Book Title: Devarchan aur Snatra puja Author(s): Jinendravijay Gani Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf View full book textPage 3
________________ यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य मूर्तिपूजा का सर्वप्रथम विरोध करने वाले मुस्लिम धर्म से सीखी जाती हैं। कुव्यसनों की ट्रेनिंग आधुनिक चलचित्रों से .. के संस्थापक हजरत मुहम्मद सा. थे, किन्तु उनके अनुयायी ही ली जा रही है, आज के छोटे-छोटे बच्चों में वह वृद्धि पा रही अपनी मस्जिदों में पीरों की कब्र बनाकर उन्हें पुष्प, धूप आदि । है। हिंसा, स्वेच्छाचार, कामुकता आदि भावनाएँ टेलीविजन से पूजते हैं। मोहर्रम के दिनों में ताजिये बनाकर रोना-पीटना और सिनेमा की ही देन हैं। जब चलचित्रों का ऐसा प्रभाव पड़ करते हैं और यात्रा के लिए अपने धर्मतीर्थ मक्का-मदीना जाते सकता है तब देवाधिदेव वीतराग प्रभु की मूर्ति के दर्शन आदि हैं। मूर्तिपूजा को नहीं मानने वाले ईसाई भी सूली पर लटकती से और उनकी विधिपूर्वक की गई पूजा भक्ति एवं उपासना हुई ईसा-मसीह की मूर्ति और क्रास अपने गिरजाघरों में स्थापित आदि से हम पवित्र नहीं बन सकते क्या? कर्मों का क्षय नहीं कर कर उन्हें पूज्य भाव से देखते हैं। पारसी अग्नि को देवता मानते सकते क्या? परमात्मतत्त्व की प्राप्ति नहीं कर सकते क्या? हैं और सूर्यदेव की भी पूजा करते हैं, यह मूर्तिपूजा का ही अवश्य कर सकते हैं, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। परिवर्तित रूप है। बौद्ध धर्म के मठ स्थान-स्थान पर देश- मर्ति को मात्र पत्थर मानने वालों का यह कहना कि विदेश में विद्यमान है। इस धर्म के अनुयायी भी अपने मठी में 'यह पत्थर की मर्ति हमें क्या देगी?' भारी भल है। एक प्रभगौतम बद्ध की मर्ति रखते हैं। आज भी गौतम बुद्ध की अनक भारत ने कहा है प्राचीन मूर्तियाँ उपलब्ध हैं। इससे सिद्ध होता है कि बौद्धमत में भी मूर्तिपूजा श्रद्धा का केन्द्र है। सिक्ख अपने को मूर्तिपूजा का पत्थर भी सुन लेता है, विरोधी कहते हुए भी गुरुग्रन्थ साहब की पूजा करते हैं तथा पुष्प इसलिए हम पत्थर को पूजते हैं। एवं अगरबत्ती भी चढ़ाते हैं। कबीर, नानक, रामचरण आदि जिसके दिल में है पत्थर, मूर्तिपूजा-विरोधियों के अनुयायी भी अपने-अपने पूज्य पुरुषों उसे पत्थर ही सूझते हैं। की समाधियाँ बनाकर उनकी पूजा करते हैं। स्थानकवासी वर्ग वे यह भूल जाते हैं कि जब माता-पिता के चित्र को भी अपने पूज्य पुरुषों की समाधि, चरण पादुका, फोटो इत्यादि देखकर तत्काल उनकी याद आ जाती है, तब भगवान की प्राणबनाकर उनकी उपासना करते हैं। विश्व में कोई भी धर्म, मत, प्रतिष्ठित मूर्ति को देखकर भगवान की याद क्यों नहीं आएगी? पन्थ, सम्प्रदाय, समाज, जाति तथा व्यक्ति मूर्तिपूजा से अलग अवश्य ही आएगी और उनके गण भी अवश्य याद आयेंगे। नहीं रह सकता। वीतराग परमात्मा की उपासना वीतराग प्रभु को प्रसन्न इसलिए मूर्तिपूजा आत्मकल्याण का एक महान् साधन करने के लिए नहीं, अपितु अपनी आत्मा को निर्मल बनाने के है। संसारत्यागी साधु-साध्वियों के लिए भी श्री अरिहन्त परमात्मा लिए की जाती है। 'चउवीसं पि जिनवरा तित्थयरा मे पसीयंतु' की भावपूजा प्रतिदिन करना अत्यंत आवश्यक है तथा श्रावक- कहकर अन्त में 'सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु' से सिद्ध पद की, मोक्ष पजा और भावपजा दोनों निरंतर करनी चाहिए। की माँग की जाती है। अनादिकाल से आत्मा के साथ लगे हुए प्रायः यह देखा जाता है कि शत्र के चित्र को देखकर राग-द्वेष आदि कर्मों को दूर करने के लिए वीतराग परमात्मा की आत्मा में क्रोध आ जाता है और मित्र के चित्र को देखकर प्रेम मूर्ति का आलंबन लेना परमावश्यक है। पैदा हो जाता है, धार्मिक चित्र देखने से धर्म-भावना बढ़ती है यूँ तो विश्व में अनेक मूर्तियाँ हैं, किन्तु वीतराग प्रभु और स्त्रियों के शृंगारिक चित्र देखने से कामवासना बढ़ती है। देवाधिदेव जिनेश्वर भगवान की मूर्तियों की विशिष्टता सबसे · जब चित्रों का भी ऐसा प्रभाव है तो मर्तियों का क्यों नहीं होगा? अलग है। जिनकी अंजनशलाका अर्थात् प्राण-प्रतिष्ठा जैन-मंत्रों सिनेमा के पर्दे पर चित्रों को आप जीवित व्यक्ति की दृष्टि । एवं विधि-विधानपूर्वक हुई हो, ऐसी जिनमूर्ति देखते ही अन्तःकरण से ही तो देखते हैं। वे चित्र जड़ होते हुए भी आपके हृदय पर में वीतराग भाव की उत्पत्ति होती है। इसके आलंबन द्वारा जीवित-तुल्य प्रभाव डालते हैं, तब प्राण-प्रतिष्ठित की हुई मूर्ति आत्मा परमात्मा बनता है और मोक्ष के शाश्वत सख को प्राप्त वैसा क्यों नहीं कर सकती? संसार की बहुत सी बातें चलचित्रों। करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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