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धर्म और बुद्धि
आज तक किसी भी विचारकने यह नहीं कहा कि धर्मका उत्पाद और विकास बुद्धिके सिवाय और भी किसी तत्त्वसे हो सकता है । प्रत्येक धर्म-संप्रदायका इतिहास यही कहता है कि अमुक बुद्धिमान् पुरुषों के द्वारा ही उस धर्मकी उत्पत्ति या शुद्धि हुई है । हरेक धर्म-संप्रदायके पोषक धर्मगुरु और विद्वान् इसी एक बातका स्थापन करनेमें गौरव समझते हैं कि उनका धर्म बुद्धि, तर्क, विचार और अनुभव-सिद्ध है । इस तरह धर्म के इतिहास और उसके संचालकके व्यावहारिक जीवनको देखकर हम केवल एक ही नतीजा निकाल सकते हैं कि बुद्धितत्त्व ही धर्मका उत्पादक, उसका संशोधक, पोषक और प्रचारक रहा है और रह सकता है ।
ऐसा होते हुए भी हम धर्मों के इतिहासमें बराबर धर्म और बुद्धितत्वका विरोध और पारस्परिक संघर्ष देखते हैं। केवल यहाँ के आर्य धर्मकी शाखाओंमें ही नहीं बल्कि यूरोप आदि अन्य देशोंके ईसाई, इस्लाम श्रादि अन्य धर्मों में भी हम भूतकालीन इतिहास तथा वर्तमान घटनाओंमें देखते हैं कि जहाँ बुद्धि तत्त्वने अपना काम शुरू किया कि धर्मके विषयमें अनेक शङ्का-प्रतिशङ्का और तर्क-वितर्कपूर्ण प्रश्नावली उत्पन्न हो जाती है । और बड़े आश्चर्यकी बात है कि धर्मगुरु और धर्माचार्य जहाँ तक हो सकता है उस प्रभावलीका, उस तर्कपूर्ण विचारणाका आदर करनेके बजाय विरोध ही नहीं, सख्त विरोध करते हैं। उनके ऐसे विरोधी और संकुचित व्यवहारसे तो यह जाहिर होता है कि अगर तर्क, शङ्का या विचारको जगह दी जाएगी, तो धर्मका अस्तित्व ही नहीं रह सकेगा अथवा वह विकृत होकर ही रहेगा। इस तरह जब हम चारों तरफ धर्म और विचारणाके बीच विरोध-सा देखते हैं तब हमारे मनमें यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि क्या धर्म और बुद्धि में विरोध है ? इसके उत्तरमें संक्षेपमें इतना कहा जा सकता है उनके बीच कोई विरोध नहीं है और न हो सकता है । यदि सचमुच ही किसी धर्ममें इनका विरोध माना जाए तो हम यही कहेंगे कि उस बुद्धि-विरोधी धर्मसे हमें कोई मतलब नहीं। ऐसे धर्मको अंगीकार करनेकी अपेक्षा उसको अंगीकार न करने में ही जीवन सुखी और विकसित रह सकता है।
धर्मके दो रूप हैं, एक तो जीवन-शुद्धि और दूसरा बाय व्यवहार । क्षमा, नम्रता, सत्य, संतोष आदि जीवनगत गुण पहिले रूपमें श्राते हैं और स्नान,
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तिलक, मूर्तिपूजन, यात्रा, गुरुसत्कार, देहदमनादि बाह्य व्यवहार दूसरे रूपमें । सात्विक धर्मका इच्छुक मनुष्य जब अहिंसाका महत्त्व गाता हुश्रा भी पूर्वसंस्कारवश कभी-कभी उसी धर्मकी रक्षाके लिए हिंसा, पारम्परिक पक्षपात तथा विरोधीपर प्रहार करना भी आवश्यक बतलाता है, सत्यका हिमायती भी ऐन मौके पर जब सत्यकी रक्षाके लिए असत्यकी शरण लेता है, सबको सन्तुष्ट रहनेका उपदेश देनेवाला भी जब धर्म-समर्थन के लिए परिग्रहकी आवश्यकता बतलाता है, तब बुद्धिमानों के दिल में प्रश्न होता है कि अधर्मस्वरूप समझे जाने वाले हिंसा आदि दोषोंसे