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दर्शन और सम्प्रदाय' ।
न्यायकुमुदचन्द्र यह दर्शनका ग्रन्थ है, सो भी सम्प्रदाय विशेषका, अतएव सर्वोपयोगिता की दृष्टि से यह विचार करना उचित होगा कि दर्शनका मतलब क्या समझा जाता है और वस्तुतः उसका मतलब क्या होना चाहिए । इसी तरह यह भी विचारना समुचित होगा कि सम्प्रदाय क्या वस्तु है और उसके साथ दर्शनका संबन्ध कैसा रहा है तथा उस सांप्रदायिक संबन्धके फलस्वरूप दर्शन में क्या गुण-दोष आप हैं इत्यादि ।
सब कोई सामान्य रूपसे यही समझते और मानते आए हैं कि दर्शनका मतलब है तस्य साक्षात्कार | सभी दार्शनिक अपने-अपने सांप्रदायिक दर्शनको साक्षात्कार रूप ही मानते आए हैं । यहाँ सवाल यह है कि साक्षात्कार किसे कहना ? इसका जवाब एक ही हो सकता है कि साक्षात्कार वह है जिसमें भ्रम या सन्देहको अवकाश न हो और साक्षात्कार किए गए तत्त्वमें फिर मतभेद या विरोध न हो | अगर दर्शनकी उक्त साक्षात्कारात्मक व्याख्या सबको मान्य है तो 'दूसरा प्रश्न यह होता है कि अनेक सम्प्रदायाश्रित विविध दर्शनों में एक ही तत्त्व के विषय में इतने नाना मतभेद कैसे और उनमें समाधेय समझा जानेवाला परस्पर विरोध कैसा ? इस शंकाका जवाब देनेके लिए हमारे पास एक ही रास्ता है कि हम दर्शन शब्दका कुछ और अर्थ समझें । उसका जो साक्षात्कार अर्थ समझा जाता है और जो चिरकालसे शास्त्रों में भी लिखा मिलता है, वह अर्थ अगर यथार्थ है, तो मेरी राय में वह समग्र दर्शनों द्वारा निर्विवाद और असंदिग्ध रूपसे सम्मत निम्नलिखित आध्यात्मिक प्रमेयोंमें ही घट सकता है
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१ - पुनर्जन्म, २ -- उसका कारण ३ - पुनर्जन्मग्राही कोई तत्त्व, ४-साधनविशेष द्वारा पुनर्जन्मके कारणों का उच्छेद ।
ये प्रमेय साक्षात्कार के विषय माने जा सकते हैं। कभी-न-कभी किसी तपस्वी द्रष्टा या द्रष्टानको उक्त तत्वोंका साक्षात्कार हुआ होगा। ऐसा कहा जा सकता है; क्योंकि आजतक किसी श्राध्यात्मिक दर्शनमें इन तथा ऐसे तत्त्वों के बारे में
१. पं० महेन्द्रकुमारसम्पादित न्यायकुमुदचन्द्र के द्वितीय भाग के प्राक्कथनका श, ई० १६४१ |
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न तो मतभेद प्रकट हुअा है और न उनमें किसीका विरोध ही रहा है। पर उक्त मूल श्राध्यात्मिक प्रमेयों के विशेष-विशेष स्वरूपके विषयमें तथा उनके व्यौरेवार विचारमें सभी प्रधान-प्रधान दर्शनोंका और कभी-कमी तो एक ही दर्शनकी अनेक शाखाओंका इतना अधिक मतभेद और विरोध शास्त्रों में देखा जाता है कि जिसे देखकर तटस्थ समालोचक यह कभी नहीं मान सकता कि किसी एक या सभी सम्प्रदायके व्यौरेवार मन्तव्य साक्षात्कारके विषय हुए हों । अगर ये मन्तव्य साक्षात्कृत हो तो किस सम्प्रदायके ? किसी एक सम्प्रदायके प्रवर्तकको व्यौरेके बारेमें साक्षात्कर्ता द्रष्टा साबित करना टेढ़ी खीर है । अतएव बहुत हुश्रा तो उक्त मूल प्रमेयोंमें दर्शनका साक्षात्कार अर्थ मान लेनेके बाद ब्योरेके बारेमें दर्शनका कुछ और ही अर्थ करना पड़ेगा।
विचार करनेसे जान पड़ता है, कि दर्शनका दूसरा अर्थ 'सबल प्रतीति' ही करना ठीक है। शब्द के अर्थों के भी जुदे-जुदे स्तर होते हैं। दर्शनके अर्थका यह दूसरा स्तर है। हम वाचक उमास्वातिके 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्" इस सूत्रमें तथा इसकी व्याख्यानों में वह दूसरा स्तर स्पष्ट पाते हैं। वाचकने साफ कहा है कि प्रमेयोंकी श्रद्धा ही दर्शन है। यहाँ यह कभी न भूलना चाहिए कि श्रद्धाके माने है बलवती प्रतीति या विश्वास, न कि साक्षात्कार । श्रद्धा या विश्वास, साक्षात्कारको सम्प्रदायमें जीवित रखनेकी एक भूमिका विशेष है, जिसे मैंने दर्शनका दूसरा स्तर कहा है।
