Book Title: Dharma ka Sarvabhaum Rup
Author(s): Vinay Rushi Pravartak
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 3
________________ ३५६ धर्म और दर्शन उसी में हम पाते हैं। अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह में धर्म की संपूर्ण विशेषताओं का पूर्णतया अन्तर्भाव हो जाता है । अहिंसा विश्व के समग्र चैतन्य को एक धरातल पर खड़ा कर देती है। वह सब प्राणियों में समानता पाती है। अहिंसा स्व और पर, अपने और पराये, घृणा एवं वैर की नींव पर खड़ी भेदरेखा को तोड़ देती है। अहिंसा स्वर्ग का साम्राज्य है। अहिंसा उज्ज्वल चरित्र के भविष्य का निर्माण है। अहिंसा जीवन की आधारशिला है। अहिंसा आत्मदीप-साधन की ज्योति है और आत्मनिर्भरता का वरदान है। अहिंसा भगवती की आराधना के लिए सूक्ष्म अहिंसा का परित्याग अत्यावश्यक माना गया है । ईसा मसीह ने भी अपने शिष्यों की यह कहकर Thou shalt not Kill "किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो" सावधान किया है। यह ईसाई मत की जो दस आज्ञाएँ (Commands) हैं, उनमें से पांचवीं है। सेन्ट ल्युकस लिखते हैं-Be kind to all creatures अर्थात् सभी प्राणियों पर दया करो। Be ye therefore merciful as your Father is merciful. अर्थात् जब तुम्हारे पिता दयावान हैं तब तुम भी दयावान बनो । सेन्ट ल्युकस इसी प्रकार न्यू टेस्टामेन्ट में लिखते हैं-Don't mingle thy pleasure of thy joy with the sorrow of the meanest thing that pells अर्थात् "अपने जरा से सुख के लिए दूसरों को मत सताओ।" श्रमण भगवान महावीर का विश्वमैत्री-सूचक पावन सूत्र था-"मित्ती मे सव्वभूएसु वेर मज्झं न केणई" सचमुच भारत के आध्यात्मिक जगत का वह महान् एवं चिरन्तन सत्य उनके जीवन से साक्षात् साकार हो रहा है। तुमं सि नाम तं चेव जं हंतव्वं ति मनसि, तुम सि नाम तं चेव जं अज्जावेयम्वन्ति मन्नसि, तुम सि नाम तं चेव जं परियावेयव्वंति मन्नसि ॥ -आचाराङ्ग सूत्र १-५-५ जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है, जिसे तुशासित करना चाहता है. वह तू ही है, जिसे तू परिपात देना चाहता है, वह तू ही है। स्वरूपदृष्टि से सब चैतन्य एक समान हैं। यह अद्वैत भावना ही अहिंसा का मूलाधार है। "अहिंसा तस-थावर-सव्वभूय खेमकरी।" –प्रश्नव्याकरण सूत्र अहिंसा त्रस-स्थावर (चर-अचर) सब प्राणियों का कुशलक्षेम करने वाली है। इस प्रकार अहिंसा के अन्तर्गत सभी नैतिक, आध्यात्मिक, मैत्री, प्रमोद, करुणा, प्रेम, स्नेह, शुचिता, पवित्रता, उदारता आदि महद् गुणों का समावेश हो जाता है। इसीलिए हमारे दीर्घद्रष्टा एवं आत्मस्रष्टा ऋषि मुनियों ने “अहिंसा परमो धर्मः" कहकर अहिंसामय धर्म को ही विश्वकल्याण का आधारभूत तत्व माना है। . अहिंसा के बाद अपरिग्रह पर उतना ही बल दिया गया है। परिग्रह सब दुःखों की जड़ है। परिग्रह, मान्यताप्राप्त हिंसा है । "मुच्छा परिग्गहो" कहकर के भगवान महावीर ने मन की ममत्व दशा को ही परिग्रह बताया। परिग्रह का परिष्कार दान है। इसीलिए मुक्ति मंजिल के चार सोपानों में प्रथम सोपान दान कहा गया है । वैचारिक परिग्रह ही एकान्तवाद को जन्म देता है। अतः उससे भी विरत होने का प्रभु का आदेश है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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