते विउस्सिया।।१२ / स्वरूप न जाने कितना परिवर्तित और विकृत हो गया होता। नमस्कार अर्थात् जो लोग अपने-अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मत महामंत्र जैनों की धार्मिक उदारता और सहिष्णुता का सबसे महत्त्वपूर्ण की निन्दा करते हैं तथा दूसरों के प्रति द्वेष का भाव रखते हैं वे संसार प्रमाण है। उसमें भी 'लमों लोए सव्व साहूणं" यह पद तो धार्मिक में परिभ्रमण करते रहते हैं। जैन परम्परा का यह विश्वास रहा है कि उदारता का सर्वोच्च शिखर कहा जा सकता है। इसमें साधक कहता सत्य का सूर्य सभी के आँगन को प्रकाशित कर सकता है। उसकी है कि मैं लोक के सभी साधुओं को नमस्कार करता हूँ। वस्तुत: जिसमें किरणें सर्वत्र विकीर्ण हो सकती हैं। जैनों के अनुसार वस्तुत: मिथ्यात्व। भी साधुत्व या मुनित्व है वह वन्दनीय है। हमें साधुत्व को जैन व असत्यता तभी उत्पन्न होता है, जब हम अपने को ही एकमात्र सत्य बौद्ध आदि किसी धर्म या किसी सम्प्रदाय के साथ न जोड़कर गुणों और अपने विरोधी को असत्य मान लेते हैं। जैन आगम साहित्य में के साथ जोड़ना चाहिए। साधुत्व, मुनित्व या श्रमणत्व वेश या व्यक्ति मिथ्यात्व के जो विविध रूप बताये गये हैं, उनमें एकान्त और आग्रह नहीं है, वरन् एक आध्यात्मिक विकास की भूमिका है, एक स्थिति को भी मिथ्यात्व कहा गया है। कोई भी कथन जब वह अपने विरोधी है, वह कहीं भी और किसी भी व्यक्ति में हो सकती है। उत्तराध्ययनसूत्र कथन का एकान्तरूप से निषेधक होता है, मिथ्या हो जाता है और में कहा गया है कि जब उन्हीं मिथ्या कहे जाने वाले कथनों की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो। कर लिया जाता है तो वह सत्य बन जाता है। जैन आचार्यों ने जैन न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो।। धर्म को मिथ्यामतसमूह कहा है। आचार्य सिद्धसेन सन्मतितर्क प्रकरण समयाए समणो होइ बंभचेरेण बंभणो। में कहते हैंनाणेण य मुणी होइ तवेण होइ तावसो।११ भई मिच्छादसण समूहमइयस्स अमयसारस्स। सिर मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता, ओंकार का जाप करने जिणवयस्स भगवओ संविग्ग सुहाहिगम्मस्स।। 13 / / से कोई ब्राह्मण नहीं होता, जंगल में रहने से कोई मुनि नहीं होता अर्थात् 'मिथ्यादर्शनसमूहरूप अमृतरस प्रदायी और मुमुक्षुजनों 'और कुशचीवर धारण करने से कोई तापस नहीं होता। समता से को सहज समझ में आने वाले जिनवचन का कल्याण हो।' यहाँ जिनधर्म श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तपस्या से तापस को 'मिथ्यादर्शनसमूह' कहने का तात्पर्य है कि वह अपने विरोधी मतों कहलाता है। की भी सत्यता को स्वीकार करता है। जैन धर्म को मिथ्यामतसमूह ___ धर्म के क्षेत्र में अपने विरोधी पर नास्तिक, मिथ्यादृष्टि, काफ़िर कहना सिद्धसेन की विशालहृदयता का भी परिचायक है। वस्तुत: जैन आदि का आक्षेपण हमने बहुत किया है। हम सामान्यतया यह मान धर्म में यह माना गया है कि सभी धर्ममार्ग देश, काल और लेते हैं कि हमारे धर्म और दर्शन में विश्वास रखने वाला व्यक्ति ही वैयक्तिक-रुचि-वैभित्र्य के कारण भिन्न-भिन्न होते हैं, किन्तु वे सभी आस्तिक, सम्यग्दृष्टि और ईमानवाला है तथा दूसरे धर्म और दर्शन किसी दृष्टिकोण से सत्य भी होते हैं। में विश्वास रखने वाला नास्तिक है, मिथ्यादृष्टि है, काफिर है, वस्तुतः इन सबके मूल में दृष्टि यह है- मैं ही सच्चा हूँ और मेरा विरोधी मुक्ति का द्वारः सभी के लिए उद्घाटित झूठा। यही दृष्टिकोण असहिष्णुता और धार्मिक संघर्षों का मूलभूत वस्तुत: धार्मिक असहिष्णुता और धार्मिक संघर्षों का एक कारण कारण है। हमारा दुर्भाग्य इससे भी अधिक है, वह यह कि हम न यह भी होता है कि हम यह मान लेते हैं कि मुक्ति केवल हमारे धर्म केवल दूसरों को नास्तिक, मिथ्यादृष्टि या काफ़िर समझते हैं, अपितु में विश्वास करने से या हमारी साधना-पद्धति को अपनाने से ही सम्भव उन्हें सम्यग्दृष्टि और ईमानवाले बनाने की जिम्मेदारी भी अपने सिर है या प्राप्त हो सकती है। ऐसी स्थिति में हम इसके साथ-साथ यह पर ओढ़ लेते हैं। हम यह मान लेते हैं कि दुनियाँ को सच्चे रास्ते भी मान लेते हैं कि दूसरे धर्म और विश्वासों के लोग मुक्ति प्राप्त नहीं पर लगाने का ठेका हमने ही ले रखा है। हम मानते हैं कि मुक्ति कर सकते हैं। किन्तु यह मान्यता एक भ्रान्त आधार पर खड़ी है। हमारे धर्म और धर्मगुरु की शरण में ही होगी। इस एक अंधविश्वास वस्तुत: दु:ख या बन्धन के कारणों का उच्छेद करने पर कोई भी व्यक्ति या मिथ्या धारणा ने दुनिया में अनेक बार जिहाद या धर्मयुद्ध कराये मुक्ति का अधिकारी हो सकता है, इस सम्बन्ध में जैनों का दृष्टिकोण हैं। दूसरों को आस्तिक, सम्यग्दृष्टि और ईमानवाला बनाने के लिए सदैव ही उदार रहा है। जैन धर्म यह मानता है कि जो भी व्यक्ति हमने अनेक बार खून की होलियाँ खेली हैं। पहले तो अपने से भिन्न बन्धन के मूलभूत कारण राग-द्वेष और मोह का प्रहाण कर सकेगा, धर्म या सम्प्रदाय वाले को नास्तिकता या कुफ्र का फतवा दे देना और वह मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। ऐसा नहीं है कि केवल जैन ही फिर उसके सुधारने की जिम्मेदारी अपने सिर पर ओढ़ लेना, एक मोक्ष को प्राप्त करेंगे और दूसरे लोग मोक्ष को प्राप्त नहीं करेंगे। दोहरो मूर्खता है। दुनिया को अपने ही धर्म या सम्प्रदाय के रंग में उत्तराध्ययनसूत्र में, जो कि जैन परम्परा का एक प्राचीन आगम ग्रन्थ
