Book Title: Dharm aur Sanskruti Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 1
________________ धर्म और संस्कृति धर्मका सच्चा अर्थ है आध्यात्मिक उत्कर्ष, जिसके द्वारा व्यक्ति बहिर्मुखताको छोड़कर-वासनाओंके पाशसे हटकर-शुद्ध चिद्रूप या आत्म-स्वरूपकी ओर अग्रसर होता है | यही है यथार्थ धर्म । अगर ऐसा धर्म सचमुच जीवनमें प्रकट हो रहा हो तो उसके वाह्य साधन भी-चाहे वे एक या दूसरे रूपमें अनेक प्रकारके क्यों न हों-धर्म कहे जा सकते हैं। पर यदि वासनाओंके पाशसे मुक्ति न हो या मुक्तिका प्रयत्न भी न हो, तो बाह्य साधन कैसे भी क्यों न हों, वे धर्म-कोटिमें कभी पा नहीं सकते। बल्कि वे सभी साधन अधर्म ही बन जाते हैं । सारांश यह कि धर्मका मुख्य मतलब सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह-जैसे श्राध्यात्मिक सद्गुणोंसे है । सच्चे अर्थमें धर्म कोई बाह्य वस्तु नहीं है। तो भी वह बाह्य जीवन और व्यवहारके द्वारा ही प्रकट होता है । धर्मको यदि श्रात्मा कहें, तो बाह्य जीवन और सामाजिक सब व्यवहारोंको देह कहना चाहिए । धर्म और संस्कृतिमें वास्तविक रूपमें कोई अन्तर होना नहीं चाहिए । जो व्यक्ति या जो समाज संस्कृत माना जाता हो, वह यदि धर्म-पराङ्मुख है, तो फिर जंगलीपनसे संस्कृतिमें विशेषता क्या ? इस तरह वास्तव में मानव-संस्कृतिका अर्थ तो धार्मिक या न्याय-सम्पन्न जीवन-व्यवहार ही है। परन्तु सामान्य जगत्में संस्कृतिका यह अर्थ नहीं लिया जाता । लोग संस्कृतिसे मानवकृत विविध कलाएँ, विविध आविष्कार और विविध विद्याएँ ग्रहण करते हैं। पर ये कलाएँ, ये आविष्कार, ये विद्याएँ हमेशा मानव-कल्याणकी दृष्टि या वृत्तिसे ही प्रकट होती हैं, ऐसा कोई नियम नहीं है। हम इतिहाससे जानते हैं कि अनेक कलाओं, अनेक आविष्कारों और अनेक विद्याअोंके पीछे हमेशा मानवकल्याणका कोई शुद्ध उद्देश्य नहीं होता है । फिर भी ये चीजें समाजमें श्राती है और समाज भी इनका स्वागत पूरे हृदयसे करता है । इस तरह हम देखते हैं और व्यवहारमें पाते हैं कि जो वस्तु मानवीय बुद्धि और एकाग्र प्रयत्नके द्वारा निर्मित होती है और मानव-समाजको पुराने स्तरसे नए स्तरपर लाती है, वह संस्कृतिकी कोटिमें आती है। इसके साथ शुद्ध धर्मका कोई अनिवार्य संबन्ध हो, ऐसा नियम नहीं है । यही कारण है कि संस्कृत कही और मानी जानेवाली जातियाँ भी अनेकधा धर्म-पराङ्मुख पाई जाती हैं। उदाहरणके लिए मूर्ति निर्माण, मन्दिरोंको तोड़कर मस्जिद बनाना और मस्जिदोंको तोड़कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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