Book Title: Dharm aur Buddhi Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf View full book textPage 2
________________ धर्म और समाज स्वाभाविक है कि क्या धर्म और बुद्धिमें विरोध है ? इसके उत्तर में संक्षेपमें इतना तो स्पष्ट कहा जा सकता है कि उनके बीच कोई विरोध नहीं है और न हो सकता है। यदि सचमुच ही किसी धर्म में इनका विरोध माना जाय तो हम यही कहेंगे कि उस बुद्धि-विरोधी धर्मसे हमें कोई मतलब नहीं । ऐसे धर्मको अंगीकार करनेकी अपेक्षा उसको अंगीकार न करनेमें ही जीवन सुखी और विकसित रह सकता है । 1 धर्म के दो रूप है, एक तो जीवन-शुद्धि और दूसरा बाह्य व्यवहार | क्षमा, नम्रता, सत्य, संतोष आदि जीवनगत गुण पहिले रूप में आते हैं और स्नान, तिलक, मूर्तिपूजन, यात्रा, गुरुसत्कार, देहदमनादि बाह्य व्यवहार दूसरे रूपमें । साविक धर्मका इच्छुक मनुष्य जब अहिंसाका महत्त्व गाता हुआ भी पूर्वसंस्कारवश कभी कभी उसी धर्मकी रक्षाके लिए हिंसा, पारम्परिक पक्षपात तथा विरोधीपर प्रहार करना भी आवश्यक बतलाता है. सत्यका हिमायती भी ऐन मौकेपर जब सत्य की रक्षा के लिए असत्यकी शरण लेता है, सबको ' सन्तुष्ट रहनेका उपदेश देनेवाला भी जत्र धर्म-समर्थन के लिए परिग्रहकी आवश्यकता बतलाता है, तब बुद्धिमानों के दिलमें प्रश्न होता है कि अधर्मस्वरूप समझे जानेवाले हिंसा आदि दोषोंसे जीवन-शुद्धि-रूप धर्मकी रक्षा या पुष्टि कैसे हो सकती है ? फिर वही बुद्धिशाली वर्ग अपनी शेकाको उन विपरीतगामी गुरुओं या पंडितों के सामने रखता है । इसी तरह जब बुद्धिमान् वर्ग देखता है कि जीवन-शुद्धिका विचार किये बिना ही धर्मगुरु और पंडित बाह्य क्रियाकाण्डको ही धर्म कहकर उनके ऊपर ऐकान्तिक भार दे रहे हैं और उन क्रियाकाण्डों एवं नियत भाषा तथा वेशके बिना धर्मका चला जाना, नष्ट हो जाना, बतलाते हैं तब वह अपनी शंका उन धर्म-गुरुओं पंडितों आदि के सामने रखता हैं कि वे लोग जिन अस्थायी और परस्पर असंगत बाह्य व्यवहारों पर धर्म के नामसे पूरा भार देते हैं उनका सच्चे धमसे क्या और कहाँतक सम्बन्ध है ? प्रायः देखा जाता है कि जीवन-शुद्धि न होनेपर, बल्कि अशुद्ध जीवन होनेपर भी ऐसे बाह्य-व्यवहार, अज्ञान, ब्रहम, स्वार्थ एवं भोलेपन के कारण मनुष्यको धर्मात्मा समझ लिया जाता है । ऐसे ही बाह्य व्यवहारोंके कम होते हुए या दूसरे प्रकारके बाह्य व्यवहार होनेपर भी सात्त्विक धर्मका होना सम्भव हो सकता है । ऐसे प्रश्नों के सुनते ही उन धर्म गुरुओं और धर्म पंडितों के मनमें , " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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