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दिल्ली का ऐतिहासिक जैन सार्थवाह नल साह
: नट्टल
आचार्य श्री कुन्दनलाल जैन
सार्थवाह शब्द की व्याख्या करते हुए अमरकोष के टीकाकार क्षीरस्वामी ने लिखा है 'जो पूंजी के द्वारा व्यापार करनेवाले पान्थों का अगुआ हो वह सार्थवाह है।" प्राचीन भारत की सार्थवाह परम्परा का गुणगान डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल ने इस प्रकार किया है, “कोई एक उत्साही व्यापारी सार्थ बनाकर व्यापार के लिए उठता था । उसके साथ में और लोग भी सम्मिलित हो जाते थे जिसके निश्चित नियम थे । सार्थं का उठना व्यापारिक क्षेत्र की बड़ी घटना होती थी । धार्मिक तीर्थ यात्रा के लिए जैसे संघ निकलते थे और उनका नेता संघपति (संघवई, संघवी ) होता था वैसे ही व्यापारिक क्षेत्र में सार्थवाह की स्थिति थी । भारतीय व्यापारिक जगत् में जो सोने की खेती हुई उसके फूले पुष्प चुननेवाले व्यक्ति सार्थवाह थे । बुद्धि के धनी, सत्य में निष्ठावान्, साहस के भंडार, व्यावहारिक सूझ-बूझ में पगे हुए, उदार, दानी, धर्म और संस्कृति में रुचि रखने वाले नई स्थिति का स्वागत करने वाले, देश-विदेश की जानकारी के कोष... रीति-नीति के पारखी - भारतीय सार्थवाह महोदधि के तट पर स्थित ताम्रलिप्ति से सीरिया की अन्ताक्षी नगरी तक, यब द्वीप और कटाह द्वीप से चोलमंडल के सामुद्रिक पत्तनों और पश्चिम में यमन बर्जर देशों तक के विज्ञान जल थल पर छा गए थे।"
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सार्थवाहों की गौरवशाली परम्परा का शक्तिशाली राज्यों के अभाव, केन्द्रिय सत्ता के बिखराव, जीवन की असुरक्षा एवं अराजकता के कारण लोप होने लगा था । इस समाप्तप्रायः परम्परा में विक्रम् सम्वत् १९८६ ( ई० सन् १९३२) में दिल्ली के एकप्रसिद्ध जैन धर्मानुयायी धावक शिरोमणि नट्टल साहू के दर्शन हो जाते हैं।
उनकी प्रशंसा में विबुध श्रीधर नामक अपभ्रंश के श्रेष्ठ कवि ने अपनी "पासणाह चरिउ" नामक सर्वोत्कृष्ट रचना में बड़े गौरव के साथ विभिन्न स्थलों पर उल्लेख किया है। उन्होंने उनके नाम का नट्टल, णट्टलु, नट्टण, नट्टलु, नट्टणु, नटुल आदि रूपों में उल्लेख किया है ।
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अग्रवाल वंशी नट्टल साहू के पिता का नाम जेजा तथा माता का नाम मेमडिय था । जेजा साहू के राघव, सोढ़ल और नट्टल नाम से तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे, जिनमें से तृतीय पुत्र नट्टल साहू बड़ा प्रतापी एवं तत्कालीन् सर्वश्रेष्ठ समृद्ध व्यापारी एवं धार्मिक निष्ठा से परिपूर्ण राजनीतिज्ञ भी या श्री हरिहर द्विवेदी ने जेजा को नट्टल का मामा लिखा है' जो संभवतः कोई और