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________________ 362 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ है, 'अन्य लिंगसिद्ध' का उल्लेख प्राप्त होता है अर्थात् संसार-परिभ्रमण के कारणभूत राग-द्वेष के तत्त्व जिसके इत्थी पुरिससिद्धा य तहेव य नपुंसगा। क्षीण हो चुके हैं उसे हमारा प्रणाम है, वह चाहे.ब्रह्मा हो, विष्णु हो, सलिंगे अनलिंगे य गिहिलिंगे तहेव य।।१४ महादेव हो या जिन। 'अन्यलिंग' शब्द का तात्पर्य जैनेतर धर्म और सम्प्रदाय के लोगों वस्तुत: हम अपने-अपने आराध्य के नामों को लेकर विवाद से है। जैन धर्म के अनुसार मुक्ति का आधार न तो कोई धर्म सम्प्रदाय करते रहते हैं। उसकी विशेषताओं को अपनी दृष्टि से ओझल कर है और न कोई विशेष वेश-भूषा ही। आचार्य रत्नशेखरसूरि सम्बोधसत्तरी देते हैं। सभी धर्म और दर्शनों में उस परम तत्त्व या परम सत्ता को में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि राग-द्वेष, तृष्णा और आसक्ति से रहित, विषय-वासनाओं से ऊपर सेयंबरो य आसंबरो य बुद्धो य अहव अन्नो वा। उठी हुई पूर्णप्रज्ञ तथा परम कारुणिक माना गया है। हमारी दृष्टि उस समभावभाविअप्पा लहेय मुक्खं न संदेहो।।१५ परम तत्त्व के इस मूलभूत स्वरूप पर न होकर नामों पर टिकी होती अर्थात् जो भी समभाव की साधना करेगा वह निश्चित ही मोक्ष है और इसी के आधार पर हम विवाद करते हैं। जबकि यह नामों को प्राप्त करेगा फिर चाहे वह श्वेताम्बर हो या दिगम्बर हो, बौद्ध हो का भेद अपने आप में कोई अर्थ नहीं रखता है। आचार्य हरिभद्र या अन्य किसी धर्म को मानने वाला हो। इसी बात का अधिक स्पष्ट कहते हैं - प्रतिपादन आचार्य हरिभद्र के ग्रन्थ उपदेशतरंगिणी में भी है। सदाशिवः परं ब्रह्म सिद्धात्मा तथातेति च। वे लिखते हैं कि शब्दैस्तद् उच्यतेऽन्वर्थाद् एकं एवैवमादिभिः।।११ नासाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तर्कवादे न च तत्त्ववादे। अर्थात् यह एक ही तत्त्व है चाहे उसे सदाशिव कहें, परब्रह्म न पक्षसेवाश्रयेन मुक्ति, कषाय मुक्तिः किल मुक्तिरेव।।१६ कहें, सिद्धात्मा कहें या तथागत कहें। नामों को लेकर जो विवाद किया अर्थात् मुक्ति न तो सफेद वस्त्र पहनने से होती है न दिगम्बर जाता है उसकी निस्तारता को स्पष्ट करने के लिए एक सुन्दर उदाहरण रहने से; तार्किक वाद-विवाद और तत्त्वचर्चा से भी मुक्ति प्राप्त नहीं दिया जाता है। एक बार भिन्न भाषा-भाषी लोग किसी नगर की धर्मशाला हो सकती। किसी एक सिद्धान्त विशेष में आस्था रखने या किसी में एकत्रित हो गये। वे एक ही वस्तु के अलग-अलग नामों को लेकर व्यक्ति विशेष की सेवा करने से भी मुक्ति असम्भव है। मुक्ति तो वस्तुत: परस्पर विवाद करने लगे। संयोग से उसी समय उस वस्तु का विक्रेता कषायों अर्थात्, क्रोध, मान, माया और लोभ से मुक्त होने में है। उसे लेकर वहाँ आया। सब उसे खरीदने के लिए टूट पड़े और अपने एक दिगम्बर आचार्य ने भी स्पष्ट रूप से कहा है - विवाद की निस्सारता को समझने लगे। धर्म के क्षेत्र में भी हमारी संघो को विन तारइ, कट्ठो मूलो तहेव णिप्पिच्छो। यही स्थिति है। हम सभी अज्ञान, तृष्णा, आसक्ति, या राग-द्वेष के अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पा व झाएहि।। तत्त्वों से ऊपर उठना चाहते हैं, किन्तु आराध्य के नाम या आराधना अर्थात् कोई भी संघ या सम्प्रदाय हमें संसार-समुद्र से पार नहीं विधि को लेकर व्यर्थ में विवाद करते हैं और इस प्रकार परम आध्यात्मिक करा सकता; चाहे वह मूलसंघ हो, काष्ठासंघ हो या निपिच्छिकसंघ अनुभूति से वंचित रहते हैं। वस्तुतः यह नामों का विवाद तभी तक हो। वस्तुतः जो आत्मबोध को प्राप्त करता है वही मुक्ति को प्राप्त रहता है जब तक कि हम उस आध्यात्मिक अनुभूति के रस का रसास्वादन करता है। मुक्ति तो अपनी विषय-वासनाओं से, अपने अहंकार और नहीं करते हैं। व्यक्ति जैसे ही वीतराग, वीततृष्णा या अनासक्त की अमर्ष से तथा राग-द्वेष के तत्त्वों से ऊपर उठने पर प्राप्त होती है। भूमिका का स्पर्श करता है, उसके सामने ये सारे नामों के विवाद अत: हम कह सकते हैं कि जैनों के अनुसार मुक्ति पर न तो व्यक्ति निरर्थक हो जाते हैं। सतरहवीं शताब्दी के आध्यात्मिक साधक आनन्दघन विशेष का अधिकार है और न तो किसी धर्म विशेष का अधिकार कहते हैंहै। मुक्त पुरुष चाहे वह किसी धर्म या सम्प्रदाय का रहा हो सभी के राम कहो रहिमान कहो कोउ काण्ह कहो महादेव री। लिए वन्दनीय और पूज्य होता है। आचार्य हरिभद्र लोकतत्त्वनिर्णय पारसनाथ कहो कोउ ब्रह्मा सकल ब्रह्म स्वयमेव री।। में कहते हैं भाजन भेद कहावत नाना एक मृतिका का रूप री। यस्य अनिखिलाश्च दोषा न सन्ति सवें गुणाश्च विद्यन्ते। तापे खंड कल्पनारोपित आप अखंड अरूप री।। