Book Title: Darshan aur Sampradaya Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 2
________________ न तो मतभेद प्रकट हुअा है और न उनमें किसीका विरोध ही रहा है। पर उक्त मूल श्राध्यात्मिक प्रमेयों के विशेष-विशेष स्वरूपके विषयमें तथा उनके व्यौरेवार विचारमें सभी प्रधान-प्रधान दर्शनोंका और कभी-कमी तो एक ही दर्शनकी अनेक शाखाओंका इतना अधिक मतभेद और विरोध शास्त्रों में देखा जाता है कि जिसे देखकर तटस्थ समालोचक यह कभी नहीं मान सकता कि किसी एक या सभी सम्प्रदायके व्यौरेवार मन्तव्य साक्षात्कारके विषय हुए हों । अगर ये मन्तव्य साक्षात्कृत हो तो किस सम्प्रदायके ? किसी एक सम्प्रदायके प्रवर्तकको व्यौरेके बारेमें साक्षात्कर्ता द्रष्टा साबित करना टेढ़ी खीर है । अतएव बहुत हुश्रा तो उक्त मूल प्रमेयोंमें दर्शनका साक्षात्कार अर्थ मान लेनेके बाद ब्योरेके बारेमें दर्शनका कुछ और ही अर्थ करना पड़ेगा। विचार करनेसे जान पड़ता है, कि दर्शनका दूसरा अर्थ 'सबल प्रतीति' ही करना ठीक है। शब्द के अर्थों के भी जुदे-जुदे स्तर होते हैं। दर्शनके अर्थका यह दूसरा स्तर है। हम वाचक उमास्वातिके 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्" इस सूत्रमें तथा इसकी व्याख्यानों में वह दूसरा स्तर स्पष्ट पाते हैं। वाचकने साफ कहा है कि प्रमेयोंकी श्रद्धा ही दर्शन है। यहाँ यह कभी न भूलना चाहिए कि श्रद्धाके माने है बलवती प्रतीति या विश्वास, न कि साक्षात्कार । श्रद्धा या विश्वास, साक्षात्कारको सम्प्रदायमें जीवित रखनेकी एक भूमिका विशेष है, जिसे मैंने दर्शनका दूसरा स्तर कहा है। यों तो सम्प्रदाय हर एक देशके चिन्तकों में देखा जाता है। यूरोपके तत्त्वचिन्तनकी श्राद्य भूमि ग्रीसके चिन्तकोंमें भी परस्पर विरोधी अनेक संप्रदाय रहे है, पर भारतीय तत्व-चिन्तकों के सम्प्रदायकी कथा कुछ निराली ही है । इस देश के सम्प्रदाय मूलमें धर्मप्राण और धर्मजीवी रहे हैं। सभी सम्प्रदायोंने तस्वचिन्तनको श्राश्रय ही नहीं दिया बल्कि उसके विकास और विस्तारमें भी बहुत कुछ किया है। एक तरहसे भारतीय तत्व-चिन्तनका चमत्कारपूर्ण बौद्धिक प्रदेश जुदे जुदे सम्प्रदायोंके प्रयत्नका ही परिणाम है । पर हमें जो सोचना है वह तो यह है कि हरएक सम्प्रदाय अपने जिन मन्तव्योंपर सबल विश्वास रखता है और जिन मन्तव्योंको दूसरा विरोधी सम्प्रदाय कतई माननेको तैयार नहीं है वे मन्तव्य साम्प्रदायिक विश्वास या साम्प्रदायिक भावनाके ही विषय माने जा सकते हैं, साक्षात्कारके विषय नहीं। इस तरह साक्षात्कारका सामान्य स्रोत सम्प्रदायोंकी भूमिपर व्यौरेके विशेष प्रवाहोंमें विभाजित होते ही विश्वास और प्रतीतिका रूप धारण करने लगता है । जब साक्षात्कार विश्वासका परिणत हुआ तब उस विश्वासको स्थापित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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