व्यक्ति रहा होगा । इसी तरह उन्होंने नट्टल के प्रशंसक अल्हण को उनका पिता बताया है। यह भी प्रमाणसिद्ध नहीं है क्योंकि कवि विबुध श्रीधर जब हरियाणा से दिल्ली पधारे तो वे अल्हण साहू के यहां ठहरे थे जो तत्कालीन राजमंत्री थे और उन्हें अपनी प्रथम रचना 'चंदप्यह चरिउ सुनाई थी जिससे प्रभावित होकर अल्हण साहू ने कवि से अनुरोध किया था कि वह नल साहू से अवश्य ही मिले। इस पर कवि ने कहा था कि 'इस संसार में दुर्जनों की कमी नहीं है और मुझे कहीं अपमानित न होना पड़े इसलिए जाने के लिए झिझक रहा हूं, परन्तु जब अल्हण साहू ने नट्टल साहू के गुणों की प्रशंसा की और उसे अपना मित्र बताया तब कविवर अल्हण के अनुरोध पर नट्टल साहू से मिलने गये ।
जब नल साहू ने कविवर का उचित सम्मान और आदर किया और श्रद्धाभक्तिपूर्वक उनसे अनुरोध किया कि 'पासनाहचरिउ' की रचना करें तो फिर कविवर ने मार्गशीर्ष कृष्णा अष्टमी रविवार को दिल्ली में सं० १९८६ में 'पासणाह चरिउ सार्ववाह लेखक डॉ० मोतीचन्द्र में डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल की भूमिका से पृ० १
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वही पृष्ठ २
दिल्ली के तोमर, पृ० ७६
आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्यः
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________________ की रचना समाप्त की / यह ग्रन्थ इतिहास की दृष्टि से बड़ा महत्त्वपूर्ण है। इसमें तत्कालीन तोमरवंशी राजा अनगपाल तथा उसके शासन का प्रामाणिक वर्णन मिलता है। इसके साथ ही तत्त लीन साम जिक, धार्थिक एवं आर्थिक परिस्थितियों का भी विस्तृत ऐतिहासिक विवेचन मिलता है। यह अनंगपाल कौन था—द्वितीय या तृतीय, इस पर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। नट्टल साहू ने दिल्ली में भगवान् श्री आदिनाथ का भव्य मन्दिर बनवाया था और कवि श्रीधर की प्रेरणा से चन्द्रप्रभु स्वामी की प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई थी और मन्दिर पर पंचरंगी ध्वजा फहराई थी। नट्टल साहू जहां समृद्ध और धनी व्यक्ति थे, वहां उदार, धमिक एवं परोपकारी जीव भी थे। उनका व्यापार अंग-बंग, कलिंग, गौड़, केरल, कर्नाटक, चोल, द्रविड़, पांचाल, सिंध, खस, मालवा, लाट, लट, लोट, नेपाल, ध्वक, कोंकण, महाराष्ट्र, झदानक, हरियाणा, मगध, गुर्जर, सौराष्ट्र आदि देशों से होता था तथा वहां के राजा नट्टल साहू का बड़ा भरोसा और आदर करते थे। वे बड़े भारी सार्थवाह थे और हो सकता है, उन्होंने महाराजा अनंगपाल के संदेशवाहक राजदूत के रूप में भी विस्तृत ख्याति अजित की हो / किसी का मत है कि नट्टल साहू ने आदिनाथ की जगह पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाया था; किन्तु इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता / जो कुछ भी हो, कालान्तर में यह मन्दिर ध्वस्त कर दिया गया जिसके अवशेष अब भी महरौली में कुतुबमीनार के पास उपलब्ध होते हैं। नट्टल को अनंगपाल का मंत्री भी कहा जाता हैं, पर ऐसा कहीं उल्लेख नहीं हैं / संभवतया उसके प्रताप एवं समृद्धि के कारण उसे अनंगपाल का मंत्री मान लिया गया हो / नट्टल के बारे में कवि ने निम्न संस्कृत श्लोक भी लिखे हैं आसीदत्र पुरा प्रसन्न-वदनो विख्यात-दत्त-श्रुतिः, शुश्रूषादिगुणैरलंकृतमना देवे गुरौ भाक्तिकः / सर्वज्ञः क्रम-कंज-युग्म-निरतो न्यायान्वितो नित्यशो, जेजाख्योऽखिलचन्द्ररोचिरमलस्फूज़ंद्यशोभूषितः // यस्यांगजोऽजनि सुधीरिह राघवाख्यो, ज्यायानमंदमतिरुज्झित-सर्ब-दोषः / अप्रोतकान्वय-नभोङ्गण-पार्वणोंदुः, गुण-रंजित-चारु-चेताः // ततोऽभवत्सोढल नामधेयः सुतो द्वितीयो द्विषतामजेयः / धर्मार्थकामत्रितये विदग्धो जिनाधिप-प्रोक्तवृषण मुग्धः // पश्चाद्बभूव शशिमंडल-भासमानः, ख्यातः क्षितीश्वरजनादपि लब्धमानः / सद्दर्शनामृत-रसायन-पानपुष्ट: श्रीनट्टलः शुभमना क्षपितारिदुष्ट: // तेनेमुदत्तमधिया प्रविचित्य चित्ते, स्वप्नोपम जलदशेषमसारभूतं / श्रीपार्श्वनाथचरितं दुरितापनोदि, मोक्षाय कारितमितेन मुदं व्यलेखि // येनाराध्य विशुध्य धीरमतिना देवाधिदेवं जिनं, सत्पुण्यं समुपाजितं निजगुणः संतोषिता बांधवाः / जैन चैत्यमकारि सुन्दरतरं जैनी प्रतिष्ठा तथा / स श्रीमान्विदितः सदैव जयतात्पृथ्वीतले नट्टलः // उपयुक्त श्लोकों में श्री नट्टल साहू की प्रतिष्ठा और विशेषता का ज्ञान सरलता से हो जाता है। श्री नट्टलसाहू तत्कालीन दिल्ली के जैन समाज का एक सर्वप्रमुख श्रेष्ठ ऐतिहासिक पुरुष था जिसकी कीर्ति दिदिगंत तक व्याप्त थी। कविवर विबुध श्रीधर ने अपने ग्रन्थ में नट्टल साहू के विषय में अपभ्रंश में जो कुछ लिखा है, उसे भी मूल रूप में प्रसंगवश यहां उद्धृत करना उपयुक्त होगा जिससे पाठकों को इस श्रेष्ठ श्रावक के चरित्र के उदात्त गुगों और सूक्ष्मातिसूक्ष्म विशेषताओं का परिचय मिल सके और वे उससे प्रेरित हो जाएँ। तहिं कुल-गयणं गणेसिय पयंगु, सम्मत्त विहूसण भूसियंगु / गुरुभत्ति णविय तेल्लोक-णाहु, दिट्ठउ अल्हण णामेण साहु / तेण वि णिज्जिय चंदप्पहासु, णिसुणेवि चरिउ चंदप्पहासू / जंपिउ सिरिहरु ते धण्णंत, कुलबुद्धि विहवमाण सिरियवंत / अणवरउ भमई जगि जाहिं कित्ति, धवलंती गिरि-सायर-धरित्ति / सा पुणु हवेइ सुकइत्तणेण, बाएण सुएण सुकित्तणेण / जैन इतिहास, कला और संस्कृति
