Book Title: Dharm aur Sanskruti
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 2
________________ १० मन्दिर निर्माण, छीना-झपटी आदि सब धर्म अथवा धर्मोद्धार के नामपर होता है । ये संस्कृत जातियोंके लक्षण तो कदापि नहीं हैं । ] सामान्य समझ के लोग धर्म और संस्कृति में अभेद कर डालते हैं । कोई संस्कृतिकी चीज सामने आई, जिसपर कि लोग मुग्ध हों, तो बहुधा उसे धर्म कहकर बखाना जाता है और बहुत से भोले-भाले लोग ऐसी सांस्कृतिक वस्तुको ही धर्म मानकर उनसे सन्तुष्ट हो जाते हैं । उनका ध्यान सामाजिक न्यायोचित व्यवहार की ओर जाता ही नहीं । फिर भी वे संस्कृति के नामपर नाचते रहते हैं । इस तरह यदि हम औरोंका विचार छोड़कर केवल अपने भारतीय समाजका ही विचार करें, तो कहा जा सकता है कि हमने संस्कृतिके नामपर अपना वास्तविक सामर्थ्यं बहुत कुछ गँवाया है । जो समाज हजारों वर्षो से अपनेको संस्कृत मानता श्राया है और अपनेको अन्य समाजोंसे संस्कृततर समझता है वह समाज यदि नैतिक बल में, चरित्र - बलमें, शारीरिक बल में और सहयोग की भावना में पिछड़ा हुआ हो, खुद श्रापसमें छिन्न-भिन्न हो, तो वह समाज वास्तव में संस्कृत है या असंस्कृत, यह विचार करना आवश्यक है । संस्कृति भी उच्चतर हो और निर्बलताकी भी पराकाष्ठा हो, यह परस्पर विरोधी बात है । इस दृष्टिसे भारतीय समाज संस्कृत है, एकान्ततः ऐसा मानना बड़ी भारी गलती होगी । जैसे सच्चे मानी में हम आज संस्कृत नहीं हैं, वैसे ही सच्चे मानी में हम धार्मिक भी नहीं हैं । कोई भी पूछ सकता है कि तब क्या इतिहासकार और विद्वान् जब भारतको संस्कृति तथा धर्मका धाम कहते हैं, तब क्या वे झूठ कहते हैं ? इसका उत्तर 'हाँ' और 'ना' दोनों में है । अगर हम इतिहासकारों और विद्वानोंके कथनका यह अर्थ समझें कि सारा भारतीय समाज या सभी भारतीय जातियाँ और परम्पराएँ संस्कृत एवं धार्मिक ही हैं तो उनका कथन अवश्य सत्य से पराङ्मुख होगा । यदि हम उनके कथनका अर्थ इतना ही समझें कि हमारे देश में खास-खास ऋषि या साधक सांस्कृतिक एवं धार्मिक हुए हैं तथा वर्तमान में भी हैं, तो उनका कथन असत्य नहीं । उपर्युक्त चर्चासे हम इस नतीजेपर पहुँचते हैं कि हमारे निकटके या दूरवर्त्ती पूर्वजोंके संस्कृत एवं धार्मिक जीवनसे हम अपनेको संस्कृत एवं धार्मिक मान लेते हैं और वस्तुतः वैसे हैं नहीं, सो सचमुच ही अपने को और दूसरोंको धोखा देना है । मैं अपने अल्प-स्वल्प इतिहास के अध्ययन और वर्त्तमान स्थिति के निरीक्षण द्वारा इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि अपनेको आर्य कहनेवाला भारतीय समाज वास्तव में संस्कृति एवं धर्मसे कोसों दूर है । T Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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