Book Title: Dharm aur Buddhi
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 5
________________ बिन्दुसे किसी विषयपर विचार प्रकट करें तो उनका सच्चे दिलसे आदर करके विचार-स्वातंत्र्यको प्रोत्साहन दिया जाए। इसके बदले में उनका गला घोंटनेका जो प्रयत्न चारों ओर देखा जाता है उसके मूलमें मुझे दो तत्त्व मालूम होते हैं / एक तो उग्र विचारोंको समझ कर उनकी गलती दिखानेका असामर्थ्य और दूसरा अकर्मण्यताकी भित्तिके ऊपर अनायास मिलनेवाली आराम-तलबीके विनाशका भय / यदि किसी विचारकके विचारोंमें अांशिक या सर्वथा गलती हो तो क्या उसे धर्मनेता समझ नहीं पाते ? अगर वे समझ सकते हैं तो क्या उस गलतीको वे चौगुने बलसे दलीलोंके साथ दर्शानेमें असमर्थ हैं ? अगर वे समर्थ हैं तो उचित उत्तर देकर उस विचारका प्रभाव लोगोंमेंसे नष्ट करनेका न्याय्य मार्ग क्यों नहीं लेते ? धर्मकी रक्षाके बहाने वे अज्ञान और अधर्मके संस्कार अपनेमें और समाजमें क्यों पुष्ट करते हैं ? मुझे तो सच बात यही जान पड़ती है कि चिरकालसे शारीरिक और दूसरा जवाबदेहीपूर्ण परिश्रम किए बिना ही मखमली और रेशमी गद्दियोंपर बैठकर दूसरोंके पसीनेपूर्ण परिश्रमका पूरा फल बड़ी भक्ति के साथ चखनेकी जो आदत पड़ गई है, वही इन धर्मधुरंधरोंसे ऐसी उपहासास्पद प्रवृत्ति कराती है। ऐसा न होता तो प्रमोद-भावना और ज्ञान पूजाकी हिमायत करनेवाले ये धर्म-धुरन्धर विद्या, विज्ञान और विचारस्वातन्त्र्यका आदर करते और विचारक युवकोंसे बड़ी उदारतासे मिलकर उनके विचारगत दोषोंको दिखाते और उनकी योग्यताकी कद्र करके ऐसे युवकोंको उत्पन्न करनेवाले अपने समाजका गौरव करते / खैर, जो कुछ हो पर अब दोनों पक्षोंमें प्रतिक्रिया शुरू हो गई है / जहाँ एक पक्ष ज्ञात या अज्ञात रूपसे यह स्थापित करता है कि धर्म और विचारमें विरोध है, तो दूसरे पक्षको भी यह अवसर मिल रहा है कि वह प्रमाणित करे कि विचार-स्वातन्त्र्य आवश्यक है / यह पूर्ण रूपसे समझ रखना चाहिए कि विचार-स्वातन्त्र्यके बिना मनुष्यका अस्तित्व ही अर्थशन्य है / वास्तवमें विचार तथा धर्मका विरोध नहीं, पर उनका पारस्परिक अनिवार्य संबन्ध है। अगस्त 1636 ] [ोसवाल नवयुवक / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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