Book Title: Dharm Sadhna me Chetna kendro ka Mahattva
Author(s): Shreechand Surana
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
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धर्म-साधना में चेतना केन्द्रों का महत्त्व / १५३
मनोवृत्ति का निर्माण |
संवेग - इसका लक्षण है - संसाराद् भीरुता संवेगः । अर्थात् जन्म-मरण आदि के अनेक दुःखों से व्याप्त संसार से भयभीत रहना अथवा संसार से मुक्ति प्राप्त होने की भावना चित्त में सतत रहना ।
निर्वेद - इसका
शास्त्रोक्त लक्षण है- संसारशरीरमोगेषूपरतिः । यानी शरीर ( उपलक्षण से समस्त इन्द्रिय) और सांसारिक भोगों के प्रति अनासक्ति की भावना निर्मित होना ।
अनुकम्पा - समस्त प्राण, भूत, सत्व और जीवों को अभय देने की भावना रखना तथा कष्ट एवं प्रभाव से पीड़ित प्राणियों के प्रति दयाभाव रखना। दूसरे शब्दों में हृदय से क्रूर भावना निकल जाना ।
आस्तिक्य - वीतराग तीर्थंकर भगवान ने जैसा तत्त्वों का, द्रव्यों का, लोक- अलोक यदि का स्वरूप बताया, इस पर संदेहरहित दृढ़ विश्वास रखना, किचित् भी शंका को स्थान न देना ।
अब जरा चक्रों के जागृत होने के परिणामों पर विचार करिए । स्वाधिष्ठानचक्र जागृत होते ही कामना, वासना और कषायों में मन्दता आने लगती है । विशुद्धिचक्र प्रवेग संवेदों को नियंत्रित करता है। परिणामस्वरूप प्रथम और संवेग व्यवहार में परिलक्षित होने लगते हैं।
निर्वेद का कारण हृदयचक्र बनता है धौर प्राज्ञाचक चास्तिक्य का प्रमुख हेतु है। क्योंकि भगवान द्वारा कथित सूक्ष्म तत्त्वों का विशिष्ट ज्ञान हुए बिना दृढ़ प्रतीति होना बहुत कठिन है । शब्दों से भले ही वह कहता रहे कि मुझे जिन वचनों पर पूरा विश्वास है, किन्तु व्यवहार में बोलबाल में वह कुछ और ही कहता है, बोलता है।
बहुत साधारण बहुप्रचलित वाक्य है
भगवान की कृपा है ।
म्हारो तो भगवान रूठ गयो लागे छे ।
भगवान तेरा कल्याण करें ।
जैसी भगवान की इच्छा ।
As God's will.
God bless you.
साधारण मानव ही नहीं, प्रागम अभ्यासी भी ऐसे शब्द बोल जाते हैं, यह सामान्य प्रवृत्ति है। किन्तु जिस साधक का प्राज्ञाचक्र जागृत हो चुका है, प्रास्तिक्य गुण दृढ़ हो चुका है, उसके मुख से ऐसे शब्द निकल ही नहीं सकते। उसका एक-एक शब्द ग्रात्मा-प्रास्तिक्य की तुला पर तोला हुधा निकलेगा ।
इसी प्रकार उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति में प्रथम प्रादि गुण प्रत्यक्ष प्रौर सतत परिलक्षित होंगे, कटु वचन भी उसे उद्वेलित नहीं कर सकेंगे ।
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आसमस्थ तम आत्मस्थ मम
तब हो सके आश्वस्त जम
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