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै।। 17 राम-रहीम, कृष्ण-करीम, महादेव और पार्श्वनाथ सभी एक ही अर्थात् जिसके सभी दोष विनष्ट हो चुके हैं और जिसमें सभी सत्य के विभिन्न रूप हैं। जैसे एक ही मिट्टी से बने विभिन्न पात्र गुण विद्यमान हैं, वह फिर ब्रह्मा हो, महादेव हो, विष्णु हो या फिर अलग-अलग नामों से पुकारे जाते हैं, किन्तु उनकी मिट्टी मूलत: एक जिन, हम उसे प्रणाम करते हैं। इसी बात को आचार्य हेमचन्द्र ही है। वस्तुत: आराध्य के नामों की यह भिन्नता वास्तविक भिन्नता महादेवस्तोत्र में लिखते हैं नहीं है। यह भाषागत भिन्नता है, स्वरूपगत भिन्नता नहीं है। अत: भव-बीजांकुरजनना रागाद्या क्षयमुपागता यस्य। इस आधार पर विवाद और संघर्ष निरर्थक है तथा विवाद करने वाले ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै।।१८ लोगों की अल्पबुद्धि के ही परिचायक हैं।
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________________ धार्मिक सहिष्णुता और जैन धर्म / 363 धार्मिक संघर्ष का नियंत्रक तत्त्व-प्रज्ञा से नहीं बचा सकेंगे। श्रद्धा भावना प्रधान है, भावनाओं को उभाड़ना धर्म के क्षेत्र में अनुदारता और असहिष्णुता के कारणों में एक सहज होता है। अत: धर्म के नाम पर अपने निहित स्वार्थों की सिद्धि कारण यह भी है कि हम धार्मिक जीवन में बुद्धि या विवेक के तत्त्वों में लगे हुए कुछ लोग अपने उन स्वार्थों की पूर्ति के लिए सामान्य को नकार कर श्रद्धा को ही एकमात्र आधार मान लेते हैं। यह ठीक जनमानस की भावनाओं को उभाड़कर उसे उन्मादी बना देते हैं तथा है कि धर्म श्रद्धा पर टिका हुआ है। धार्मिक जीवन के आधार हमारे शास्त्र में से कोई एक वचन प्रस्तुत कर उसे इस प्रकार व्याख्यायित विश्वास और आस्थाएँ हैं, लेकिन हमें यह ध्यान रखना होगा कि यदि करते हैं कि जिससे लोगों की भावनाएँ या धर्मोन्माद उभड़े और उन्हें हमारे ये विश्वास और आस्थाएँ विवेक-बुद्धि को नकार कर चलेंगे तो अपने निहित स्वार्थों की सिद्धि का अवसर मिले। वे यह भी कहते वे अंधविश्वासों में परिणित हो जायेंगे और ये अंधविश्वास ही धार्मिक हैं कि शास्त्र में एक शब्द का भी परिवर्तन करना या शास्त्र की अवहेलना संघर्षों के मूल कारण हैं। धार्मिक जीवन में विवेक-बुद्धि या प्रज्ञा को करना बहुत बड़ा पाप है। मात्र यही नहीं, वे जनसामान्य को शास्त्र श्रद्धा का प्रहरी बनाया जाना चाहिए, अन्यथा हम अंध-श्रद्धा से कभी के अध्ययन का अनधिकारी मानकर अपने को ही शास्त्र का एकमात्र भी मुक्त नहीं हो सकेंगे। आज का युग विज्ञान और तर्क का युग सच्चा व्याख्याता सिद्ध करते हैं और शास्त्र के नाम पर जनता को है, फिर भी हमारा अधिकांश जनसमाज, जो अशिक्षित है, वह श्रद्धा मूर्ख बनाकर अपना हित साधन करते रहते हैं। धर्म के नाम पर युगों-युगों के बल पर जीता है। हमें यह स्मरण रखना होगा कि श्रद्धा यदि विवेक से जनता का इसी प्रकार शोषण होता रहा है। अत: यह आवश्यक प्रधान नहीं होती तो वह सर्वाधिक घातक होती। इसीलिए जैन आचार्यों है कि शास्त्र की सारी बातों और उनकी व्याख्याओं को विवेक की ने अपने मोक्षमार्ग की विवेचना में सम्यग्दर्शन के साथ-साथ सम्यग्ज्ञान. तराजू पर तौला जाये। उनके सारे नियमों और मर्यादाओं का युगीन को भी आवश्यक माना है। जैन परम्परा में भी जब आचार के बाह्य सन्दर्भ में मूल्यांकन और समीक्षा की जाये। जब तक यह सब नहीं विधि-निषेधों को लेकर पार्श्वनाथ और महावीर की संघ-व्यवस्था में होता है, तब तक धार्मिक जीवन में आयी हुई संकीर्णता को मिटा जो मतभेद थे, उन्हें सुलझाने का प्रयत्न किया गया, तब उसके लिए पाना संभव नहीं है। विवेक ही एक ऐसा तत्त्व है जो हमारी दृष्टि श्रद्धा के स्थान पर प्रज्ञा अर्थात् विवेक-बुद्धि को ही प्रधानता दी गयी। को उदार और व्यापक बना सकता है। श्रद्धा आवश्यक है किन्तु उसे उत्तराध्ययनसूत्र के तेईसवें अध्ययन में पार्श्वनाथ की परम्परा के तत्कालीन विवेक का अनुगामी होना चाहिए। विवेकयुक्त श्रद्धा ही सम्यक् श्रद्धा पमुख आचार्य केशी महावीर के प्रधान शिष्य इन्द्रभूति गौतम से यह है। वही हमें सत्य का दर्शन करा सकती है। विवेक से रहित श्रद्धा प्रश्न करते हैं कि एक ही लक्ष्य की सिद्धि के लिए प्रयत्नशील पार्श्वनाथ अंध-श्रद्धा होगी और हम उसके आधार पर अनेक अंधविश्वासों के शिकार और महावीर के आचार-नियमों में यह अन्तर क्यों है? इससे समाज बनेंगे। आज धार्मिक उदारता और सहिष्णुता के लिए श्रद्धा को विवेक में मतिभ्रम उत्पन्न होता है कि से समन्वित किया जाना चाहिए। इसलिए जैनाचार्यों ने कहा था कि पन्ना समिक्खए धम्मं तत्तं तत्तविणिच्छय।२० सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन (श्रद्धा) में एक सामंजस्य होना चाहिए। __ अर्थात् धार्मिक आचार के नियमों की समीक्षा और मूल्यांकन प्रज्ञा के द्वारा करना चाहिए। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि धार्मिक जैन धर्म में धार्मिक सहिष्णुता का आधार-अनेकान्तवाद जीवन में अकेली श्रद्धा ही आधारभूत नहीं मानी जानी चाहिए, उसके जैन आचार्यों की मान्यता है कि परमार्थ, सत् या वस्तुतत्त्व अनेक साथ-साथ तर्क-बुद्धि, प्रज्ञा एवं विवेक को भी स्थान मिलना चाहिए। विशेषताओं और गुणों का पुंज है। उनका कहना है कि 'वस्तुतत्त्व भगवान् बुद्ध ने आलारकलाम को कहा था कि तुम किसी के वचनों अनन्तधर्मात्मक' है। 22 उसे अनेक दृष्टियों से जाना जा सकता है और को केवल इसलिए स्वीकार मत करो कि इनका कहने वाला श्रमण कहा जा सकता है। अत: उसके सम्बन्ध में कोई भी निर्णय निरपेक्ष हमारा पूज्य है। हे कलामों! जब तुम आत्मानुभव से अपने आप ही और पूर्ण नहीं हो सकता है। वस्तुतत्त्व के सम्बन्ध में हमारा ज्ञान और यह जान लो कि ये बातें कुशल हैं, ये बातें निर्दोष हैं, इनके अनुसार कथन दोनों ही सापेक्ष है अर्थात् वे किसी सन्दर्भ या दृष्टिकोण के चलने से हित होता है, सुख होता है, तभी उन्हें स्वीकार करो। एक आधार पर ही सत्य हैं। आंशिक एवं सापेक्ष ज्ञान/कथन को या अपने अन्य बौद्ध ग्रन्थ तत्त्वसंग्रह में भी कहा गया है से विरोधी ज्ञान/कथन को असत्य कहकर नकारने का अधिकार नहीं तापाच्छेदाच्च निकषात् सुवर्णमिव पण्डितैः। है। इसे हम निम्न उदाहरण से स्पष्टतया समझ सकते हैं- कल्पना परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो न तु गौरवात्।।२१ कीजिए कि अनेक व्यक्ति अपने-अपने कैमरों से विभिन्न कोणों से एक जिस प्रकार स्वर्ण को काटकर, छेदकर, कसकर और तपाकर वृक्ष का चित्र लेते हैं। ऐसी स्थिति में सर्वप्रथम तो हम यह देखेंगे परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार से धर्म की भी परीक्षा की जानी चाहिए। कि एक ही वृक्ष के विभिन्न कोणों से, विभिन्न व्यक्तियों के द्वारा उसे केवल शास्ता के प्रति आदरभाव के कारण स्वीकार नहीं करना हजारों-हजार चित्र लिये जा सकते हैं। साथ ही इन हजारों-हजार चित्रों चाहिये। धार्मिक जीवन में जब तक विवेक या प्रज्ञा को विश्वास और के बावजूद भी वृक्ष का बहुत कुछ भाग ऐसा है जो कैमरों की पकड़ आस्था का नियंत्रक नहीं माना जायेगा, तब तक हम मानव जाति को से अछूता रह गया है। पुन: जो हजारों-हजार चित्र भिन्न-भिन्न कोणों धार्मिक संघर्षों और धर्म के नाम पर खेली जाने वाली खून की होली से लिए गये हैं, वे एक-दूसरे से भिन्नता रखते हैं। यद्यपि वे सभी
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________________ 364 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ उसी वृक्ष के चित्र हैं। केवल उसी स्थिति में दो चित्र समान होंगे जब मान लिया जाता है तो वह असत्य बन जाता है और इसे ही जैनों उनका कोण और वह स्थल, जहाँ से वह चित्र लिया गया है-एक की परम्परागत शब्दावली में मिथ्यात्व कहा गया है। जिस प्रकार ही हो। अपूर्णता और भिन्नता दोनों ही बातें इन चित्रों में हैं। यही अलग-अलग कोणों से लिये गये चित्र परस्पर भिन्न-भिन्न और विरोधी बात मानवीय ज्ञान के सम्बन्ध में भी है। मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों की होकर भी एक साथ यथार्थ के परिचायक होते हैं, उसी प्रकार क्षमता और शक्ति सीमित है। वह एक अपूर्ण प्राणी है। अपूर्ण के अलग-अलग संदर्भो में कहे गये भिन्न-भिन्न विचार परस्पर विरोधी होते द्वारा पूर्ण को जानने के समस्त प्रयास आंशिक सत्य के ज्ञान से आगे हुए भी सत्य हो सकते हैं। सत्य केवल उतना नहीं है, जितना हम नहीं जा सकते हैं। हमारा ज्ञान, जब तक कि वह ऐन्द्रिकता का अतिक्रमण जानते हैं। अत: हमें अपने विरोधियों के सत्य का निषेध करने का नहीं कर जाता, सदैव आंशिक और अपूर्ण होता है। इसी आंशिक अधिकार भी नहीं है। वस्तुत: सत्य केवल तभी असत्य बनता है, ज्ञान को जब पूर्ण सत्य मान लिया जाता है, तो विवाद और वैचारिक जब हम उस अपेक्षा या दृष्टिकोण को दृष्टि से ओझल कर देते हैं, संघर्षों का जन्म होता है। उपर्युक्त उदाहरण में वृक्ष के सभी चित्र उसके जिसमें वह कहा गया है। जिस प्रकार चित्र में वस्तु की सही स्थिति किसी एक अंश विशेष को ही अभिव्यक्त करते हैं। वृक्ष के इन सभी को समझने के लिए उस कोण का भी ज्ञान अपेक्षित होता है, उसी अपूर्ण एवं भिन्न-भिन्न और दो विरोधी कोणों से लिये जाने के कारण प्रकार वाणी में प्रकट सत्य को समझने के लिए उस दृष्टिकोण का किसी सीमा तक परस्पर विरोधी अनेक चित्रों में हम यह कहने का विचार अपेक्षित है जिसमें वह कहा गया है। समग्र कथन संदर्भ सहित साहस नहीं कर सकते हैं कि यह चित्र उस वृक्ष का नहीं है अथवा होते हैं और उन सन्दर्भो से अलग हटकर उन्हें नहीं समझा जा सकता यह चित्र असत्य है। इसी प्रकार हमारे आंशिक दृष्टिकोणों पर आधारित है। जो ज्ञान सन्दर्भ सहित है, वह सापेक्ष है और जो