Book Title: Dharm Sadhna ka Muladhar Samatvayoga
Author(s): Vinod Muni
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 4
________________ जैन संस्कृति का आलोक मेरा समभाव एक जैसा भाव है।२६ तथागत बुद्ध ने भी सर्वत्र अमन चैन स्थापित हो सकता है। आवश्यकता है, कहा- “जैसा मैं हूँ वैसे ही जगत् के ये सब प्राणी हैं और सिर्फ समत्व की कसौटी पर कसकर इस (आत्म) धर्म को जैसे ये हैं वैसा ही मैं हूँ।” सूत्रकृतांग में कहा है - जो पल-पल पर प्रतिक्षण, प्रत्येक प्रवृत्ति में आचरण में लाने समस्त जगत् को समन्वय की दृष्टि से देखता है वह किसी की, इस जीवन में साकार करने की। का रागभाववश प्रिय या द्वेषवश अप्रिय नहीं करता। समभाव के अभाव में साधना निष्प्राण जब मानव के अन्तःकरण में आत्मा-एकत्व, या जिस प्रकार घृत में स्निग्धता, शर्करा में मधुरता और आत्मौपम्य की भावना सुदृढ़ रूप से जम जाती है या "आत्मवत्सर्वभूतेषु" की निष्ठा जागृत हो जाती है; अन्य द्राक्षा में मृदुता इनका मौलिक गुण है, स्वभाव है, उसी प्राणियों में स्वात्मदर्शन की दृष्टि उबुद्ध हो जाती है, उस प्रकार समता आत्मा का मौलिक गुण है। आत्म धर्म की स्थिति में वह संसार में कहीं भी सामाजिक, राष्ट्रीय या साधना का मूलाधार है, प्राण है। वही साधक का साध्य है। इसके अभाव में जिस आचरण या साधना में हिंसादि आर्थिक किसी भी क्षेत्र में रहे उसके मन-वचन-काया से हिंसा, असत्य, चोरी, बेईमानी, भ्रष्टाचार, अब्रह्मचर्य आदि विषमता हो, वह आचरण या वह साधना निष्प्राण है, पापकर्म कैसे हो सकते हैं? ऐसे विराट और विश्वव्यापी निष्फल है। निष्प्राण साधना आदरणीय नहीं, हेय है, त्याज्य है। क्योंकि निरर्थक कष्ट देना या काया को विचार जहाँ पर व्याप्त हों, वहाँ पाप के लिए अवकाश पीड़ित करने पर भी उस साधना में अहिंसा, समता कहाँ है। इसके विपरीत सूत्रकृतांग सूत्र में स्पष्ट कहा है -- जो व्यक्ति अपने सम्प्रदाय तथा साम्प्रदायिक व्रत आत्मौपम्यभाव या करुणा भाव नहीं है तो वह साधना धर्म (संवर निर्जरा रूप) न होकर पाप बन जाती है, नियमों की प्रशंसा करते हैं और आत्मधर्म से अनुप्राणित दूसरे के व्रत-नियम की गर्हा-निन्दा करते हैं, वे उसी में रचे इसलिए वह अनुपयोगी है। पचे रहते हैं। ऐसे लोग जन्म-मरणी रूप संसार में ग्रस्त रहते। कोई व्यक्ति कितनी ही कठोर क्रियाएँ करता है, समता से ही समस्याएं हल लम्बे-लम्बे तप करके शरीर को सूखा डालता है, बाह्य ____ जैन जगत् के एक मूर्धन्य आचार्य ने इसी समत्वधर्म आचार में फूंक-फूंक कर चलता है, स्वयं को उत्कृष्टाचारी के परिपालनार्थ एक अनुपम विचार सूत्र प्रस्तुत किया है- और क्रियापात्री होने का दिखावा करता है परन्तु अन्तःकरण “जो अपने लिए चाहते हो, वही दूसरों के लिए भी में क्रोध, अहंकार, दम्भ, माया, परपरिवाद, अभ्याख्यान, चाहो ।"२८ यदि इस समत्व (आत्म) धर्म का पाठ जीवन ईर्ष्या, द्वेष, मायामृषा, प्रतिष्ठा-प्रशंसा-सम्मान प्राप्ति की के कण-कण में समा जाए तो विश्व की सभी समस्याओं लालसा है, प्रसिद्धि के लिए आडम्बर परायण जीवन अपनाता का शीघ्र ही समाधान हो सकता है और सारे संसार को इस है, अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने के लिए छल-प्रपंच धर्म से सुखशांति प्राप्त हो सकती है। फिर वे समस्याएँ चाहे करता है, शास्त्रज्ञान का, बौद्धिक प्रतिभा का एवं बाह्याचारपारिवारिक हों, सामाजिक हों, राजनैतिक हों अथवा धार्मिक पालन का अभिमान या प्रदर्शन है तथा वह दूसरे साधकों क्षेत्र की हों, उन सबका यथार्थ समाधान या हल हो सकता को तुच्छ दृष्टि से देखता हैं, तो समझना चाहिए, उसके है और जगत् की खोई हुई शान्ति फिर से लौट सकती है। जीवन में कषायादि उपशान्त नहीं है, उसकी आत्मा समभाव कषाय | धर्मसाधना का मूलाधार : समत्वयोग १५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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