Book Title: Dharmik Rahasyawad me Dik kal bodha Author(s): Virendra Sinha Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 1
________________ धार्मिक रहस्यवाद में दिक-काल-बोध D डॉ० वीरेन्द्रसिंह धर्म, मानव संस्कृति का वह आदितम रूप है जब आदिमानव ने प्रकृति-शक्तियों ( जल, आकाश, वायु, सूर्य प्रादि ) के प्रति भय तथा जिज्ञासा से प्रेरित होकर, उनका प्रतीकात्मक साक्षात्कार किया, फलस्वरूप जागतिक दिककाल के स्तर से वह क्रमशः ब्रह्माण्डीय या पराजागतिक स्तर की 'विराटता' की ओर अग्रसर हुआ। यह जागतिक दिक्काल से पराजागतिक दिक्काल तक की यात्रा का अन्योन्य सम्बन्ध है और विभिन्न ज्ञानानुसार ( धर्म, दर्शन, विज्ञान, समाजशास्त्र, इतिहास आदि ) किसी न किसी रूप में इस जगत और ब्रह्मांड के सम्बन्धों को समझने के माध्यम हैं। इस दृष्टि से धर्म, जागतिक दिक्काल से विराट या पराजागतिक दिक्काल का अनुभव कराता है जो व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों स्तरों पर घटित होता है । धर्म, चाहे ईश्वरवादी हो या निरीश्वरवादी-दोनों अपने-अपने तरीके से "विराट" या सत्य तक पहुंचना चाहते हैं । अत: जहाँ तक धार्मिक अनुभव अथवा रहस्यवाद का प्रश्न है, उसका प्रारंभ जागतिक दिक्काल के चतुर्वर्गीय स्तर से होता है जो क्रमशः ब्रह्मांड की विराटता को समेटता हुआ, परमशक्ति या परमतत्त्व तक पहुंचता है। यहाँ पर एक तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करना आवश्यक है कि जब व्यक्ति या समूह जागतिक से पराजागतिक स्तर की ओर बढ़ता है, तो वह दो प्रकार की व्यवस्थाओं के द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध से गुजरता है । एक है जागतिक दिक्काल की व्यवस्था और दूसरी है "अनन्त" की व्यवस्था। इस द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध से गुजरने की प्रक्रिया में वह उपासना, साधना और भक्ति के विविध रूपों को स्वीकारता है। उपासना और साधना के माध्यम है जिनके द्वारा साधक अपने "स्व" को दिक् और काल की सापेक्षता में अतिक्रमित करता है । यह अतिक्रमण यह स्पष्ट करता है कि दिक्काल की दो व्यवस्थाएं एक साथ प्राप्त होती है अर्थात् जागतिक दिक्काल की व्यवस्था और पराजागतिक दिककाल की व्यवस्था। यह "अनन्त' की व्यवस्था प्रत्येक धर्म में किसी न किसी रूप में प्राप्त होती है। यदि गहराई से देखा जाए तो प्रत्येक ज्ञानानुशासन न्यूनाधिक रूप से "महाकाल" के इस अनन्तबोध से टकराते हैं। यहाँ पर, मेरे विचार से जागतिक स्तर को नकारा नहीं जा सकता है क्योंकि "अनन्त व्यवस्था" को सापेक्षता में इसका एक सार्थक निर्धारण आवश्यक है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि दिककाल की दोनों व्यवस्थाएँ एक दूसरे की पूरक हैं अथवा उनमें कार्य-कारण सम्बन्ध है। यहाँ पर डब्ल. टी. स्टेस का मत है कि ईश्वर या ब्रह्म दिक्काल से निरपेक्ष है।' जो मेरे विचार से पूर्णतया ठीक नहीं है। इसका कारण यह है दिककाल की दृष्टि जागतिक और अनन्त का सापेक्ष सम्बन्ध है क्योंकि चाहे हम जागतिक दिककाल से "अनन्तता" की पोर जाएँ या 'अनन्तता' से दिककाल की अोर पाएँ-दोनों स्थि १. टाइम एण्ड इटनिटो, डब्लू. टी स्टेस, पृ. ७२ धम्मो दीवो संसार समुद्र में वर्म ही दीप है Jain Education International For Private & Personal Use OnlyPage Navigation
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