जीवन-शुद्धि-रूप धर्मकी रक्षा या पुष्टि कैसे हो सकती है ? फिर वही बुद्धिशाली वर्ग अपनी शङ्काको उन विपरीतगामी गुरुत्रों या पण्डितोंके सामने रखता है। इसी तरह जब बुद्धिमान् वर्ग देखता है कि जीवन-शुद्धिका विचार किये बिना ही धर्मगुरु और पण्डित बाह्य क्रियाकाण्डोंको ही धर्म कहकर उनके ऊपर ऐकान्तिक भार दे रहे हैं और उन क्रियाकाण्डों एवं नियत भाषा तथा वेशके बिना धर्मका चला जाना, नष्ट हो जाना, बतलाते हैं तब वह अपनी शङ्का उन धर्म-गुरुओं, पण्डितों आदिके सामने रखता है कि वे लोग जिन अस्थायी और परस्पर असंगत बाह्य व्यवहारोंपर धर्मके नामसे पूरा भार देते हैं उनका सच्चे धर्मसे क्या और कहाँतक संबन्ध है ? प्रायः देखा जाता है कि जीवन-शुद्धि न होनेपर, बल्कि अशुद्ध जीवन होनेपर भी, ऐसे बाह्य-व्यवहार, अज्ञान, वहम, स्वार्थ एवं भोलेपनके कारण मनुष्यको धर्मात्मा समझ लिया जाता है। ऐसे बाह्य-व्यवहारोंके कम होते हुए या दूसरे प्रकार के बाह्य-व्यवहार होनेपर भी सात्त्विक धर्म का होना सम्भव हो सकता है । ऐसे प्रश्नोंके सुनते ही उन धर्म-गुरुत्रों और धर्म पंडितोंके मनमें एक तरहकी भीति पैदा हो जाती है । वे समझने लगते हैं कि ये प्रश्न करनेवाले वास्तवमें तात्त्विक धर्मवाले तो हैं नहीं, केवल निरी तर्कशक्तिसे हम लोगोंके द्वारा धर्मरूपसे मनाये जानेवाले व्यवहारोंको अधर्म बतलाते हैं। ऐसी दशामें धर्मका व्यावहारिक बाधरूप भी कैसे टिक सकेगा ? इन धर्म-गुरुओंकी दृष्टि में ये लोग अवश्य ही धर्म-द्रोही या धर्म-विरोधी हैं। क्योंकि वे ऐसी स्थितिके प्रेरक हैं जिसमें न तो जीवन-शुद्धिरूपी असली धर्म ही रहेगा और न झूठा सच्चा व्यावहारिक धर्म ही। धर्मगुरुओं और धर्म-पंडितोंके उक्त भय और तजन्य उलटी विचारणामेंसे एक प्रकारका द्वन्द्व शुरू होता है। वे सदा स्थायी जीवनशुद्धिरूप तात्त्विक धर्मको पूरे विश्लेषण के साथ समझानेके बदले बाह्य-व्यवहारोंको त्रिकालाबाधित कहकर उनके ऊपर यहाँतक जोर देते हैं कि जिससे बुद्धिमान वर्ग उनकी दलीलोंसे ऊबकर, असन्तुष्ट होकर यही कह बैठता है कि गुरु
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और पंडितोंका धर्म सिर्फ ढकोसला है-घोखेकी टट्टी है । इस तरह धर्मोपदेशक और तर्कवादी बुद्धिमान् वर्गके बीच प्रतिक्षण अन्तर और विरोध बढ़ता ही जाता है । उस दशामें धर्मका आधार विवेकशून्य श्रद्धा, अज्ञान या वहम ही रह जाता है और बुद्धि एवं बजन्य गुणोंके साथ धर्मका एक प्रकारसे विरोध दिखाई देता है।
यूरोपका इतिहास बताता है कि विज्ञानका जन्म होते ही उसका सबसे पहला प्रतिरोध ईसाई धर्मकी ओरसे हुआ। अन्तमें इस प्रतिरोधसे धर्मका ही सर्वथा नाश देखकर उसके उपदेशकोंने विज्ञानके मार्गमें प्रतिपक्षी भावसे याना ही छोड़ दिया। उन्होंने अपना क्षेत्र ऐसा बना लिया कि वे वैज्ञानिकों के मार्गमें बिना बाधा डाले ही कुछ धर्मकार्य कर सके। उधर वैज्ञानिकोंका भी क्षेत्र ऐसा निष्कण्टक हो गया कि जिससे वे विज्ञानका विकास और सम्बर्धन निर्बाध रूपसे करते रहें । इसका एक सुन्दर और महत्वका परिणाम यह हुआ कि सामाजिक और अन्तमें राजकीय क्षेत्रसे भी धर्मका डेरा उठ गया और फलतः वहाँकी सामाजिक और राजकीय संस्थाएं अपने ही गुण-दोषोंपर बनने-बिगड़ने लगी ।