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________________ जा अविरल धारहि जणमण हारहिं दिज्जइ धणु वदीयणहं / ता जीव णिरंतरि भुअणभंतरि भमई कित्ति सुंदर जणहं / / पुत्तेण विलच्छि-समिद्धएण, णय-विणय सुसील-सिणिद्धएण / कित्तणु विहाइ धरणियलि जाम, सिसिरयर-सरिसु जसु ठाइ ताम / सुकइत्तें पुणु जा सलिल-रासि, ससि-सूर-मेरु-णक्खत्त-रासि / सुक इत्तु वि पसरइ भवियणाहँ, संसग्गें रंजिय जण-मणाहँ / इह जेजा णामें साहु आसि, अइ णिम्मलयर-गुण-रयण-रासि / सिरि-अयरवाल-कुल-कमल-मित्तु, सुइ-धम्म-कम्म-पवियण्ण-वित्तु / मेमडिय णाम तहो जाय भज्ज, सीलाहरणालंकिय सलज्ज / बंधव-जण-मण-संजणिय-सोक्ख, हंसीव उहय-सुविसुद्ध पक्ख / तहो पढम पुत्तु जण वयण रामु, हुउ आरक्खि तसजीव गामु। कामिणि-माणस-विद्दवण-कामु, राहउ सव्वत्थ पसिद्ध णामु / पुणु बीयउ विवुहाणंद-हेउ, गुरु भत्तिए संथुअ अरुह-देउ / विणयाहरणालंकिय-सरीरु, सोढल-णामेण सुबुद्धि धीरु / पुण तिज्जउ णंदणु णयणाणंदणु जगे णट्टलू णामें भणिउं / जिणमइ णीसंकिउ पुण्णालंकिउ जसु बुहेहि गुण गणु गणिउं // जो सुंदर बीया इंदु जेम, जण-वल्लहु दुल्लहु लोय तेम / जो कुल-कमलायर-रायहंसु, विहुणिय-चिर-विरइय-पाव-पंसु / तित्थयरु पयट्टावियउ जेण, पढमउ को भणियइं सरिसु तेण / जो देइ दाणु वंदीयणाहं, विरएवि माणु सहरिस मणाहं / पर-दोस-पयासण-विहि-विउत्तु, जो ति-ररयण-यणाहरण-जुत्त / जो दितु चउब्विहु दाणु भाई, अहिणउ वंधू अवयरिउ णाई। जसु तणिय कित्ति गय दस दिसासु, जो दितु ण जाणई सउ सहासु / जसु गुण-कित्तणु कइयण कुणंति, अणवरउ वंदियण णिरु थुणंति / जो गुण-दोसहं जाणइं वियारु, जो परणारी-रइ णिब्वियारु / जो रूव-विणिज्जिय-मार-वीरु, पडिवण्ण-वयण-धुर-धरण-धीरु / सोमहु उवरोहें णिहय विरोहें णट्टलसाहु गुणोह-णिहि / दीसइ जाएप्पिणू पणउ करेप्पिणु उप्पाइय भब्वयणदिहि // तं सुणिवि पयंपिउ सिरिहरेण, जिण-कब्व-करण-विहियायरेण / सव्वउ जं जंपिउ पुरउ मज्झु, पइ सब्भावें बुह मइ असज्झु / परसंति एत्थु विबुहहं विवक्ख, बहु कवउ-कूट-पोसिय सवक्खु / अमरिस धरणीधर सिर विलग्ग, णर सरूव तिक्ख मुह कण्णलग्ग / असहिय परणर गुण गरुअ रद्धि, दुव्वयण हणिय पर कज्ज सिद्धि / कयणा सा मोडण मत्थ रिल्ल, भूमिउ डिभंगि णिदिय गुणिल्ल / को सक्कज्ञ रंजण ताहं चित्त, सज्जण पयडिय सुअणत्त रित्त / तहि लइ महु किं गमणेण भव्व, भब्वयण बंधु परिहरिय-गव्व / तं सुणिवि भणिउं गुण-रयण-धामु, अल्हण णामेण मणोहिरामु / पउ भणिउं काई पई अरुहभत्त, किं मुणहि ण णट्टलु भूरिसत्तु / 151 आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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________________ जो धम्म-धुरंधरु उण्णय-कंधरु सुअण-सहावालंकरिउ / अणुदिणु णिच्चलमणु जसु बंधवयणु करइ वयणु णेहावरिउ / जो भव्वभाव पयडण समत्थु, ण कया वि जासु भासिउ णिरत्थु / णाइण्णइ वयणई दुज्जणाह, सम्माणु करइ पर