Book Title: Devchandraji ke Sahitya me se Sudhabindu
Author(s): Rushabhdasji Swami
Publisher: Z_Manidhari_Jinchandrasuri_Ashtam_Shatabdi_Smruti_Granth_012019.pdf

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Page 3
________________ जीव को अजर, अमर, अविनाशी, सच्चिदानन्द स्वरूप की द्रव्य-गुण पर्याय का जितना भी सूक्ष्म अध्ययन, अवलोकन, मान्यतावाले दर्शन ही जीव को मुक्तिधाम पर पहुँचाने चिंतन, मंथन और परिशीलन होगा, उतना ही सत्य का में सफल नहीं बन सकते । साथ में अजीव तत्व जो धर्म, साक्षात्कार एवं वस्तुस्थिति का भान होता जायगा । अधर्म, आकाश, काल और पुदगल हैं, उनके पूर्ण स्वरूप को समझे बिना छुटकारा नहीं है । यद्यपि दूसरे द्रव्य अपनी ग्रीष्म ऋतु को ताप से पीड़ित हाथी सरोवर के पंक गति, स्थिति, अवकाश, प्रवर्त्तना और परिणाम क्रिया में (कीचड़) की शीतलता को देखकर उसमें सुख की भ्रांति जीव के साथ सम्बन्धित है तथापि इनपर विशेष मंथन में विश्रांति लेने गया । उसे शीतलता का सुख अनुभव परिशीलन न भी होवे परन्तु पुद्गल का स्वरूप समझना जरूर हआ परन्तु उस कादव में ऐसा फंस गया कि वह फिर परम आवश्यक है क्योंकि पुद्गल और जीव परस्पर परि- बाहर नहीं आ सका। ग्रीष्म ऋतु के प्रचंड ताप से कीचड़ णामी द्रव्य हैं । एक दूसरे का परस्पर सम्बन्ध अलिप्त सूखता गया और हाथी को अपने प्राणों की आहुति देनी होने पर भी वे अपना प्रभाव परस्पर डाले बिना पड़ी। इसो तरह इस संसार का हाल है। इसलिये रहते नहीं। वैभाविक संबंध विकास मार्ग में कहाँ तक उपयोगी है और एक दर्पण के सामने काला पर्दा रख दिया जाय तो कहाँ तक निरुपयोगी है, इसका सम्यग-बोध प्राप्त न हो तो यद्यपि पर्दा और दर्पण पृथक है, फिर भी पर्दे की परछाया वही विकास विकार रूप बनकर विनाश की तरफ ले जाता दर्पण की निर्मलता को आवरित किये बिना रहती नहीं। इसी है। विश्वतंत्र के प्राणियों के लिए जीवन विकाश की तरह आत्मा के ऊपर पुदगल का आवरण क्या है. कैसे होता प्रक्रिया को जीव अपनी अज्ञान दशा में निरर्थक बना देता है, कैसे टिकता है और कैसे मिटता है. यह सब समझना है। विश्वतंत्र में कहो या आहेत ही पड़ेगा क्योंकि पुद्गल की भी कई वर्गणायें हैं । खासकर लोकस्थिति कहो या विज्ञान की भाषा में COSMIC औदारिक आदि आठ वर्गणाएँ जीव से बहुत सम्बन्धित हैं ORDER कहो, प्रत्येक पदार्थ अपने स्वाभाविक स्वरूप और इनमें भी कार्मण-वर्गणा, जो अति सूक्ष्म मानी जाती में अवस्थित रहने के लिये सदा प्रवृत्तिशील है। है, अपने परिणाम के असर द्वारा आत्मा को स्व-पर का अतः आईत्-दर्शन में सब बड़े तत्वों का परम तत्व भान तक भला देती है और यह जीव पर-परिणामी बन (Fulorum of the whole Universe) "उवन्नेइ जाता है। संज्ञा, कषाय, विषय-वासना, आशा, तृष्णा ये वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा" माना है । अर्हन्त भगवंत धर्म सब पुद्गल-परिणामी होने पर भी जीव अपनी अज्ञान तीर्थ स्थापित करने के लिए अपनी अमृत देशना का मंगलादशा में इनको आत्मपरिणामी समझकर उनमें परिणमन चरण करते हैं तब ऐसा ही वर्णन है कि गणधर प्रश्न करते करता है और पुद्गल परिणामी बनकर चारों गतियों में हैं कि "भंते ! किं तत्तं ? किं तत्त ? उसके प्रत्युत्तर में परिभ्रमण करता है। अपने अनन्त प्राणों के संयोग-वियोग भगवन्त '' उवन्नेइ वा, विगमेइ वा धुवेइ वा" फरमाते हैं। के चक्कर में अरघट घटिका न्यायेन" अनादिकाल से संसार यही द्रव्य-गुण पर्याय की घटमाल को समझने का परमोसमुद्र के जन्म-मरण की तरंगों में गोते खाता रहता है। त्कृष्ट साधन है और नैसर्गिक नियंत्रण का सारा विश्व आ: पार्हत् दर्शा को परिभाषा में द्रव्य-गुण-पर्याय की विधान इसी विज्ञान को प्रकाश में लाने के लिये घटनाल में ही सारे संसार का चक्र चलता है। इसलिये नियोजित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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