Book Title: Dashvaikalik Sutra me Guptitray ka Vivechan Author(s): Shweta Jain Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf View full book textPage 1
________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 270 दशवैकालिक सूत्र में गुप्तित्रय का विवेचन डॉ. श्वेता जैन श्रमण-जीवन में मन, वचन एवं काया की अशुभ प्रवृत्तियों से निवृत्ति आवश्यक है, जिसे गुप्ति कहा जाता है। मुनि के आध्यात्मिक-विकास में त्रिगुप्ति की विशेष भूमिका होती है। विदुषी डॉ. श्वेता जैन ने दशवैकालिक सूत्र, उसकी नियुक्ति आदि के आधार पर यह चिन्तनपूर्ण आलेख प्रस्तुत किया है। -सम्पादक श्रमण-जीवन के दो पक्ष हैं- आध्यात्मिक और व्यावहारिक। अध्यात्म पक्ष मन, वचन और काया के निग्रह से सम्बन्धित है, जिसे साधु-भाषा में त्रिगुप्ति कहते हैं। व्यावहारिक पक्ष के अन्तर्गत चलना, बोलना, भिक्षा लेना, पात्रादि लेना, रखना, विसर्जन क्रिया करना सम्मिलित है, जो एक श्रमण के सम्पूर्ण जीवन की बाह्य चर्या है। इस चर्या को यतना पूर्वक करना ‘समिति' है। अतः समिति और गुप्ति से युक्त जीवन मुनि के क्रमशः व्यावहारिक और आध्यात्मिक जीवन शैली को प्रकट करता है। . अष्ट प्रवचन माता अर्थात् पाँच समिति और तीन गुप्ति का पालन करना श्रमणत्व है। श्रमणत्व धर्म को सीखने का दशवैकालिक सूत्र प्रकृष्ट माध्यम है। दशवैकालिक सूत्र में पाँच समिति में से एषणासमिति का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है तथा त्रिगुप्ति विषयक चर्चा स्थान-स्थान पर उपलब्ध होती है। त्रिगुप्ति विषयक चर्चा को संगृहीत कर इस लेख में संयोजित किया गया है। ___ मनोगुप्ति मन को 'चित्त' से भी अभिहित किया गया है। चित्त या मन का निग्रह करना मनोगुप्ति है। अनादिकाल से संसार मार्ग (क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह) में प्रवृत्त चित्त को स्वधर्म (अक्रोध, अमान,अमाया आदि) में स्थित कर लेना ‘मनोनिग्रह' है। अतः दशवैकालिक के प्रणेता मुनि शय्यंभव कहते हैं- 'नाणमेगग्गचित्तो य ठिओ" अर्थात् ज्ञान से चित्त एकाग्र होता है और धर्म में स्थित होता है। भेद विज्ञान : मन-निग्रह का प्रथम सोपान ज्ञान द्वारा चित्त धर्म में स्थित होता है। यह विचार प्रश्न उपस्थित करता है कि वह ज्ञान कौनसा है, कैसा उसका स्वरूप है, जो मन या चित्त को स्थिर करने में सहयोगी होता है। शरीर और आत्मा पृथक्-पृथक् हैं इसका अनुभव करना 'भेद विज्ञान' है। यह भेद विज्ञान ही वह ज्ञान है जो चित्त को स्थिर बनाता है। इस सम्बन्ध में मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ) ने 'न सा महं नोवि अहं पि तीसे' पद्यांश के चिन्तन में लिखा है-“ यह भेद-चिन्तन का सूत्र है। लगभग सभी अध्यात्म-चिन्तकों ने भेद-चिन्तन को Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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