Book Title: Devarchan aur Snatra puja
Author(s): Jinendravijay Gani
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 5
________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य - प्रतिमा समता-प्रवाह की प्रदाता पवित्र सरिता के सदृश है। हे का उच्च भाव पत्थर इत्यादि की मूर्ति में भी परमात्मा का दर्शन प्रभो! आपकी प्रतिमा भव्य जीवों को संयम द्वारा मोक्षनगर में कराता है। इससे उसको अपूर्व लाभ होता है। आत्मिक विकास ले जाने वाला अंतरिक्षयान है। हे प्रभो! आपकी मूर्ति आराधक का सारा आधार अन्तःकरण के शुभ भाव पर है और प्रशस्त आत्मा के कर्मों की निर्जरा करती है। चैत्यवंदन और स्तुति- आलम्बन के बिना शुभ भाव प्रकट नहीं हो सकते। स्तवन आराधक आत्मा के ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय करते हैं। . देवाधिदेव श्री जिनेश्वर भगवान की प्रतिमा के अनुपम आपकी मूर्ति के समक्ष श्री अरिहन्त एवं श्री सिद्ध भगवान के गुणों का स्मरण मात्र करने से आराधक के दर्शन-मोहनीय और दर्शन-अर्चन आदि से दर्शनविशुद्धि अवश्य होती है। साथ ही चारित्र-मोहनीय कर्मों का क्षय होता है। आपकी मूर्ति राग-द्वेष साथ उनके गुणों का चिंतन-मनन भी आसानी से होता है। रूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाली है। हे प्रभो! आपकी आत्मा साकार उपासना द्वारा ही निराकार उपासना की अधिकारिणी मर्ति क. भावपूर्वक दर्शन-पूजन करने वाले भव्य जीवों को होती है। अर्थात् आत्मा सगुण उपासना के आलंबन से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। निर्गुण-उपासना की उत्तम भूमिका तक पहुँचती है। अपने इष्टदेव अशुभ आलम्बन से आत्मा के भावों में अशद्धता आती है। देवाधिदेव जिनेश्वर परमात्मा की मूर्ति का दर्शन-वंदन और पूजन और शुभ आलम्बन से शुद्धता आती है। इसीलिए जहाँ साधु करना ही सगुण उपासना है। यूँ करते-करते ही अन्त में आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप में लवलीन होती है। जिस समय ध्याता, महाराज ठहरते हैं, उस स्थान पर कामवासना-उत्तेजक कोई स्त्री का चित्र भी हो तो वहाँ साधु को नहीं ठहरना चाहिए, ऐसा ध्येय और ध्यान ये तीनों एकरूप हो जाते हैं, ध्याता अपनी आत्मा है, ध्यान परमात्मा का स्वरूप और ध्येय परमात्मपद दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है मोक्षपद प्राप्त करना है। अर्थात् ध्याता, ध्येय और ध्यान इन चित्तभित्तं न णिज्जाए नारिं वा सुअलंकि। तीनों का एकाकार हो जाना ही मोक्षपद की प्राप्ति है। भक्खरमिव दट्ठणं दिट्टि पडिसमाहरे।। आचार्य श्रीमद रत्नशेखर सूरीश्वरजी महाराज विरचित सिरि जहाँ दीवार पर भी सुअलंकृत स्त्री का चित्र हो, वहाँ साधु सिरिवाल कहा (श्री श्रीपाल-कथा) में कहा गया है कि "उज्जैन को नहीं ठहरना चाहिए। यदि उस चित्र पर दृष्टि पड़ भी जाए तो नगरी में श्री केसरियानाथ (श्री ऋषभदेव) की मूर्ति के सम्मुख दृष्टि को तुरंत दूसरी तरफ घुमा लेना चाहिए जैसे दोपहर के श्री सिद्धचक्र यन्त्र के स्नात्रजल (प्रक्षालन जल)से श्रीपाल राजा समय चमचमाते सूर्य की तरफ दृष्टि जाते ही उसे घुमा लेते हैं। तथा सात सौ कोढ़ियों का अठारह प्रकार का कोढ़रोग सर्वथा ____ दशवैकालिक सूत्र की इस गाथा का लोकभाषा में अनुवाद दूर हो गया और इन सभी के शरीर कंचन के समान शुद्ध हो करने वाले महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज ने अपने गए।" श्री केसरियानाथजी की यही प्राचीन भव्य मूर्ति आज भी स्तवन में कहा है - उदयपुर के निकट श्री केसरियाजी तीर्थ में विद्यमान है। दशवैकालिक दूषण दाख्यं, नारी चित्र ने ठामे। जब श्रीकृष्ण और जरासंध का युद्ध हुआ तब जरासंध ने तो किम जिन प्रतिमा देखी ने, गुण नवी होय परिणामे॥ कृष्ण की सेना पर जरा विद्या का प्रयोग किया जिससे कृष्ण की दीवार पर सुअलंकृत सुशोभित नारी का चित्र देखना भी सारी सेना वृद्ध हो गई तब श्री नेमिकुमार की प्रेरणा से श्रीकृष्ण ने जब दोष उत्पन्न कर सकता है, जब जिनप्रतिमा को देखकर गुण तेले का तप किया। तेले के प्रभाव से धरणेंद्र ने आकर श्री उत्पन्न क्यों नहीं हो सकते? जब अश्लील चित्र आदि से मन के पार्श्वनाथ भगवान की मूर्ति दी, जिसे पूर्व चौबीसी के समय परिणाम अशुभ हो सकते हैं, तब वीतराग परमात्मा की मूर्ति के दामोदर तीर्थंकर के श्रावक आषाढ़ी ने बनवाया था। इस मूर्ति दर्शन, वंदन एवं पूजन से शुभ भाव क्यों नहीं उत्पन्न हो सकते? के स्नात्रजल से जरासंध की जराविद्या दूर हो गई और संग्राम में कहना ही पड़ेगा कि शुभ आलंबन-निमित्त से शुभ भाव अवश्य कृष्ण की विजय हुई। तब हर्ष विभोर होकर वासुदेव कृष्ण ने प्रकट हो सकते हैं। इसमें थोड़ा भी संदेह नहीं है। मूर्ति भले ही अपने मुख से अपना शंख बजाया और तभी से यह जिनमूर्ति श्री पत्थर की हो या अन्य धातु की हो, किन्तु अपने अन्तःकरण शंखेश्वर पार्श्वनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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