Book Title: Dharm Ki Parakh Ka Aadhar
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf

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Page 9
________________ इन आगमों में बहुत कुछ अंश जीवनस्पर्शी है, पर भगवान् महावीर से उनका सीधा सम्बन्ध नहीं है, यह निश्चित है। मेरे बहुत से साथी इन उत्तरकालीन संकलनामों को इसलिए प्रमाण मानते हैं कि इनका नामोल्लेख अंग साहित्य में हुआ है और अंग सूत्रों का सीधा सम्बन्ध महावीर से जुड़ा हुआ है। मैं समझता हूँ कि यह तर्क सत्य स्थिति को अपदस्थ नहीं कर सकता, हकीकत को बदल नहीं सकता। भगवती जैसे विशालकाय अंग सूत्र में महाबीर के मुख से यह कहलाना कि-'जहा पण्णवणाए'--जैसा प्रज्ञापना में कहा है, यह किस इतिहास से संगत है ? प्रज्ञापना, रायपसेगी और उववाई के उद्धरण भगवान् महावीर अपने मुख से कैसे दे सकते हैं ? जबकि, उनकी संकलना बहुत बाद में हुई है। इस तर्क का समाधान यह दिया जाता है कि बाद के लेखकों व प्राचार्यों ने अधिक लेखन से बचने के लिए संक्षिप्त रुचि के कारण स्थान-स्थान पर ऐसा उल्लेख कर दिया है। जब यह मान लिया है कि अंग आगमों में भी प्राचार्यों का अंगुलीस्पर्श हुआ है, उन्होंने संक्षिप्तीकरण किया है, तो यह क्यों नहीं माना जा सकता कि कहीं-कहीं कुछ मूल से बढ़ भी गया है, विस्तार भी हो गया है ! मैं नहीं कहता कि उन्होंने कुछ ऐसा किसी गलत भावना से किया है, भले ही यह सब कुछ पवित्र प्रभुभक्ति एवं श्रुत महत्ता की भावना से ही हुआ हो, पर यह सत्य है कि जब घटाना संभव है, तो बढ़ाना भी संभव है। और, इस संभावना के साक्ष्य रूप प्रमाण भी आज उपलब्ध हो रहे हैं। भूगोल-खगोल : महावीर की वाणो नहीं: - यह सर्व सम्मत तथ्य आज मान लिया गया है कि मौखिक परम्परा एवं स्मृतिदौर्बल्य के कारण बहुत-सा श्रुत विलुप्त हो गया है, तो यह क्यों नहीं माना जा सकता कि सर्वसाधारण में प्रचलित उस यग की कुछ मान्यताएँ भी प्रागमों के साथ संकलित कर गई है ! मेरी यह निश्चित धारणा है कि ऐसा होना सम्भव है, और वह हुआ भी हैं। उस युग में भूगोल, खगोल, ग्रह, नक्षत्र, नदी, पर्वत आदि के सम्बन्ध में कुछ मान्यताएँ आम प्रचलित थीं, कुछ बातें तो भारत के बाहरी क्षेत्रों में भी अर्थात् इस्लाम और ईसाई धर्मग्रन्थों में भी इधर-उधर के सांस्कृतिक रूपान्तर के साथ ज्यों की त्यों उल्लिखित हई है, जो इस बात का प्रमाण है कि ये धारणाएँ सर्वसामान्य थीं। जो जनों ने भी ली, पुराणकारों ने भी ली और दूसरो ने भी! उस युग में उनके परीक्षण का कोई साधन नहीं था, इसलिए उन्हें सत्य ही मान लिया गया और वे शास्त्रों की पंक्तियों के साथ चिपट गई! पर बाद के उस वर्णन को भगवान महावीर के नाम पर चलाना क्या उचित है ? जिस चन्द्रलोक के धरातल के चित्र आज समूचे संसार के हाथों में पहुँच गए हैं और अपोलो८ के यात्रियों ने आँखों से देखकर बता दिया है कि वहाँ पहाड़ है, ज्वालामुखी के गर्त हैं, श्री-हीन उजड़े भूखण्ड हैं, उस चन्द्रमा के लिए कुछ पुराने धर्मग्रन्थों की दुहाई देकर प्राज भी यह मानना कि वहाँ सिंह, हाथी, बैल और घोड़ों के रूप में हजरों देवता हैं, और वे सब मिल कर चन्द्र विमान को वहन कर रहे हैं। कितना असंगत एवं कितना अबौद्धिक है ? क्या यह महावीर की वाणी, एक सर्वज्ञ की बानी हो सकती है ? जिन गंगा आदि नदियों की इंच-इंच भूमि प्राज नाप ली गई है, उद नदियों को आज भी लाखों मील के लम्बे-चौडे विस्तार वाली बताना, क्या यह महावीर की सर्वज्ञता एवं भगवता का उपहास नहीं है ? आज हमें नये सिरे से चिंतन करना चाहिए। यथार्थ के धरातल पर खड़े होकर सत्य का सही मूल्यांकन करना चाहिए। दूध और पानी की तरह यह अलग-अलग कर देना चाहिए कि भगवान् की वाणी क्या है ? महावीर के वचन क्या है ? एवं, उससे १. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, ज्योतिषचक्राधिकार, चन्द्रऋद्धि वर्णन । धर्म की परख का प्राधार Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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