सापेक्ष है, वह सापेक्ष ज्ञान को यह अधिकार नहीं है कि वह अपने से विरोधी मन्तव्यों अपनी सत्यता का दावा करते हुए भी दूसरे की सत्यता का निषेधक को असत्य कहकर नकार दे। वस्तुत: हमारी ऐन्द्रिक क्षमता, तर्कबुद्धि, नहीं हो सकता है। सत्य के सम्बन्ध में यही एक ऐसा दृष्टिकोण है शब्दसामर्थ्य और भाषायी अभिव्यक्ति सभी अपूर्ण, सीमित और सापेक्ष जो विभिन्न धर्म और संप्रदायों की सापेक्षिक सत्यता एवं मूल्यवत्ता हैं। ये सम्पूर्ण सत्य की एक साथ अभिव्यक्ति में सक्षम नहीं हैं। मानव को स्वीकार कर उनमें परस्पर सौहार्द्र और समन्वय स्थापित कर सकता बुद्धि सम्पूर्ण सत्य का नहीं, अपितु उसके एकांश का ग्रहण कर सकती है। अनेकान्त की आधारभूमि पर ही यह मानना सम्भव है कि हमारे है। तत्त्व या सत्ता अज्ञेय तो नहीं है, किन्तु बिना पूर्णता को प्राप्त और हमारे विरोधी के विश्वास और कथन दो भिन्न-भिन्न परिप्रेक्ष्यों में हुए उसे पूर्णरूप से जाना भी नहीं जा सकता। आइन्स्टीन ने कहा एक साथ सत्य हो सकते हैं। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर सन्मतितर्क था- हम सापेक्ष सत्य को जान सकते हैं, निरपेक्ष सत्य को तो कोई में कहते हैंनिरपेक्ष द्रष्टा ही जानेगा। जब तक हमारा ज्ञान अपूर्ण, सीमित या सापेक्ष णिययवयणिज्जसच्चा सव्वनया परवियालणे मोहा। है तब तक हमें दूसरों के ज्ञान और अनुभव को, चाहे वह हमारे ज्ञान ते उण ण दिट्ठसमओ विभयइ सच्चे व अलिए वा।।२४ का विरोधी क्यों न हो, असत्य कहकर निषेध करने का कोई अधिकार अर्थात् सभी नय (अर्थात् सापेक्षिक वक्तव्य) अपने-अपने नहीं है। आंशिक सत्य का ज्ञान दूसरों के द्वारा प्राप्त ज्ञान का निषेधक दृष्टिकोण से सत्य हैं। वे असत्य तभी होते हैं, जब वे अपने से विरोधी नहीं हो सकता है। ऐसी स्थिति में यह कहना कि मेरी दृष्टि ही सत्य दृष्टिकोणों के आधार पर किये गये कथनों का निषेध करते हैं। इसीलिए है, सत्य मेरे ही पास है, दार्शनिक दृष्टि से एक भ्रान्त धारणा ही अनेकान्त दृष्टि का समर्थक या शास्त्र का ज्ञाता उन परस्पर विरोधी है। यद्यपि जैनों के अनुसार सर्वज्ञ या पूर्ण-पुरुष संपूर्ण सत्य का सापेक्षिक कथनों में ऐसा विभाजन नहीं करता है कि ये सच्चे हैं और साक्षात्कार कर लेता है, फिर भी उसका ज्ञान और कथन उसी प्रकार ये झूठे हैं। किसी कथन या विश्वास की सत्यता और असत्यता उस निरपेक्ष (अपेक्षा से रहित) नहीं हो सकता है, जिस प्रकार बिना किसी सन्दर्भ अथवा दृष्टिकोण विशेष पर निर्भर करती है जिसमें वह कहा कोण के किसी भी वस्तु का कोई भी चित्र नहीं लिया जा सकता गया है। वस्तुत: यदि हमारी दृष्टि उदार और व्यापक है, तो हमें परस्पर है। पूर्ण सत्य का बोध चाहे संभव हो, किन्तु उसे न तो निरपेक्ष रूप विरोधी कथनों की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार करना चाहिए। से जाना जा सकता है और न कहा ही जा सकता है। उसकी अभिव्यक्ति परिणामस्वरूप विभिन्न धर्मवादों में पारस्परिक विवाद या संघर्ष का का जब भी कोई प्रयास किया जाता है, वह आंशिक और सापेक्ष कोई कारण शेष नहीं बचता। जिस प्रकार परस्पर झगड़ने वाले व्यक्ति बनकर ही रह जाता है। पूर्ण-पुरुष को भी हमें समझाने के लिए हमारी किसी तटस्थ व्यक्ति के अधीन होकर मित्रता को प्राप्त कर लेते हैं, उसी भाषा का सहारा लेना पड़ता है जो सीमित, सापेक्ष और अपूर्ण उसी प्रकार परस्पर विरोधी विचार और विश्वास अनेकान्त की उदार है। 'है' और 'नहीं है' की सीमा से घिरी हुई भाषा पूर्ण सत्य का और व्यापक दृष्टि के अधीन होकर पारस्परिक विरोध को भूल जाते प्रकटन कैसे करेगी। इसीलिए जैन परम्परा में कहा गया है कि कोई हैं।२५ उपाध्याय यशोविजय जी लिखते हैंभी वचन (जिनवचन भी) नय (दृष्टिकोण विशेष) से रहित नहीं होता यस्य सर्वत्र समता नयेषु तनयेष्विव। है अर्थात् सर्वज्ञ के कथन भी सापेक्ष हैं, निरपेक्ष नहीं है। 23 जैन परम्परा तस्यानेकान्तवादस्य क्व न्यूनाधिकशेमुषी।। के अनुसार जब सापेक्ष सत्य को निरपेक्ष रूप से दूसरे सत्यों का निषेधक तेन स्याद्वादमालंब्य सर्वदर्शनतुल्यताम्। साना
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________________ धार्मिक सहिष्णुता और जैन धर्म 365 मोक्षोद्देशाविशेषेण य: पश्यति स शास्त्रवित्।। सूत्रकृतांग का ही उदाहरण लें, उसमें अनेक विरोधी विचारधाराओं माध्यस्थ्यमेव शास्त्रार्थों येन तच्चारु सिध्यति।। की समीक्षा की गयी है। किन्तु शालीनता यह है कि कहीं भी किसी स एव धर्मवादः स्यादन्यद्वालिशवल्गनम्।। धर्ममार्ग या धर्मप्रवर्तक पर वैयक्तिक छींटाकशी नहीं है। ग्रन्थकार केवल माध्यस्थ्यसहितं ह्येकपदज्ञानमपि प्रमा। उनकी विचारधाराओं का उल्लेख करता है, उनके मानने वालों का शास्त्रकोटिवृथैवान्या तथा चोक्तं महात्मना।।