Book Title: Dharmik Pariprekshya me Aaj ka Shravak Author(s): Subhash Kothari Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf View full book textPage 3
________________ धार्मिक परिप्रेक्ष्य में-आज का श्रावक ६९ ३२. सौम्य हो। ३३. परोपकार करने में उद्यत हो । ३४. काम क्रोधादि के त्याग में उद्यत हो। ३५. इन्द्रियों को वश में रखे। यद्यपि इन गुणों की संख्या भी विभिन्न आचार्यों ने अलग-अलग बताई है. फिर भी इन पंतोस गुणों में उन सबका समावेश हो जाता है। इन गुणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन आचार के नियम पूर्णतः व्यावहारिक व सामाजिक है। इन गुणों पर व्यक्ति के स्वयं, परिवार, ब समाज का विकास निर्भर है। इन व्यावहारिक नियमों के बाद सैद्धान्तिक नियमों को लें, तो अणुव्रत, गुणव्रत व शिक्षाबतों का पालन महत्त्वपूर्ण होता है। अणुव्रत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह का स्थूल रूप से पालन करना अणुव्रत कहलाता है। हिंसा के दो भेद किये जा सकते हैं- सूक्ष्म व स्थूल । पृथ्वी, पानी, वायु, अग्नि व वनस्पति को हिंसा सूक्ष्म व स प्राणियों की हिंसा स्थूल हिंसा कही जाती है। श्रावक गृहस्थावस्था में रहकर सूक्ष्म हिंसा से नहीं बच पाता है और सामाजिक कार्थों में स्थूल हिंसा होती है । अतः वह सिर्फ "मैं इसे मारूं" इस प्रकार की संकल्पी हिंसा का त्याग करता है। आज के व्यावहारिक जगत में भी सभ्य व्यक्ति अनावश्यक त्रस जीवों की हिंसा का विरोध करेगा ही। द्वितीय असत्य भाषण नहीं करने की बात है। इसमें लोक चिरुद्ध, राज्य-विरुद्ध, धर्म विरुद्ध झुठ नहीं बोलने का विधान है । दूसरों की निन्दा करना, गुप्त बातों को प्रकट करना, झूठा उपदेश देना, झूठे लेख लिखना-इनमें दोष माने गये हैं। स्थूल रूप से चोरो नही करना, किसो को चोरी के लिए नहीं भेजना, चोरी को वस्तु नहीं लेना, राज्यनियमों .. का उल्लघंन नही करना अस्तैय अणुव्रत है । सामान्यतया यह सामाजिक व आर्थिक अपराध भो है । अपनी पत्नी की मर्यादा रखकर अन्य सभो त्रियों को माता-बहिन के सदृश्य समझना ब्रह्मचर्य सिद्धान्त है। किसी वैश्या आदि के साथ रहना, अश्लील काम क्रीडाएँ करना, दूसरों का विवाह कराना, काममोग की तीव्र अभिलाषा करना दोष है । इनसे बचने का निर्देश है । आज भी बलात्कार, वैश्यावृत्ति, हेय दृष्टि से देखे जाते है। ___ अपनी आवश्यकता से अधिक वस्तु का उपयोग नहीं करना, उसे दूसरों को बांट देना अपरिग्रह है। साथ ही अपने उपयोग में आने वाली वस्तुओं की मर्यादा निश्चित ले जिससे उससे अधिक परिग्रह से मुक्त रह सकें। तीन गुणवत इनमें दिशावत, उपभोग परिमाण व्रत व अनर्थ दण्ड आते है । ये अणुव्रतों के विकास में सहायक होते हैं । दिशावत दिशाओं की सीमा निर्धारण करता है, उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम आदि में गमनागमण एवं व्यापार करने पर रोक लगाता है । अनर्थ दण्ड हरी वनस्पति काटना आदि अनर्थकारी हिंसा के त्याग का उपदेश देता है। चार शिक्षावत इनमें सामायिक देशावकाशिक, औषध व अतिथि संविभाग ब्रत सम्मिलित है। ये मानव की अन्तः चेतना से जाग्रत संस्कार है । इनसे आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर हुआ जाता है । इनसे व्यक्ति सहिष्णु व आत्मजयो बनता अबत सम्मिलित । से मानव श्री मन्तः चेतना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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