Book Title: Dharm ka Marm Jain Drushti Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 7
________________ धर्म का मर्म : जैन दृष्टि ३५१ सब बातें अधर्म हैं, पाप हैं। इसके विपरीत जिन बातों से व्यक्ति में ही जीवन में धर्म का प्रकटन होगा। क्योकि मनुष्य के लिये यह सम्भव और उसके सामाजिक परिवेश में निराकुलता आये, शान्ति आये, तनाव नहीं है कि उसके जीवन में उतार और चढ़ाव नहीं आये। सुख-दु:ख, घटे, विषमता समाप्त हो, वे सब धर्म हैं। धार्मिकता के आदर्श के लाभ-अलाभ, मान-अपमान आदि ये जीवन-चक्र के दुर्निवार पहलू रूप में जिस वीतराग, वीततृष्णा और अनासक्त जीवन की कल्पना हैं, कोई भी इनसे बच नहीं सकता। जीवन-यात्रा का रास्ता सीधा और की गई है, उसका अर्थ यही है कि जीवन में निराकुलता, शान्ति और सपाट नहीं है, उसमें उतार-चढ़ाव आते ही रहते हैं। बाह्य परिस्थितियों समाधि आए। धर्म का सार यही है, फिर चाहे हम इसे कुछ भी नाम पर आपका अधिकार नहीं है, आपके अधिकार में केवल एक ही बात क्यों न दें। श्री सत्यनारायणजी गोयनका कहते हैं - है, वह यह कि आप इन अनुकूल और प्रतिकूल स्थितियों में अपने धर्म न हिन्दू बौद्ध है, धर्म न मुस्लिम जैन । मन को, अपनी चेतना को निराकुल और अनुद्विग्न बनाये रखें; मानसिक धर्म चित्त की शुद्धता, धर्म शान्ति सुख चैन ।। समता और शांति को भंग नहीं होने दें। यही धर्म है। श्री गोयनका कुदरत का कानून है, सब पर लागू होय । जी के शब्दों मेंविकृत मन व्याकुल रहे, निर्मल सुखिया होय ।। सुख दुःख आते ही रहें, ज्यों आवे दिन रैन । यही धर्म की परख है, यही धर्म का माप । तू क्यों खोवे बावला, अपने मन की चैन ।। जन-मन का मंगल करे, दूर करे सन्ताप ।। अत: मन की चैन नहीं खोना ही धर्म और धार्मिकता है। जो जिस प्रकार मलेरिया, मलेरिया है, वह न जैन है, न बौद्ध है व्यक्ति जीवन की अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपनी न हिन्दू और न मुसलमान, उसी प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभ आदि चित्त की शान्ति नहीं खोता है, वही धार्मिक है उसी के जीवन में आध्यात्मिक विकृतियाँ हैं, वे भी हिन्दू, बौद्ध या जैन नहीं हैं, हम धर्म का अवतरण हुआ है। कौन धार्मिक है और कौन अधार्मिक है, ऐसा नहीं कहते हैं कि यह हिन्दू क्रोध है यह जैन या बौद्ध क्रोध इसकी पहचान यही है कि किसका चित्त शान्त है और किसका अशान्त। है। यदि क्रोध हिन्दू, बौद्ध या जैन नहीं है तो फिर उसका उपशमन जिसका चित्त या मन अशान्त है वह अधर्म में जी रहा है, विभाव भी हिन्दू, बौद्ध या जैन नहीं कहा जा सकता है। विकार, विकार है में जी रहा है और जिसका मन या चित्त शांत है वह धर्म में जी रहा और स्वास्थ्य, स्वास्थ्य है, वे हिन्दू, बौद्ध या जैन नहीं हैं। जिन्हें है, स्वभाव में जी रहा है। एक सच्चे धार्मिक पुरुष की जीवनदृष्टि हम हिन्दू, जैन, बौद्ध या अन्य किसी धर्म के नाम से पुकारते हैं, अनुकूल एवं प्रतिकूल संयोगों में कैसी होगी इसका एक सुन्दर चित्रण