२६ नामोल्लेख नहीं करता है। वह केवल इतना कहता है कि कुछ लोगों अर्थात् सच्चा अनेकान्तवादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता की यह मान्यता है या कुछ लोग यह मानते हैं, जो कि संगतिपूर्ण है। वह सम्पूर्ण दृष्टिकोणों (दर्शनों) को इस प्रकार वात्सल्य दृष्टि से है। इस प्रकार वैयक्तिक या नामपूर्वक समालोचना से, जो कि विवाद देखता है, जिस प्रकार कोई पिता अपने पुत्र को। एक सच्चे अनेकान्त- या संघर्ष का कारण हो सकती है, वह सदैव दूर रहता है।२८ जैनागम वादी की दृष्टि न्यूनाधिक नहीं होती है। वह सभी के प्रति समभाव साहित्य में हम ऐसे अनेक सन्दर्भ भी पाते हैं, जहां अपने से विरोधी रखता है अर्थात् प्रत्येक विचारधारा या धर्म-सिद्धान्त की सत्यता का विचारों और विश्वासों के लोगों के प्रति समादर दिखाया गया है। सर्वप्रथम विशेष परिप्रेक्ष्य में दर्शन करता है। आगे वे पुन: कहते हैं कि सच्चा आचारांगसूत्र में जैन मुनि को यह स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि वह शास्त्रज्ञ कहे जाने का अधिकारी वही है जो स्याद्वाद अर्थात् उदार दृष्टिकोण अपनी भिक्षावृत्ति के लिए इस प्रकार जाये कि अन्य परम्पराओं के का आलम्बन लेकर सम्पूर्ण विचारधाराओं को समान भाव से देखता श्रमणों, परिव्राजकों और भिक्षुओं को भिक्षा प्राप्त करने में कोई बाधा है। वस्तुत: माध्यस्थभाव ही शास्त्रों का गूढ़ रहस्य है और यही सच्चा न हो। यदि वह देखे कि अन्य परम्परा के श्रमण या भिक्षु किसी गृहस्थ धर्मवाद है। माध्यस्थभाव अर्थात् उदार दृष्टिकोण के रहने पर शास्त्र उपासक के द्वार पर उपस्थित हैं तो वह या तो भिक्षा के लिए आगे के एक पद का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा करोड़ो शास्त्रों का ज्ञान प्रस्थान कर जाये या फिर सबके पीछे इस प्रकार खड़ा रहे कि उन्हें भी वृथा है। भिक्षाप्राप्ति में कोई बाधा न हो। मात्र यही नहीं यदि गृहस्थ उपासक उसे और अन्य परम्पराओं के भिक्षुओं के सम्मिलित उपभोग के लिए जैन धर्म और धार्मिक सहिष्णुता के प्रसंग / जैन भिक्षु को यह कह कर भिक्षा दे कि आप सब मिलकर खा लेना, जैनाचार्यों का दृष्टिकोण प्रारम्भ से ही उदार और व्यापक रहा तो ऐसी स्थिति में जैन भिक्षु का यह दायित्व है कि वह समानरूप है। यही कारण है कि उन्होंने दूसरी विचारधाराओं और विश्वासों के से उस भिक्षा को सभी में वितरित करे। वह न तो भिक्षा में प्राप्त अच्छी लोगों का सदैव आदर किया है। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण उदाहरण सामग्री को अपने लिए रखे न भिक्षा का अधिक अंश ही ग्रहण करे।२९ जैन परम्परा का एक प्राचीनतम ग्रन्थ है-ऋषिभाषित। ऋषिभाषित भगवतीसूत्र के अन्दर हम यह देखते हैं कि भगवान् महावीर के अन्तर्गत उन पैंतालीस अर्हत् ऋषियों के उपदेशों का संकलन है, के ज्येष्ठ अन्तेवासी गणधर इन्द्रभूति गौतम को मिलने के लिए उनका जिनमें पार्श्वनाथ और महावीर को छोड़कर लगभग सभी जैनेतर परम्पराओं पूर्वपरिचित मित्र स्कन्ध, जो कि अन्य परम्परा के परिव्राजकके रूप के हैं। नारद, भारद्वाज, नमि, रामपुत्र, शाक्यपुत्र गौतम, मंखलि गोशाल में दीक्षित हो गया था, आता है तो महावीर स्वयं गौतम को उसके आदि अनेक धर्ममार्ग के प्रवर्तकों एवं आचार्यों के विचारों का इसमें सम्मान और स्वागत का आदेश देते हैं। गौतम आगे बढ़कर अपने जिस आदर के साथ संकलन किया गया है, वह धार्मिक उदारता और मित्र का स्वागत करते हैं और कहते हैं-हे स्कन्ध! तुम्हारा स्वागत सहिष्णुता का परिचायक है। इन सभी को अर्हत् ऋषि कहा गया है२७ है, सुस्वागत है।३० अन्य परम्परा के श्रमणों और परिव्राजकों के प्रति और इनके वचनों को आगमवाणी के रूप में स्वीकार किया गया है। इस प्रकार का सम्मान एवं आदरभाव निश्चित ही धार्मिक सहिष्णुता सम्भवतः प्राचीन धार्मिक साहित्य में यही एकमात्र ऐसा उदाहरण है, और पारस्परिक सद्भाव में वृद्धि करता है। जहां विरोधी विचारधारा और विश्वासों के व्यक्तियों के वचनोंको उत्तराध्ययनसूत्र में हम देखते हैं कि भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा आगमवाणी के रूप में स्वीकार कर समादर के साथ प्रस्तुत किया के तत्कालीन प्रमुख आचार्य श्रमणकेशी और भगवान् महावीर के प्रधान गया हो। गणधर इन्द्रभूति गौतम जब संयोग से एक ही समय श्रावस्ती में उपस्थित जैन परम्परा की धार्मिक उदारता की परिचायक सूत्रकृतांगसूत्र होते हैं तो वे दोनों परम्पराओं के पारस्परिक मतभेदों को दूर करने की पूर्वनिर्दिष्ट वह गाथा भी है, जिसमें यह कहा गया है कि जो के लिए परस्पर सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में मिलते हैं। एक ओर ज्येष्ठकुल अपने-अपने मत की प्रशंसा करते हैं और दूसरों के मतों की निन्दा का विचार कर गौतम स्वयं श्रमणकेशी के पास जाते हैं तो दूसरी करते हैं तथा उनके प्रति विद्वेषभाव रखते हैं, वे संसारचक्र में परिभ्रमित ओर श्रमणकेशी उन्हें श्रमणपर्याय में ज्येष्ठ मानकर पूरा समादर प्रदान होते रहते हैं। सम्भवतः धार्मिक उदारता के लिए इससे महत्त्वपूर्ण और करते हैं। जिस सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में वह चर्चा चलती है और कोई वचन नहीं हो सकता। यद्यपि यह सत्य है कि अनेक प्रसंगों पारस्परिक मतभेदोंका निराकरण किया जाता है, वह सब धार्मिक में जैन आचार्यों ने भी दूसरी विचारधाराओं और मान्यताओं की सहिष्णुता और उदार दृष्टिकोण का एक अद्भुत उदाहरण है।३१ समालोचना की है, किन्तु उन सन्दर्भो में भी कुछ अपवादों को छोड़कर दूसरी धर्म परम्पराओं और सम्प्रदायों के प्रति ऐसा ही उदार और सामान्यतया हमें एक उदार दृष्टिकोण का परिचय मिलता है। हम समादर का भाव हमें आचार्य हरिभद्र के ग्रंथों में भी देखने को मिलता