इस्लाम और हिन्दू धर्मकी सभी शाखाओंकी दशा इसके विपरीत है। इस्लामी दीन और धमों की अपेक्षा बुद्धि और तर्कवादसे अधिक घबड़ाता है। शायद इसीलिए वह धर्म अभी तक किसी अन्यतम महात्माको पैदा नहीं कर सका और स्वयं स्वतन्त्रताके लिए उत्पन्न होकर भी उसने अपने अनुयायियोंको अनेक सामाजिक तथा राजकीय बन्धनोंसे जकड़ दिया । हिन्दू धर्मकी शाखाओंका भी यही हाल है। वैदिक हो, बौद्ध हो या जैन, सभी धर्म स्वतन्त्रता का दावा तो बहुत करते हैं, फिर भी उनके अनुयायी जीवनके हरेक क्षेत्रमें अधिक से अधिक गुलाम हैं। यह स्थिति अब विचारकोंके दिल में खटकने लगी है। वे सोचते हैं कि जब तक बुद्धि, विचार और तर्कके साथ धर्मका विरोध समझा जाएगा तब तक उस धर्मसे किसीका भला नहीं हो सकता । यही विचार आजकलके युवकोंकी मानसिक क्रान्तिका एक प्रधान लक्षण है।
राजनीति, समाजशास्त्र, धर्मशास्त्र, तर्कशास्त्र, इतिहास और विज्ञान आदिका अभ्यास तथा चिन्तन इतना अधिक होने लगा है कि उससे युवकोके विचारमें स्वतन्त्रता तथा उनके प्रकाशनमें निर्भयता दिखाई देने लगी है । इधर धर्मगुरु और धर्मपंडितोंका उन नवीन विद्याओंसे परिचय नहीं होता, इस कारण वे अपने पुराने, वहमी, संकुचित और भीर खयालोंमें ही विचरते रहते हैं । ज्यों ही युवकवर्ग अपने स्वतन्त्र विचार प्रकट करने लगता है त्यों ही धर्मजीवी महात्मा घबढ़ाने और कहने लगते हैं कि विद्या और विचारने ही तो
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धर्मका नाश शुरू किया है। जैनसमाजकी ऐसी ही एक ताजी घटना है। अहमदाबादमें एक ग्रेज्युएट वकील ने जो मध्यश्रेणीके निर्भय विचारक हैं, धर्मके व्यावहारिक स्वरूपपर कुछ विचार प्रकट किये कि चारों श्रोरसे विचारके कत्रस्तानोंसे धर्म-गुरुओंकी श्रात्माएँ जाग पड़ीं। हलचल होने लग गई कि ऐसा विचार प्रकट क्यों किया गया और उस विचारकको जैनधर्मोचित सजा क्या और कितनी दी जाए ? सजा ऐसी हो कि हिंसात्मक भी न समझी जाय और हिंसास्मक सजासे अधिक कठोर भी सिद्ध हो, जिससे आगे कोई स्वतन्त्र और निर्भय भावसे धार्मिक विषयोंकी समीक्षा न करे । हम जब जैनसमाजकी ऐसी ही पुरानी घटनाओं तथा आधुनिक घटनाओंपर विचार करते हैं तब हमें एक ही बात मालूम होती है और वह यह कि लोगोंके खयालमें धर्म और विचारका विरोध ही अँच गया है । इस जगह हमें थोड़ी गहराई से विचार-विश्लेषण करना होगा । __हम उन धर्मधुरंधरोंसे पूछना चाहते हैं कि क्या वे लोग तात्त्विक और व्यावहारिक धर्मके स्वरूपको अभिन्न या एक ही समझते हैं ? और क्या व्यावहारिक स्वरूप या बंधारणको वे अपरिवर्तनीय साबित कर सकते हैं ? व्यावहारिक धर्मका बंधारण और स्वरूप अगर बदलता रहता है और बदलना चाहिए तो इस परिवर्तनके विषयमें यदि कोई अभ्यासी और चिन्तनशील विचारक केवल अपना विचार प्रदर्शित करे, तो इसमें उनका क्या बिगड़ता है ?
