Book Title: Dharm aur Buddhi Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf View full book textPage 5
________________ धर्म और बुद्धि हम उन धर्मधुरंधरों से पूछना चाहते हैं कि क्या वे लोग तात्त्विक और व्यावहारिक धर्मके स्वरूपको अभिन्न या एक ही समझते हैं ? और क्या व्यावहारिक स्वरूप या बंधारणको वे अपरिवर्तनीय साबित कर सकते हैं ? व्यावहारिक धर्मका बंधारण और स्वरूप अगर बदलता रहता है और बदलना चाहिए तो इस परिवर्तन के विषय में विशेष यदि कोई अभ्यासी और चिन्तनशील विचारक केवल अपना विचार प्रदर्शित करे, ता इसमें उनका क्या बिगड़ता है ? __ सत्य, अहिंसा, संतोष आदि तात्त्विक धर्मका तो कोई विचारक अनादर करता ही नहीं बल्कि वह तो उस तात्त्विक धर्मकी पुष्टि, विकास एवं उपयोगिताका स्वयं कायल होता है । वे जो कुछ आलोचना करते हैं, जो कुछ हेर-फेर या तोड़-फोड़की आवश्यकता बताते हैं वह तो धर्मके भ्यावहारिक स्वरूपके सम्बन्धमें है और उसका उद्देश्य धर्मकी विशेष उपयोगिता एवं प्रतिष्ठा बढ़ाना है। ऐसी स्थितिमें उनपर धर्म-विनाशका आरोप लगाना या उनका विरोध करना केवल यही साबित करता है कि या तो धर्मधुरन्धर धर्मके वास्तविक स्वरूप और इतिहासको नहीं समझते या समझते हुए भी ऐसा पामर प्रयत्न करने में उनकी कोई परिस्थिति कारणभूत है। आम तौर से अनुयायी गृहस्थ वर्ग ही नहीं बल्कि साधु वर्गका बहुत बड़ा भाग भी किसी वस्तुका समुचित विश्लेषण करने और उसपर समतौलपन रखने में नितान्त असमर्थ है। इस स्थितिका फायदा उठा कर संकुचितमना साधु और उनके अनुयायी गृहस्थ भी, एक स्वरसे कहने लगते हैं कि ऐसा कहकर अमुकने धर्मनाश कर दिया। बेचारे भोलेभाले लोग इस बातसे अज्ञानके और भी गहरे गढ़े में जा गिरते हैं । वास्तवमें चाहिए तो यह कि कोई विचारक नये दृष्टिबिन्दुसे किसी विषयपर विचार प्रगट करें तो उनका सच्चे दिलसे आदर करके विचार-स्वातत्र्यको प्रोत्साहन दिया जाय। इसके बदले में उनका गला घोंटनेका जो प्रयत्न चारों ओर देखा जाता है उसके मूलमें मुझे दो तत्त्व मालूम होते हैं। एक तो उग्र विचारोंको समझ कर उनकी गलती दिखानेका असामथ्र्य और दूसरा अकर्मण्यताकी भित्तिके ऊपर अनायास मिलनेवाली आरामतलबी के विनाशका भय । यदि किसी विचारकके विचारोंमें आंशिक या सर्वथा गल्ती हो तो क्या उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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