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________________ 366 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ है। हरिभद्र संयोग से उस युग में उत्पन्न हुए जब पारस्परिक को प्रोत्साहित किया अपितु शिवमन्दिर में स्वयं उपस्थित होकर अपने आलोचना-प्रत्यालोचना अपनी चरम सीमा पर थी। फिर भी हरिभद्र उदारवृत्ति का परिचय भी दिया। हेमचंद्र के समान इस उदार परम्परा न केवल अपनी समालोचनाओं में संयत रहे अपितु उन्होंने सदैव ही का निर्वाह अन्य जैनाचार्यों ने भी किया था, जिसके अभिलेखीय प्रमाण अन्य परम्पराओं के आचार्यों के प्रति आदरभाव प्रस्तुत किया। आज भी उलब्ध होते हैं। दिगम्बर जैनाचार्य रामकीर्ति ने तोकलजी शास्त्रवार्तासमुच्चय उनकी इस उदारवृत्ति और सहिष्णुदृष्टि की परिचायक में मंदिर के लिए और श्वेताम्बर आचार्य जयमंगलसूरि ने चामुण्डा के एक महत्त्वपूर्ण कृति है। बौद्ध दर्शन की दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा मन्दिर के लिए प्रशस्ति-काव्य लिखे। उपाध्याय यशोविजय की धार्मिक करने के उपरान्त वे कहते हैं कि बुद्ध ने जिन क्षणिकवाद, अनात्मवाद सहिष्णुता का उल्लेख हम पूर्व में कर ही चुके है। उनका यह कहना और शून्यवाद के सिद्धान्तों का उपदेश दिया, वह वस्तुत: ममत्व के कि माध्यस्थ या सहिष्णु भाव ही धर्मवाद है, धार्मिक सहिष्णुता का विनाश और तृष्णा के उच्छेद के लिए आवश्यक ही था। वे भगवान् मुद्रालेख है। इसी प्रकार जैन रहस्यवादी सन्तकवि आनन्दधन भी बुद्ध को अर्हत्, महामुनि और सुवैद्य की उपमा देते हैं और कहते कहते हैंहैं कि जिस प्रकार एक अच्छा वैद्य रोगी के रोग और प्रकृति को ध्यान षडदर्शन जिन अंगभणोजे न्यायषडंग जे साधे रे। में रखकर एक ही रोग के लिए भिन्न-भित्र रोगियों को भिन्न-भिन्न औषधि नमिजिनवरना चरम उपासक षड्दर्शन आराधे रे।। प्रदान करता है, उसी प्रकार भगवान् बुद्ध ने अपने अनुयायियों के अर्थात् सभी दर्शन जिन के अंग हैं और जिन का उपासक सभी विभिन्न स्तरों को ध्यान में रखते हुए इन विभिन्न सिद्धान्तों का उपदेश दर्शनों की उपासना करता है। जैनों की यह उदार और सहिष्णुवृत्ति दिया है। ऐसा ही उदार दृष्टिकोण वे सांख्य दर्शन के प्रस्तोता महामुनि वर्तमान युग तक यथार्थतः जीवित है। आज भी जैनों की सर्वप्रिय कपिल और न्यायदर्शन के प्रतिपादकों के प्रति भी व्यक्त करते हैं। प्रार्थना का प्रारम्भ इसी उदार भाव के साथ होता हैकपिल के लिए भी वे महामुनि शब्द का प्रयोग कर अपना आदर जिसने रागद्वेष कामादिक जीते, सब जग जान लिया। भाव प्रकट करते हैं। 32 विभिन्न विरोधी दार्शनिक विचारधाराओं में किस सब जीवों को मोक्ष मार्ग का, निस्पृह हो उपदेश दिया। प्रकार संगति स्थापित की जा सकती है इसका एक अच्छा उदाहरण बुद्ध वीर जिन हरि हर ब्रह्मा, या उसको स्वाधीन कहो। उनका यह ग्रन्थ है। भक्तिभाव से प्रेरित हो, यह चित्त उसी में लीन रहो। . 12 वीं शताब्दी के पसिद्ध जैनाचार्य हेमचन्द्र ने भी इसी प्रकार वस्तुत: यदि हम विश्व में शान्ति की स्थापना चाहते हैं, यदि मार्मिक सहिष्णुता और उदारवृत्ति का परिचय दिया है। उन्होंने न केवल हम चाहते हैं कि मनुष्य-मनुष्य के बीच घृणा और विद्वेष की भावनाएँ भगवान् शिव की स्तुति में महादेवस्तोत्र की रचना की अपितु शिवमन्दिर समाप्त हों और सभी एक-दूसरे के विकास में सहयोगी बनें, तो हमें में जाकर शिव की वन्दना करते हुए कहा- जिसने संसार परिभ्रमण आचार्य अमितगति के निम्न चार सूत्रों को अपने जीवन में अपनाना के कारणभूत राग-द्वेष के तत्वों को क्षीण कर दिया है, उसे मैं प्रणाम होगा। वे कहते हैं३३करता हूँ चाहे वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शिव हो या जिन। जैनों की सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्। इस धार्मिक उदारता का एक प्रमाण यह भी है कि महाराजा कुमारपाल माध्यस्थ भावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव।। और विष्णुवर्धन ने जैन होकर भी शिव और विष्णु के अनेक मन्दिरों हे प्रभु! प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव, गुणीजनों के प्रति समादरभाव, का निर्माण करवाया और उनकी व्यवस्था के लिए भूमिदान किया। दुःख एवं पीड़ित जनों के प्रति कृपाभाव तथा विरोधियों के प्रति कुमारपाल के धर्मगुरु आचार्य हेमचन्द्र ने न केवल उसकी इस उदारवृत्ति माध्यस्थभाव-समताभाव मेरी आत्मा में सदैव रहे। 