सत्य, अहिंसा, संतोष श्रादि तात्त्विक धर्मका तो कोई विचारक अनादर करता ही नहीं बल्कि वह तो उस तात्त्विक धर्मकी पुष्टि, विकास एवं उपयोगिताका स्वयं कायल होता है । वह जो कुछ आलोचना करता है, जो कुछ हेर-फेर या तोड़-फोड़की आवश्यकता बताता हे वह तो धर्म के व्यावहारिक स्वरूपके संबन्धमें है और उसका अवश्य धर्मकी विशेष उपयोगिता एवं प्रतिष्ठा बढ़ाना है । ऐसी स्थिति में उसपर धर्म-विनाशका आरोप लगाना या उनका विरोध करना केवल यही साबित करना है कि या तो धर्मधुरन्धर धर्मके वास्तविक स्वरूप
और इतिहासको नहीं समझते या समझते हुए भी ऐसा पामर प्रयत्न करने में उनकी कोई परिस्थिति कारणभूत है।
श्राम तौरसे अनुयायी गृहस्थ वर्ग ही नहीं बल्कि साधु वर्गका बहुत बड़ा भाग भी किसी वस्तुका समुचित विश्लेषण करने और उसपर समतौलपन रखनेमें नितान्त असमर्थ है। इस स्थितिका फायदा उठाकर संकुचितमना साधु
और उनके अनुयायी गृहस्थ भी, एक स्वरसे कहने लगते हैं कि ऐसा कहकर अमुकने धर्मनाश कर दिया। बेचारे भोले-भाले लोग इस बातसे अज्ञानके और भी गहरे गढ़ेमें जा गिरते हैं। वास्तवमें चाहिए तो यह कि कोई विचारक नए दृष्टि
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________________ बिन्दुसे किसी विषयपर विचार प्रकट करें तो उनका सच्चे दिलसे आदर करके विचार-स्वातंत्र्यको प्रोत्साहन दिया जाए। इसके बदले में उनका गला घोंटनेका जो प्रयत्न चारों ओर देखा जाता है उसके मूलमें मुझे दो तत्त्व मालूम होते हैं / एक तो उग्र विचारोंको समझ कर उनकी गलती दिखानेका असामर्थ्य और दूसरा अकर्मण्यताकी भित्तिके ऊपर अनायास मिलनेवाली आराम-तलबीके विनाशका भय / यदि किसी विचारकके विचारोंमें अांशिक या सर्वथा गलती हो तो क्या उसे धर्मनेता समझ नहीं पाते ? अगर वे समझ सकते हैं तो क्या उस गलतीको वे चौगुने बलसे दलीलोंके साथ दर्शानेमें असमर्थ हैं ? अगर वे समर्थ हैं तो उचित उत्तर देकर उस विचारका प्रभाव लोगोंमेंसे नष्ट करनेका न्याय्य मार्ग क्यों नहीं लेते ? धर्मकी रक्षाके बहाने वे अज्ञान और अधर्मके संस्कार अपनेमें और समाजमें क्यों पुष्ट करते हैं ? मुझे तो सच बात यही जान पड़ती है कि चिरकालसे शारीरिक और दूसरा जवाबदेहीपूर्ण परिश्रम किए बिना ही मखमली और रेशमी गद्दियोंपर बैठकर दूसरोंके पसीनेपूर्ण परिश्रमका पूरा फल बड़ी भक्ति के साथ चखनेकी जो आदत पड़ गई है, वही इन धर्मधुरंधरोंसे ऐसी उपहासास्पद प्रवृत्ति कराती है। ऐसा न होता तो प्रमोद-भावना और ज्ञान पूजाकी हिमायत करनेवाले ये धर्म-धुरन्धर विद्या, विज्ञान और विचारस्वातन्त्र्यका आदर करते और विचारक युवकोंसे बड़ी उदारतासे मिलकर उनके विचारगत दोषोंको दिखाते और उनकी योग्यताकी कद्र करके ऐसे युवकोंको उत्पन्न करनेवाले अपने समाजका गौरव करते / खैर, जो कुछ हो पर अब दोनों पक्षोंमें प्रतिक्रिया शुरू हो गई है / जहाँ एक पक्ष ज्ञात या अज्ञात रूपसे यह स्थापित करता है कि धर्म और विचारमें विरोध है, तो दूसरे पक्षको भी यह अवसर मिल रहा है कि वह प्रमाणित करे कि विचार-स्वातन्त्र्य आवश्यक है / यह पूर्ण रूपसे समझ रखना चाहिए कि विचार-स्वातन्त्र्यके बिना मनुष्यका अस्तित्व ही अर्थशन्य है / वास्तवमें विचार तथा धर्मका विरोध नहीं, पर उनका पारस्परिक अनिवार्य संबन्ध है। अगस्त 1636 ] [ोसवाल नवयुवक /