Book Title: Dharm Kaha Hain Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf View full book textPage 4
________________ 192 धर्म और समाज यदि आडस्वर और स्वागत आदिसे मी धर्मकी प्रभावना और वृद्धि होती हो, तो गणितके हिसाबसे जो अधिक आडम्बर करता कराता है, वह अधिक धार्मिक गिना जाना चाहिए / यदि तीथों और मंदिरोंके निमित्त केवल धनका संचय करना ही धर्मका लक्षण हो, तो जो पेढी ऐसा धन अधिक एकत्रित करके उसकी रक्षा करती है वही अधिक धार्मिक गिनी जानी चाहिए / परंतु दूसरी ओर पंथ-देहके पोषक ही उससे उलटा कहते हैं और मानते-मनाते हैं / वे अपने लिए होनेवाले आडम्बरोके सिवाय दूसरोंके आडम्बरका महत्त्व था उसकी धार्मिकताका गाना नहीं गाते। इसी प्रकार वे दुनियाके किसी भी दूसरे धर्मपंथकी पेढ़ीकी प्रचुर संपत्तिको धार्मिक संपत्ति नहीं गिनते / ऐसा है तो यह भी स्पष्ट है कि यदि दूसरे पंथके पोषक पहले पंथके पोषकों के आडम्बरों और उसकी पेढ़ियोंको धार्मिक नहीं गिन, तो इसमें कोई अनौचित्य नहीं है / यदि दोनों एक दूसरेको अधार्मिक गिनते हैं, तो हमें क्या मानना चाहिए ? हमारी विवेक-बुद्धि जागरित हो, तो हम थोड़ी सी भी कठिनाईके बिना निश्चय कर सकते हैं कि जो मानवताको नहीं जोड़ती है, उसमें अनुसंधान पैदा करनेवाले गुणोंको नहीं प्रकट करती है, ऐसी कोई भी बात धार्मिक नहीं हो सकती। __ अनुयायी वर्गमें ऊपर बताई हुई विचारसरणी पैदा करने, उसे पचाने और दूसरेसे कहने योग्य नम्र साहसको विकसित करनेका नाम धार्मिक शिक्षण है। यह हमें दीपककी तरह बता सकता है कि धर्म उसके आत्मामें है और उसका आत्मा है सदाचारी और सद्गुणी जीवन / ऐसे आत्माके होनेपर ही देहका मूल्य है, अभावमें नहीं / भिन्न भिन्न पंथोंके द्वारा खड़े किये गये देहोंके अवलंबनके विना भी धर्मका आत्मा जीवन में प्रकट हो सकता है, केवल देहोंका आश्रय लेनेपर नहीं। - इस साधनोंकी तंगी और काठिनाइयोंसे युक्त युगमें मानवताको जोड़ने और उसे जीवित रखनेका एक ही उपाय है और वह यह कि हम धर्मकी भ्रान्तियों और उसके बहमोसे जल्दी मुक्ति प्राप्त करें और अंतरमें सच्चा अर्थ समझें। [ मांगरोल जैन-समाका सुवर्ण महोत्सव अंक, सन् 1947 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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