सज्जणाहं / संसग्गु समीहइ उत्तमाहं, जिणधम्म विहाणे णित्तमाहं / णिरु करइ गोठ्ठि सहुं बुयणेहिं, सत्थत्थ-वियारण हिय-मणेहिं / किं बहुणा तुज्झु समासिएण, अप्पउ अप्पेण पसंसिएण / महु वयणु ण चालइ सो कयावि, जं भणमि करइ लहु तं सयावि / तं णिसणिवि सिरिहरु चलिउ तेत्थु, उवविठ्ठउ णट्टलु ठाई जेत्थु / तेणवि तहो आयहो विहिउ माणु, सपणय तंबोलासण समाणु / जं पुव्व जम्मि पविरइउ किंपि, इह विहिवसेण परिणवइ तंपि / खणु एक्क सिणेहें गलिउ जाम, अल्हण णमेण पउत्त ताम / भो णट्टल णिरुवम धरिय कुलक्कम, भणमि किंपि पई परम सुहि / पर समयः परम्मुह अगणिय दुम्मह परियाणिय जिण समय विहि / कारावेवि णाहेयहो णिकेउ, पविइण्णु पंच वणं सुकेउ / पई पुणु पइट्ठ पविरइय जेम, पासहो चरित्त, जइ पुणवि तेम / विरयावहि ता संभवइ सोक्खु, कालंतरेण पुणु कम्ममोक्खु / सिसरयर-विवे णिय जणण णामु, पई होइ चडाविउ चंद-धामु / तुज्झु वि पसरइ जय जसु रसत, दस दिसहि सयल असहण हसंतु। तं णिसुणिवि णट्टलु भणई साहु, सइवाली पिय यम तणउं णाहु / भणु खंड रसायणु सुह यासु, रुच्चइ ण कासु यतणु पयासु / एत्थंतरि सिरिहरु वुत्त तेण, णट्टलु णामेण मणोहरेण / भो तहु महु पयडिय णेहभाउ, तुहं पर महु परियाणिय सहाउ / तुहुं महु जस सरसीरुह सुभाणु, तुहुं महु भावहि णं गुण-णिहाणु / पई होतएण पासहो चरित्तु, आयण्णमि पयडहि पावरित्त / तं णिसुणिवि पिसुणिउं कविवरेण, अणवरउ लद्ध-सरसइ-वरेण / विरयमि गयगावें पविमल भावें तुह वयणे पासहो चरिउ / पर दुज्जण णियरहिं हयगुण पयरहिं घरु पुरु णयरावरु भरिउ / इय सिरिपासचरितं रइयं बुह-सिरिहरेण गुण-भरियं / अणुमणियं मण्णोज्जं णट्टल-णामेण भव्वेण / विजयंत-विमाणाओ वम्मादेवीइ णंदणो जाओ। . कणयप्पहु चविऊणं पढमो संधी परिसमत्तो। राहव साहुहें सम्मत्त-लाहु, संभवउ समिय संसार-दाह / सोढल नामहो सयल वि धरित्ति, धवलंति भमउ अणवरउ कित्ति / / तिण्णि वि भाइय सम्मत्त-जुत्त, जिणभणिय धम्म-विहि करण धुत्त / महिमेरु जलहि ससि सूरु जाम, सहुं तणुरुहेहिं णंदंतु ताम / चउविहु वित्त्थरउ जिणिंद-संघु, परसमय खुद्दवाइहिं दुलंघु / / वित्थरउ सुयजसु भुअणि पिल्लि, तुट्टउ डित्ति संसार-वेल्लि / विक्कम णरिंद सुपसिद्ध कालि, ढिल्ली पट्टणि धण कण विसालि / / सणवासि एयारह सएहि, परिवाडिए वरिसहं परिगएहि / कसणट्ठमीहिं आगहणमासि, रविवारि समाणिउ सिसिर भासि / / जैन इतिहास, कला और संस्कृति
