Book Title: Dharm Kaha Hain Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf View full book textPage 3
________________ धर्म कहाँ है? १९१ रहता है उसका एक कारण तो ऊपर बताया गया है-उसीपर निभनेवाले वर्गकी अकर्मण्य और आरामतलब जिंदगी । दूसरा कारण है प्रत्येक पंथके अनुयायी-वर्गकी मतिमंदता और तेजोहीनता। यदि हम इतिहासके आधारसे समझ लेते हैं कि अधिकतर पंथके पोषक मानवताको जोड़नेके बदले उसे बरादर खंडित करते आये हैं, तो हमारा (अनुयायी-वर्गका) कर्तव्य है कि हम स्वयं ही धर्मके सूत्र अपने हाथमे लेकर उसके विषयमें स्वतंत्र विचार करें। एक बार अनुयायी-वर्गमेंसे कोई ऐसा विचारक और साहसी-वर्ग बाहर निकला तो उस पथके देह-पोषकॉमसे भी उसे साथ देनेवाले अवश्य मिल जायँगे धर्मपंथके पोषकोंमें कोई योग्य नहीं होता या उनमें किसी योग्य व्यक्तिका होना संभव नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है । परंतु प्रत्येक पंथका वातावरण धीरे धीरे ऐसा अन्योन्याश्रित हो जाता है कि यदि उसमेंसे कोई सच्चा पुरोहित पंडित या गुरु कोई सच्ची बात कहने या तदनुसार आचरण करनेका निश्चय करे तो वह दूसरेसे डरता है और दूसरा तीसरेसे। जिस स्टेशनके सभी कर्मचारी रिश्वत आदि लेकर काम करते हों, उसमें एकाध प्रामाणिक व्यक्तिके लिए अपना जीवन बीताना कठिन हो जाता है। यही दशा पंथदेहके पोषकोंमें किसी योग्य व्यक्तिकी होती है। किसी असाधारण शक्तिके बिना परोहित, पंडित या गुरुवर्गमें पालित पोषित व्यक्तिके लिए कुलपरंपरागत प्रवृत्तिका विरोध करना या उसमें उदार दृष्टिबिंदु प्रविष्ट करना बहुत कठिन हो जाता है। जो धर्म सबको एक समय प्रकाश देनेकी और सबको समान भावसे देखनेकी दृष्टि अर्पित करनेकी शक्ति रखता है, वही धर्म पंथों में फंसकर अपना अस्तित्व गवाँ देता है। पंथ-पोषक वर्ग जब धर्मके प्रवचन करता है तब तो सारे जगतको समान भावसे देखनेकी और सबकी समानरूपसे सेवा करनेकी बात कहता है और उसके लिए अपने शास्त्रोंके प्रमाण भी देता है, पर जब उसके आचरणकी ओर दृष्टिपात करते हैं, तब जो असंगति उसके रहन-सहनके बीच में होती है वह स्पष्ट दिखाई दे जाती है । सेवा, संपूर्ण त्याग और अहिंसाकी महिमा गानेवाला तथा उसके प्रचारके लिए वेष लेनेवाला वर्ग लोगोंकी पसीनेकी कमाईका जब केवल अपनी सेवाके लिए उपयोग करता है और बिलकुल व्यर्थ तथा भाररूप आडम्बरपूर्ण क्रियाकांडों और उत्सवोंमें खर्च कराके धर्मकृत्य करनेके संतोषका पोषण करता है, तब समझदार मनुष्यका मन विह्वल होकर पुकार उठता है कि इससे धर्मको क्या लेना देना है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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