Book Title: Dharmik Rahasyawad me Dik kal bodha
Author(s): Virendra Sinha
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 3
________________ धार्मिक रहस्यवाद में दिक-काल बोध / 245 तिक रूपाकारों को रूपक और व्यंजना की शक्ति के द्वारा तात्त्विक अर्थ-संदर्भो तक ले जाता है / इस प्रकार वह काल के वर्तमान बिंदु से तथा दिक की वस्तुओं-पदार्थों से पराजागतिक अर्थ-संदर्भो को व्यक्त करता है। इस दृष्टि से इन रूपाकारों का महत्त्व धार्मिक रहस्यभावना से जितना है उतना सृजनात्मकता से, क्योंकि रचनाकार भी इन्हीं रूपाकारों के द्वारा बृहत्तर अर्थ संदों को उजागर करता है। भारतीय संतों, सूफियों तथा ईसाईयों में यह रहस्यवादी प्रवत्ति सामान्य है जो अपने-अपने तरीके से सीमा और असीम के द्वन्द्व को रेखांकित करते हुए क्रमशः इस सम्बन्ध को निर्द्वन्द्व स्थिति तक ले जाते हैं। कबीर ने पति-पत्नी के युग्म द्वारा इन दो स्तरों के द्वन्द्व तथा संगति को इस प्रकार व्यक्त किया है हरि मोर पीव मैं राम की बहरिया राम बड़ो मैं उसकी लहरिया / दूसरी ओर इस्लामी सूफी कवि रूमी ने इसी सम्बन्ध को मैं और तुम के द्वारा व्यक्त किया है और वह भी "क्षण' के द्वारा "वह क्षण कितना आनंदप्रद होगा, जब 'मैं' और 'तुम' भवन में बैठे होंगे, हमारे दो 'आकार' और 'रूप' हैं। पर आत्मा एक है हमारी और तुम्हारी / " (मिस्टिक्स ऑफ इस्लाम में उद्धृत) क्ति उदाहरण यह स्पष्ट करते हैं कि रहस्यवादी अनुभव में 'रूपाकार' का महत्त्व उपर्युक्त दो व्यवस्थाओं के अन्तर्जेदन को प्रस्तुत करता है / बट्रेन्डरसेल ने इस रहस्यवादी प्रक्रिया को निरपेक्ष न मानते हुए सापेक्ष माना है और उसे एक तार्किक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया है। यह मानसिक और आध्यात्मिक यात्रा एक प्रारोहण है जिसकी चार अवस्थाएँ रसेल ने मानी हैं। प्रथम विश्वास की अवस्था है जो क्रमशः दूसरी अवस्था “अन्तदष्टि" को जन्म देती है। दूसरी अवस्था में साधक या व्यक्ति वस्तुओं और घटनामों की प्रकृति और उनके सम्बन्ध के प्रति सचेत होता है। तीसरी अवस्था “एकात्म भाव" की अवस्था है जहाँ मन और पदार्थ का अभेद स्थापित होता है। यह एकत्व का अनुभव चौथी अवस्था की ओर साधक को ले जाता है जहां वह दिक् और काल के जागतिक स्तर का सूक्ष्म एवं व्यापक रूपांतरण करता है।' यदि गहराई से देखा जाए तो रहस्यवादी अनुभव और वैज्ञानिक दार्शनिक अन्वेषण या प्रत्ययन में ये अवस्थाएँ किसी न किसी रूप में प्राप्त होती हैं जो अन्वेषक को 'सत्य' के परिशुद्ध रूप तक ले जाती है, पर उसके अन्तिम रूप तक नहीं। परिशुद्ध सत्य के निकट रहस्यवादी और अन्वेषक दोनों पहुँचते हैं पर शायद उसके सम्पूर्ण और अन्तिम रूप तक नहीं। यही ज्ञान का गत्यात्मक रूप है / अन्त में, मै यह बात जोर देकर कहना चाहूंगा कि अनन्त या दिव्य की व्यवस्था के मानने का यह अर्थ नहीं है कि जागतिक दिककाल की व्यवस्था को असत्य, भ्रम या अर्धसत्य माना जाए; दूसरी ओर जागतिक दिक्काल की व्यवस्था को मानने का यह अर्थ नहीं है कि अनन्त या दिव्य को वायवी कहकर नकारा जाए। दोनों की 'अति' हमें 'सत्य' से दूर ले जाती है / आवश्यकता है उनमें एक संतुलन की, दोनों व्यवस्थाओं के सार्थक निर्धारण की। यह निबन्ध इसी की प्रस्तावना मात्र है। -५स 15, जवाहर नगर, जयपुर-३०२००४ 1. मिस्टिसिज्म एण्ड लॉजिक, बट्रेड रसेल, पृ० 21 00 धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 2 3