1. आयाणे अज्जो सामाइए, आयाणे अज्जो सामाइयस्स अट्ठे- पं० परमेष्ठीदास न्यायतीर्थ, प्रका० सत्साहित्य प्रकाशन एवं प्रचार व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, संपा० मधुकरमुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन विभाग, श्री कुन्दकुन्द महान जैन दिगम्बर तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट, जयपुर, समिति, ब्यावर, 1992, 1/9. 1988, 156 / समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए-आचारांगसूत्र, संपा० मुधकरमुनि, 8. एवाई मिच्छद्दिट्ठिस्स मिच्छत्तपरिग्गहियाई मिच्छसुयं एयाणि चेव प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1980, 1/8/3. सम्मदिट्ठिस्स सम्मत्तपरिहियाई सम्मसुयं अहवा मिच्छदिट्ठिस्स वि धर्म जीवन जीने की कला-पृ० 7-8. सम्मसुयं कम्हा? सम्मत्तहेउत्तणओ, जम्हा ते मिच्छदिट्ठिया तेहिं चेव 4. योगदृष्टिसमुच्चय, हरिभद्र, विजय कमल केशर ग्रन्थमाला, खम्भात्, समएहिं चोइया समाणा केइ सपक्खदिट्ठीओ वयेति से तं मिच्छसुयं। वि०सं० 1992, 137. नन्दीसूत्र, प्रका० धर्मदास जैन मित्र मंडल, रतलाम, सं० 2005, आचारांगसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन 72 / समिति, ब्यावर, 1980, 1/4/2. ९अ. भगवती-अभयदेवकृत वृत्ति, प्रका० केशरीमल जेन, श्वेताम्बर योगदृष्टिसमुच्चय, हरिभद्र, विजय कमल केशर ग्रन्थमाला, सम्वत्, संस्था, सूरत, 1937, 14/7/ पृ० 1188 / वि०सं० 1992, 133. " मुक्खमग्ग पवन्नानं सिनेहो वज्जसिंखला। णाणाजीवा णाणा कम्मं णाणाविहं हवे लद्धी। वीरे जीवन्तए जाओ गोयम जं न केवलि।। तम्हा वयणविवादं सगपरसमएहि वज्जिजो।। -नियमसार, अनु० -उघृतत कल्पसूत्र टीका विनयविजय, प्रका० हीरालाल जैन, mi)
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________________ धार्मिक सहिष्णुता और जैन धर्म 367 जामनगर, 1939, पृ० 120 / 24. सन्मतितर्क, संपा० सुखलाल संघवी, प्रका० पूंजीभाई ग्रन्थमाला 10. सम्मत्तं चेव मिच्छत्तं, सम्मामिच्छत्तमेव य। कार्यालय, अहमदाबाद, 1932, 1.28 / एयाओ तिन्त्रिपयडीओ मोहणिज्जस्स दंसणे।।- उत्तराध्यययन 25. सव्वे समयंति सम्मं चेगवसाओ नया विरुद्धा वि। संपा०- साधवी चन्दना, प्रका० वीरायतन प्रकाशन, आगरा, मिच्च ववहारिणो इव, राआदासीण वसवत्ती।। 1972, 33/9 / -विशेषाभाष्य, श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण टीका हेमचन्द्र, प्रका० 11. वही, 25/31-32 / हर्षचन्द्र भूराभाई, बनारस, सं० 2441, 2267 / 12. सूत्रकृतांगसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन 26. अध्यात्मोपनिषद्, यशोविजय, न्यायाचार यशोविजयकृत ग्रन्थमाला, समिति, ब्यावर, 1982, 1/1/2/23. प्रका० श्री जैनधर्म प्रकारक सभा, भावनगर, वि०सं० 1965, 13. सन्मतितर्कप्रकरण, 3/69 / 61,70, 71,73 / 14. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० साधवी चन्दना, प्रका० वीरायतन प्रकाशन, 27. अरहता इसिणा बुइयं-इसिभासियाई, संपा० महोपाध्याय विनयसागर, आगरा, 1972, 36/49 / प्रका० प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, 1988, 1 / 15. सम्बोधसप्ततिका, अनु० डॉ० रविशंकर मिश्र, प्रका० पार्श्वनाथ 28. एवमेगे उ पासत्था ते भुज्जो विप्पगब्धिया। विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, 1986, 2 / एवं उवट्ठिता संता ण ते दुक्खविमोक्खया।। 16. उपदेशतरङ्गिणी, संपा० विजय जिनेन्द्रसूरि, प्रका० श्री हर्ष पुष्पामृत -सूत्रकृतांगसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन जैन ग्रन्थमाला, सौराष्ट्र, 1986, 1/8 / समिति, ब्यावर, 1982, 1/2/31-32 / 17. लोकतत्त्वनिर्णय, 140. 29. आचारांगसूत्र, संपा० मधुकरमुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन 18. महादेवस्तोत्र, 44. समिति, ब्यावर, 2/1/5/29 / 19. योगदृष्टिसम्मुच्चय, हरिभद्र, प्रका० विजय कमल केशर ग्रन्थमाला, 30. हे खंदया! सागयं, खंदया ! सुसागयं- भगवतीसूत्र, संपा० घासी खम्भात् , वि०सं० 1992, 130. लाल जी, प्रका० अ०भा०श्वे०स्था० जैन शास्त्रोद्धार समिति, 20. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० साध्वी चन्दना, प्रका० वीरायतन प्रकाशन, राजकोट, 1962 / आगरा, 1972, 23/25. 31. उत्तराध्यययन संपा० साधवी चन्दना, प्रका० वीरायतन प्रकाशन, 21. तत्त्वसंग्रह, संपा० द्वारिका प्रसाद शास्त्री, प्रका० बौद्ध भारती, आगरा, 1972, अध्याय 23 / वाराणसी, 1968, 3588 / 32. देखें-शास्त्रवार्तासमुच्चय, हरभिद्रसूरि, प्रका० लालभाई, दलपतभाई 22. अनन्तधर्मात्मकमेव तत्वम्, २२-अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, भारतीय विद्या मंदिर, अहमदाबाद, 1968, 3/206, 3/237, हेमचंद्र, प्रका० जैन ग्रन्थ प्रकाशन सभा, भावनगर, वि०सं० 6/64-67 / 1996 / 33. सामायिकपाठ, संपा० प्रेमराज बोगावत, प्रका० सम्यग्ज्ञान प्रचारक 23. नत्थि नयहिविहूणं सुत्तं अत्यो य जिणवये किंचि-आवयकनियुक्ति,५४४ मण्डल, जयपुर, 1975, 1 /