Book Title: Dharm Sadhna ka Muladhar Samatvayoga
Author(s): Vinod Muni
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 5
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि से भावित नहीं है, उसके आन्तरिक जीवन में विषमता है साधु धर्म का मापदण्ड केवल बाह्याचार नहीं और वह सम्यग्चारित्र रूप समभाव अर्थात् - आत्मधर्म से आगमों तथा धर्मग्रन्थों में यत्र-तत्र जहाँ जहाँ साधकों अभी कोसों दूर है। की जीवनचर्या का, बाह्य आचार का उल्लेख है, वहाँ सर्वत्र प्रमुखता समभाव की है। उत्सर्ग और अपवाद की, अन्तर में समभाव रहना ही सामायिक-सम्यग्चारित्र है कल्प्य-अकल्प्य की, अनाचीर्ण और आचीर्ण की, विधिआगमों का स्पष्ट कथन है – “सामायिक आत्मा का । निषेधरूप में आगमों में जहाँ-जहाँ चर्चा की गई है वहाँस्वभाव समभाव है। २६ उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। वहाँ समभाव को प्रमुखता दी गई है। समभाव में सत्य, ‘समभाव ही चारित्र (भावचारित्र) है।"३० जीवन का अहिंसा आदि सभी का समावेश हो जाता है। किन्तु संयम, सदाचार, तप आदि सब कुछ इसी में सन्निहित है। वर्तमान युग में जब हम वैचारिक वातायन से देखते हैं तो 'समता से भावित आत्मा ही मोक्ष को प्राप्त होती है। इसमें साधुधर्म का साधुओं के लिए आत्मधर्म की साधना का कोई सन्देह नहीं है।३१ मापदण्ड कुछ और ही बना लिया गया है। सिर्फ बाह्य आचार, क्रियाकाण्ड या बाह्य विधि-निषेधों के गज से साधुता भगवान महावीर ने भी कहा है-“लाभ और अलाभ को नापा जा रहा है। बाहर में क्रियाकाण्डों का नाटक चल " में, सुख और दुःख में, जीवन और मरण में निन्दा और रहा है, द्रव्य चारित्र या बाह्य आचार का अभिनय किया प्रशंसा में तथा सम्मान और अपमान में जो साधक सम जाता है भले ही अंदर में क्रोधादि कषायों की होली जल रहता है, वही वस्तुतः श्रमण है, सममन है, शमन है। ३२ । रही हो, पर-परिवाद, अभ्याख्यान आदि पापस्थानों का। प्रश्नव्याकरण सूत्र में भी कहा गया है – “जो सब प्राणियों दावानल सुलग रहा हो। फिर भी कह दिया जाता है कि के प्रति सम बना रहता है वही सच्चे अर्थों में श्रमण सच्चा साधु तो यही है। है।३३ यही कारण है कि साधुवर्ग तथा तीर्थंकर / अरिहंत किसी मुनि ने मर्यादानुसार आवश्यक वस्त्रों का उपयोग आदि भी दीक्षा लेते समय जीवन भर के लिए सामायिक किया और अन्य सम्प्रदाय के मुनि ने बिल्कुल निषेध ही आचरण करने की प्रतिज्ञा (संकल्प) करते है। ३४यही कर डाला। वस्त्रों का सर्वथा त्याग करने वाला वह मुनि सामायिक चारित्र है। सम्यक् चारित्र है। इसमें अहिंसादि वस्त्र रखने वाले साधुवर्ग को मुनि मानने से ही इन्कार कर सभी महाव्रत आ जाते हैं। जो सदा के लिए सामायिक देता है। क्योंकि इसमें वह परिग्रह की कल्पना करता है। की साधना में संलग्न रहता है, वह साधु है, श्रमण है। जहाँ परिग्रह है, वहाँ साधुता की भूमिका नहीं आ सकती। सूत का एक तार भी उनकी दृष्टि में संयमविघातक बन आगमों में श्रावकों (श्रमणोपासकों) के लिए भी बारह जाता है; परन्तु वस्त्र के अतिरिक्त अन्य पदार्थों को ग्रहण व्रतों में 'सामायिक' एक स्वतंत्र व्रत है। श्रावक वर्ग भी करने, अनेक प्रपंचों में संलग्न रहने तथा आभ्यन्तर परिग्रह समता की आय = लाभरूप सामायिक की अमुक निश्चित में आकण्ठ डूबे रहने पर भी उनका साधुत्व-मुनित्व रह समय तक के लिए साधना करता है, अभ्यास करता है, सकता है। इस प्रकार के एकान्त व गलत निर्णय के पीछे ताकि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वह समभाव रख अपने साम्प्रदायिक व्यामोह तथा मिथ्या विचारों के दुराग्रह सके । ३४ 0 के सिवाय और क्या कारण है? एक साधारण सी बात धर्मसाधना का मूलाधार : समत्वयोग | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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