Book Title: Dellhi ka Aetihasik Jain Sarthwaha Nattal Sahu
Author(s): Kundanlal Jain
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 2
________________ की रचना समाप्त की / यह ग्रन्थ इतिहास की दृष्टि से बड़ा महत्त्वपूर्ण है। इसमें तत्कालीन तोमरवंशी राजा अनगपाल तथा उसके शासन का प्रामाणिक वर्णन मिलता है। इसके साथ ही तत्त लीन साम जिक, धार्थिक एवं आर्थिक परिस्थितियों का भी विस्तृत ऐतिहासिक विवेचन मिलता है। यह अनंगपाल कौन था—द्वितीय या तृतीय, इस पर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। नट्टल साहू ने दिल्ली में भगवान् श्री आदिनाथ का भव्य मन्दिर बनवाया था और कवि श्रीधर की प्रेरणा से चन्द्रप्रभु स्वामी की प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई थी और मन्दिर पर पंचरंगी ध्वजा फहराई थी। नट्टल साहू जहां समृद्ध और धनी व्यक्ति थे, वहां उदार, धमिक एवं परोपकारी जीव भी थे। उनका व्यापार अंग-बंग, कलिंग, गौड़, केरल, कर्नाटक, चोल, द्रविड़, पांचाल, सिंध, खस, मालवा, लाट, लट, लोट, नेपाल, ध्वक, कोंकण, महाराष्ट्र, झदानक, हरियाणा, मगध, गुर्जर, सौराष्ट्र आदि देशों से होता था तथा वहां के राजा नट्टल साहू का बड़ा भरोसा और आदर करते थे। वे बड़े भारी सार्थवाह थे और हो सकता है, उन्होंने महाराजा अनंगपाल के संदेशवाहक राजदूत के रूप में भी विस्तृत ख्याति अजित की हो / किसी का मत है कि नट्टल साहू ने आदिनाथ की जगह पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाया था; किन्तु इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता / जो कुछ भी हो, कालान्तर में यह मन्दिर ध्वस्त कर दिया गया जिसके अवशेष अब भी महरौली में कुतुबमीनार के पास उपलब्ध होते हैं। नट्टल को अनंगपाल का मंत्री भी कहा जाता हैं, पर ऐसा कहीं उल्लेख नहीं हैं / संभवतया उसके प्रताप एवं समृद्धि के कारण उसे अनंगपाल का मंत्री मान लिया गया हो / नट्टल के बारे में कवि ने निम्न संस्कृत श्लोक भी लिखे हैं आसीदत्र पुरा प्रसन्न-वदनो विख्यात-दत्त-श्रुतिः, शुश्रूषादिगुणैरलंकृतमना देवे गुरौ भाक्तिकः / सर्वज्ञः क्रम-कंज-युग्म-निरतो न्यायान्वितो नित्यशो, जेजाख्योऽखिलचन्द्ररोचिरमलस्फूज़ंद्यशोभूषितः // यस्यांगजोऽजनि सुधीरिह राघवाख्यो, ज्यायानमंदमतिरुज्झित-सर्ब-दोषः / अप्रोतकान्वय-नभोङ्गण-पार्वणोंदुः, गुण-रंजित-चारु-चेताः // ततोऽभवत्सोढल नामधेयः सुतो द्वितीयो द्विषतामजेयः / धर्मार्थकामत्रितये विदग्धो जिनाधिप-प्रोक्तवृषण मुग्धः // पश्चाद्बभूव शशिमंडल-भासमानः, ख्यातः क्षितीश्वरजनादपि लब्धमानः / सद्दर्शनामृत-रसायन-पानपुष्ट: श्रीनट्टलः शुभमना क्षपितारिदुष्ट: // तेनेमुदत्तमधिया प्रविचित्य चित्ते, स्वप्नोपम जलदशेषमसारभूतं / श्रीपार्श्वनाथचरितं दुरितापनोदि, मोक्षाय कारितमितेन मुदं व्यलेखि // येनाराध्य विशुध्य धीरमतिना देवाधिदेवं जिनं, सत्पुण्यं समुपाजितं निजगुणः संतोषिता बांधवाः / जैन चैत्यमकारि सुन्दरतरं जैनी प्रतिष्ठा तथा / स श्रीमान्विदितः सदैव जयतात्पृथ्वीतले नट्टलः // उपयुक्त श्लोकों में श्री नट्टल साहू की प्रतिष्ठा और विशेषता का ज्ञान सरलता से हो जाता है। श्री नट्टलसाहू तत्कालीन दिल्ली के जैन समाज का एक सर्वप्रमुख श्रेष्ठ ऐतिहासिक पुरुष था जिसकी कीर्ति दिदिगंत तक व्याप्त थी। कविवर विबुध श्रीधर ने अपने ग्रन्थ में नट्टल साहू के विषय में अपभ्रंश में जो कुछ लिखा है, उसे भी मूल रूप में प्रसंगवश यहां उद्धृत करना उपयुक्त होगा जिससे पाठकों को इस श्रेष्ठ श्रावक के चरित्र के उदात्त गुगों और सूक्ष्मातिसूक्ष्म विशेषताओं का परिचय मिल सके और वे उससे प्रेरित हो जाएँ। तहिं कुल-गयणं गणेसिय पयंगु, सम्मत्त विहूसण भूसियंगु / गुरुभत्ति णविय तेल्लोक-णाहु, दिट्ठउ अल्हण णामेण साहु / तेण वि णिज्जिय चंदप्पहासु, णिसुणेवि चरिउ चंदप्पहासू / जंपिउ सिरिहरु ते धण्णंत, कुलबुद्धि विहवमाण सिरियवंत / अणवरउ भमई जगि जाहिं कित्ति, धवलंती गिरि-सायर-धरित्ति / सा पुणु हवेइ सुकइत्तणेण, बाएण सुएण सुकित्तणेण / जैन इतिहास, कला और संस्कृति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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