वह विकारों के उचार की शैली विशेष है जैसे एलोपैथी, आयुर्वेदिक, उर्दू शायर ने किया है, वह कहता है - यूनानी, होम्योपैथी आदि शारीरिक रोगों के उपचार की पद्धति है। लायी हयात आ गये, कजा ले चली चले चले। न अपनी खुशी आये, न अपनी खुशी गये।। समता धर्म/ममता अधर्म जिन्दगी और मौत दोनों ही स्थितियों में जो निराकुलता और धर्म क्या है? इस प्रश्न का सबसे संक्षिप्त और सरल उत्तर यही शान्त बना रहता है वही धार्मिक है, धर्म का प्रकटन उसी के जीवन है कि वह सब धर्म है, जिसमें मन की आकुलता समाप्त हो, चाह में हुआ है। धार्मिकता की कसौटी पर नहीं है कि तुमने कितना पूजा-पाठ और चिन्ता मिटे तथा मन निर्मलता, शांति, समभाव और आनन्द किया है, कितने उपवास और रोजे रखे हैं, अपितु यही है कि तुम्हारा से भर जाये। इसीलिये महावीर ने धर्म को समता या समभाव के मन कितना अनुद्विग्न और निराकुल बना है। जीवन में जब तक चाह रूप में परिभाषित किया था। समता ही धर्म है और ममता अधर्म और चिन्ता बनी हुई है धार्मिकता का आना सम्भव नहीं है। फिर वह है। वीतराग, अनासक्त और वीततृष्णा होने में जो धार्मिक आदर्श की चाह और चिन्ता परिवार की हो या शिष्य-शिष्याओं की, घर और परिपूर्णता देखी गई, उसका कारण भी यही है कि यह आत्मा की दुकान की हो, मठ और मन्दिर की, धन-सम्पत्ति की हो या पूजा-प्रतिष्ठा निराकुलता या शान्ति की अवस्था है। आत्मा की इसी निराकुल दशा की, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता है। को हिन्दू और बौद्ध परम्परा में समाधि तथा जैन परम्परा में सामायिक जब तक जीवन में तृष्णा और स्पृहा है, दूसरों के प्रति जलन या समता कहा गया है। हमारे जीवन में धर्म है, या नहीं है इसको की भट्टी सुलग रही है, धार्मिकता सम्भव नहीं है। धार्मिक होने का जानने की एकमात्र कसौटी यह है कि सुख-दुःख, मान-अपमान, मतलब है मन की उद्विग्नता या आकुलता समाप्त हो, मन से घृणा, लाभ-हानि, जय-पराजय आदि की अनुकूल एवं प्रतिकूल अवस्थाओं विद्वेष और तृष्णा की आग शान्त हो। इसीलिये गीता कहती हैमें हमारा मन कितना अनुद्विग्न और शान्त बना रहता है। यदि अनुकूल दुःखेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृहः । परिस्थितियों में मन में सन्तोष न हो चाह और चिन्ता बनी रहे तथा वीतराग भयक्रोधः स्थितधीमुनिरुच्यते ।। गीता २/५६। प्रतिकूल स्थितियों में मन दुःख और पीड़ा से भर जावे तो हमें समझ जिसका मन दुःखों की प्राप्ति में भी दुःखी नहीं होता और सुख लेना चाहिये कि जीवन में अभी धर्म नहीं आया है। धर्म का सीधा की प्राप्ति में जिसकी लालसा तीव्र नहीं होती है, जिसके मन में ममता, सम्बन्ध हमारी जीवनदृष्टि और जीवनशैली से है। बाह्य परिस्थितियों भय और क्रोध समाप्त हो चुके हैं वही व्यक्ति धार्मिक है, स्थिर बुद्धि से हमारी चेतना जितनी अधिक अप्रभावित और अलिप्त रहेगी उतना है, मुनि है। वस्तुतः चेतना जितनी निराकुल बनेगी उतना ही जीवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19