Book Title: Dharm Sadhna me Chetna kendro ka Mahattva
Author(s): Shreechand Surana
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 11
________________ अर्चनार्चन Jain Education International पंचम खण्ड | १५४ रत्नचन्द्र जी महाराज के जीवन की एक घटना है । एक ब्राह्मण ने महाराजश्री को देखकर कहा- इन जैनसाधुओं (इंदियों) का मुंह देखना भी पाप है, जो देसे, वह नरक जाता है। महाराजश्री ने मंदमुस्कान से पूछा - ' और आपका मुँह देखने वाला ? " 'सीधा स्वर्ग जाता है' गर्वित ब्राह्मण का उत्तर था।' महाराजश्री ने हंसकर कहा- आपके कथन के अनुसार ही हम तो स्वर्ग जायेंगे ही और आपकी आप जानें | घटना बहुत मामूली है, किन्तु समझने की बात यह है कि इतनी शांति, बुद्धि का इतना स्फुरण, आदि कैसे संभव है ? भौतिक एवं आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से यह सब हारमोनों के परिवर्तन का प्रभाव है। जैनसाधना पद्धति के अनुसार यह परिवर्तन भावना योग से होता है शुभ, शुद्ध आध्यात्मिक भावनाओंों के सतत प्रवाह से उनके चक्र अनजाने ही जागृत हो जाते हैं और परिणामस्वरूप वहाँ स्थित ग्रन्थियों (Glands) से प्रस्त्रवित हारमोन भी तदनुकूल परिवर्तित हो जाते हैं । मेदविज्ञान : शरीर और आत्मा की पृथक्ता सम्यक्त्व के लिए आधारभूत है -- भेदविज्ञान। जब तक मानव आत्मा और शरीर को पृथक् पृथक् अनुभव नहीं करता तब तक वह सम्यक्स्वी नहीं बन पाता। साधु और शास्त्र सभी एक स्वर से कहते हैं- एगं अप्पाणं संपेहि - एक आत्मा को देखो, सरीरं अन्नं प्रात्मा से शरीर भिन्न है। धात्मा को शरीर से पृथक् समझो। । किन्तु श्रोता मानव के सामने सब से बड़ी कठिनाई यह है कि आत्मा को शरीर से पृथक् कैसे समझे । इसका ग्राज तक का सारा चिन्तन, सारा क्रियाकलाप देहाबित ही तो है। फिर शरीर अनादिकाल से ग्रात्मा के साथ लगा हुआ है। प्रसंख्यात वर्षों से दोनों एकमेक हो रहे हैं । नीर-क्षीरवत् एकता रही है । इतनी पुरानी अनुभूति को अचानक ही कैसे भुलाया जा सकता है। कैसे समझे कि प्रात्मा में और शरीर में भेद है। बड़ी मुश्किल है। अब थोड़ा पीछे लौटिये इसी निबन्ध में बताया जा चुका है कि साधक जब अपनी भावनाधारा को तीव्र वेग से चक्रों में होकर प्रवाहित करता है तो उसे धारा, अज्ञान - मिथ्यात्व मोहधारा के प्रबल अवरोध का सामना करना पड़ता है । कषायधारा, लेश्या उस समय उसके सामने कार्मण शरीर के रूप में घटाटोप अन्धकार भाता है। वह प्रत्यन्त भयंकर है और वहीं मिथ्यात्व की ग्रन्थि पड़ी हुई है । साधक की भावना द्वारा उत्प्रेरित प्राणधारा जब इस भयंकर कार्मणशरीर से भयभीत न होकर उसमें से होकर गुजरती है और मिथ्यात्व ग्रन्थि को तोड़ कर श्रात्मसाक्षात्कार होता है, तब स्वयं ही उसके अन्दर शरीर के प्रति अरुचि जागती है, साथ ही शरीर ( कार्मण, तेजस, प्रौदारिक) अलग है, यह प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है। साथ ही राग-द्वेष आदि विभाव तथा क्रोधादि काय की पृथक्ता भी प्रगट हो जाती है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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