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________________ सिरि पासणाह णिम्मलु चरित्तु, सयलामल-गुण रयणोय दित्तु / पणवीस सयइं गंथहो पमाण, जाणिज्जहिं पणवीसहिं समाणु / जा चन्द दिवायर महिह रसायर ता बुहयणहिं पढिज्जउ / भवियहिं भाविज्जउ गुणहिं थुणिज्जउ वरलेयहि लिहिज्जउ / / इय पासचरित्तं रइयं, बुह-सिरिहरेण गुणभरियं / अणुमण्णियं मणुज्जं णट्टल-णामेण भव्वेण / / पुव्व-भवंतर-कहणो पास-जिणिदस्स चारु-निव्वाणो। जिण-पियर-दिक्ख-गहणो बारहमो संधी परिसम्मत्तो / / अहो जण णिच्चलु चित्त करेवि, भिसं विसएसु भमंतु धरेवि / खणेक्क पयंपिउ मज्झु सुणेहु, कु भावई सव्वई होतह णेहु / इहत्थि पसिद्धउ ढिल्लिहिं इक्क, णरुत्त मुणं अवइण्णउँ सक्कु / समक्खमि तुम्हहँ तासु गुणाई, सुरासुर-राय मणोहरणाइँ / ससंक सुहा समकित्तिह धामु, सुरायले किण्णर गाइय णामु। मणोहर-माणिणि-रंजण कामु, महामहिमालउ लोयहँ वामु / जिणेसर-पाय-सरोय-दुरेहु, विसुद्ध मणोगइ जित्तइ सुरेहु / सया गुरु भत्तु गिरिदु व धीरु, सुही-सुहओ जलहिव्व गहीरु / अदुज्जणु सज्जण सुक्ख-पयासु, वियाणिय मागह लोय पयासु / असेसह सज्जण मज्झि मणुज्ज, नरिंदहँ चित्ति पयासिय चोज्जु / महाम इवंतहँ भावइ तेम, सरोयणराहं रसायणु जेम / सवंस णहंगण भासण-सूरु, सबंधव-वग्ग मणिच्छिय पूरु / सुहोह पयासणु धम्मुय मुत्तु, वियाणिय जिणवर आयमसुत्तु / दयालय वट्टण जीवण वाहु, खलाणण चंद पयासण राहु / पिया अइ वल्लह वालिहे णाहु वहुगुणगणजुत्तहो जिणपयभत्तहो जो भासइ गुण नट्टलहो / सो पयहिं णहंगणु रमिय वरंगणु लंघइ सिरिहर हय खलहो / / पंचाणुव्वव धरणु स सयल सुअणई सुहकारणु / जिणमय पह संचरणु विसम विसयासा वरणु // वच्छल्ल विहाण पविहाणय वित्थरणु जिण-मुणि-पय-पुज्जाकरणु / अहिणंदउ णट्टल साहु चिरु विवुहयणहँ मण-धण-हरणु / / दाणवंतु तकि दंति धरिय तिरयणि त कि सेणिउं। रूवतुत कि मय तिज य तावणु रइ भाणिउ // अइगहीरु त कि जलहि गरुय लहरिहि हय सुखहु / अइ थिरयरु त कि मेरु वप्प चय रहियउ त कि नहु / / णउ दंति न सेणिउं नउ मयणु ण जलहि मेरु ण पुणु न नहु / सिखितु साहु जेजा तणउं जगि नट्टलु सुपसिद्ध इहु / / अंग-वंग-कालिंग-गउड़-केरल-कण्णाडहं / चोड-दविड-पंचाल-सिंधु-खस-मालव-लाडहं / / जट्ट-भोट्ट-णेवाल-टक्क-कुंकण-मरहट्टहं / भायाणय-हरियाण-मगह-गुज्जर-सोरट्टहं / / इय एवमाइ देसेसु णिरु जो जाणियइ नरिंदर्हि / सो नट्टलु साहु न वण्णियइ कहि सिरिहर कइ विदहि // दहलक्खण जिण-भणिय-धम्म धुर धरणु वियक्खणु / लक्खण उवलक्खिय सरीरु परचित्तु व लक्खणु / / सुहि सज्जण बुहयण विहीउ सीसालंकरियउ। कोह-लोह-मायाहि-माण-भय-मय-परिरहियउ / / गुरुदेव-पियर-पय-भत्तियरु अयरवाल-कुल-सिरि-तिलउ / णंदउ सिरि णट्टलु साहु चिरु कइ सिरिहर गुण-गण-निलउ // गहिर-घोसु नवजलहरुब्व सुर-सेलु व धीरउ। मलभर रहियउ नयलुव्व जलणिहि व गहीरउ // चितिययरु चिंतामणिन्व तरणि व तेइल्लउ / माणिणि-मणहर रइवरुव्व भव्वयण पियल्लउ / / गंडीउ व गुण गण मडियउ परिनिम्महिय अलक्खणु / जो सो वणिय न केउ ण भणु नट्टलु साहु सलक्खणु॥ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य