Book Title: Dharma ka Sarvabhaum Rup Author(s): Vinay Rushi Pravartak Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf View full book textPage 2
________________ धर्म का सार्वभौम रूप 'धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठाः' धर्म समस्त जगत का आधार है। -नारायण उपनिषद् 'चोदनालक्षोऽअर्थो धर्मः।' --आचार्य जैमिनी 'स एव श्रेयस्करः स एव धर्म शब्देनोच्यते'। —विश्वकोष मीमांसा महाश्रमण तीर्थंकर भगवान महावीर ने धर्म की विशुद्ध अबाधित परिभाषा देते हुए कहा 'वत्थु सहावो धम्मो' वस्तु का जो स्वभाव है, वही उसका धर्म है। मिश्री का स्वभाव मीठा है, और इमली का खट्टा । संसार में जितनी भी वस्तुएँ हैं, उनका धर्म भी भिन्न-भिन्न है । यह भिन्नभिन्न धर्म एक नहीं है। पाश्चात्य विचारकों में से आधुनिक विद्वान प्रो० व्हाइटहेड के अनुसार-"धर्म वह क्रिया है जो व्यक्ति अपनी एकान्तता के साथ करता है।" मैथ्यु आर्नल्डः "मूलतः धर्म संवेगों से युक्त नैतिकता है।" किसी एक अन्य विचारक से जब धर्म की परिभाषा के विषय में पूछा तो उसने बताया कि 'Religion is the way of Life' धर्म, यह जीवन का मार्ग है। हकीकत में धर्म मानवहृदय की उदात्त एवं निर्मल वृत्तियों की अभिव्यक्ति का ही नाम है। शरीर साम्प्रदायिक क्रियाकाण्ड का आधार हो सकता है, धर्म का नहीं। धर्म अन्तस्तल की चीज है, उसे केवल बाहर के विधि-निषेधों से ही जांचना, परखना अपने को ही भ्रमजाल में उलझाये रहना है । धर्म का निवास मनुष्य के मन में है। यह स्वयं मनुष्य के स्वभाव का एक अंग है। धर्म एक मानसिक अवस्था है, भक्ति का रूप है। धर्म की आत्मा अनुभव है। प्लेटो के अनुसार 'धर्म ही ज्ञान है।' चरित्रता का उत्कृष्टतम रूप धर्म है। नैतिकता के आधार पर धर्म अजित मानसिक प्रवृत्ति है। धर्म का अर्थ पूजा-पाठ नहीं है, बल्कि आत्मज्ञान और आत्मनिर्भरता ही धर्म है। धर्म प्रेरणाशक्ति है। धर्म मन्तव्य (मत-विचार) नहीं, बल्कि जीने का ढंग है । धर्म प्रकाश नहीं, किन्तु आत्मा का लक्ष्य है। धर्म है मनुष्य के मन में रही हुई प्रेम की बूंद को सागर का रूप देने की साधना । धर्मवेत्ताओं ने डंके की चोट कहा है 'तलवार से फैलने वाला धर्म, धर्म नहीं हो सकता और वह धर्म भी धर्म नहीं हो सकता कि जो सोना-चांदी के प्रलोभनों की चकाचौंध में पनपता हो। सच्चा धर्म वह है जो भय और प्रलोभनों के सहारे से ऊपर उठकर तपस्या और त्याग के, मैत्री और करुणा के निर्मल भावना रूपी शिखरों का सर्वाङ्गीण स्पर्श कर सके। धर्म का एकमात्र नारा है-'हम आग बुझाने आये हैं, हम आग लगाना क्या जानें।' जिस धर्म का यह नारा नहीं है, वह धर्म, धर्म नहीं है। धर्म सब के साथ समानता, भ्रातृभाव तथा प्रेम का व्यवहार करना सिखाता है। दीन-दुःखियों की सेवा, सत्कार में लगाना सिखाता है । घृणा और द्वेष की आग को बुझाना सिखाता है। इसी प्रकार के धर्म से प्राणिमात्र के कल्याण की आशा की जा सकती है। धर्म हमसे अनेक बोलियों में बात करता है। इसके विविध रंग-रूप हैं। फिर भी इसकी सच्ची आवाज एक ही है और वह है मानवीय दया और करुणा की, अनुकंपा की, धैर्ययुक्त प्रेम की, सत्य और असलियत की। धर्म के सार्वभौम रूप की विस्तृत चर्चा-विचारणा के अनन्तर जब महाश्रमण भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित धर्म की ओर हमारी निगाह जाती है, तब इन सभी बातों का समावेश IAADI R A AAAAAAAAABJADADAJARDANAJunMAARAANuware- namAIAANA WALAAAAAAA आचार्गप्रवरात्राचार्य भिक प्राआनन्द अनाआनन्द Mirror Pravvv Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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