यों तो सम्प्रदाय हर एक देशके चिन्तकों में देखा जाता है। यूरोपके तत्त्वचिन्तनकी श्राद्य भूमि ग्रीसके चिन्तकोंमें भी परस्पर विरोधी अनेक संप्रदाय रहे है, पर भारतीय तत्व-चिन्तकों के सम्प्रदायकी कथा कुछ निराली ही है । इस देश के सम्प्रदाय मूलमें धर्मप्राण और धर्मजीवी रहे हैं। सभी सम्प्रदायोंने तस्वचिन्तनको श्राश्रय ही नहीं दिया बल्कि उसके विकास और विस्तारमें भी बहुत कुछ किया है। एक तरहसे भारतीय तत्व-चिन्तनका चमत्कारपूर्ण बौद्धिक प्रदेश जुदे जुदे सम्प्रदायोंके प्रयत्नका ही परिणाम है । पर हमें जो सोचना है वह तो यह है कि हरएक सम्प्रदाय अपने जिन मन्तव्योंपर सबल विश्वास रखता है और जिन मन्तव्योंको दूसरा विरोधी सम्प्रदाय कतई माननेको तैयार नहीं है वे मन्तव्य साम्प्रदायिक विश्वास या साम्प्रदायिक भावनाके ही विषय माने जा सकते हैं, साक्षात्कारके विषय नहीं। इस तरह साक्षात्कारका सामान्य स्रोत सम्प्रदायोंकी भूमिपर व्यौरेके विशेष प्रवाहोंमें विभाजित होते ही विश्वास और प्रतीतिका रूप धारण करने लगता है ।
जब साक्षात्कार विश्वासका परिणत हुआ तब उस विश्वासको स्थापित
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रखने और उसका समर्थन करनेके लिए सभी सम्प्रदायोंको कल्पनाओं का, दलीलोंका तथा तर्कों का सहारा लेना पड़ा। सभी साम्प्रदायिक तत्व -चिन्तक अपने-अपने विश्वासकी पुष्टिके लिए कल्पनाओं का सहारा पूरे तौर से लेते रहे फिर भी यह मानते रहे कि हम और हमारा सम्प्रदाय जो कुछ मानते हैं वह सब कल्पना नहीं किन्तु साक्षात्कार है । इस तरह कल्पनाश्रोंका तथा सत्य-असत्य और सत्य का समावेश भी दर्शनके अर्थ में हो गया एक तरफ जहाँ सम्प्रदायने मूल दर्शन याने साक्षात्कार की रक्षा की और उसे स्पष्ट करने के लिये अनेक प्रकार के चिन्तनको चालू रखा तथा उसे व्यक्त करनेकी अनेक मनोरम कल्पनाएँ कीं, वहाँ दूसरी तरफसे सम्प्रदायकी बाढ़पर बढ़ने तथा फूलनेफलनेवाली तत्व- चिन्तनकी बेल इतनी पराश्रित हो गई कि उसे सम्प्रदाय के सिवाय कोई दूसरा सहारा ही न रहा । फलतः पर्देबन्द पद्मिनियोंकी तरह - चिन्तनकी बेल भी कोमल और संकुचित दृष्टिवाली बन गई ।
तस्व-1
हम साम्प्रदायिक चिन्तकोंका यह झुकाव रोज देखते हैं कि वे अपने चिन्तन में तो कितनी ही कमी या अपनी दलीलों में कितना ही लचरपन क्यों न हो उसे प्रायः देख नहीं पाते। और दूसरे विरोधी सम्प्रदाय के तत्व-चिन्तनों में कितना ही सद्गुण्य और वैशद्य क्यों न हो ! उसे स्वीकार करने में भी हिचकिचाते हैं ।
प्रदायिक तत्व-चिन्तनोंका यह भी मानस देखा जाता है कि वे सम्प्रदायान्तर के प्रमेयोंको या विशेष चिन्तनोंको अपना कर भी मुक्त कण्ठसे उसके प्रति कृतज्ञता दर्शाने में हिचकिचाते हैं । दर्शन जब साक्षात्कारकी भूमिकाको लाँघकर विश्वासकी भूमिकापर श्राया और उसमें कल्पनाओं तथा सत्यासत्य तर्कों का भी समावेश किया जाने लगा, तब दर्शन साम्प्रदायिक संकुचित दृष्टियों में आवृत होकर, मूलमें शुद्ध श्राध्यात्मिक होते हुए भी अनेक दोषोंका पुञ्ज बन गया । अब तो पृथक्करण करना ही कठिन हो गया है कि दार्शनिक चिन्तनों में क्या कल्पनामात्र है, क्या सत्य तर्क है, या क्या असत्य तर्क है ? हरएक सम्प्रदायका अनुयायी चाहे वह अपढ़ हो, या पढ़ा-लिखा, विद्यार्थी एवं पण्डित, यह मानकर ही अपने तत्वचिन्तक ग्रंथोंको सुनता है या पढ़ता- पढ़ाता है, कि इस हमारे तस्वग्रन्थ में जो कुछ लिखा गया है वह अक्षरशः सत्य है, इसमें भ्रान्ति या सन्देहको अवकाश ही नहीं है तथा इसमें जो कुछ है वह दूसरे किसी सम्प्रदायके ग्रन्थ में नहीं है और अगर है तो भी वह हमारे सम्प्रदायसे ही उसमें गया है | इस प्रकारकी प्रत्येक सम्प्रदाय की अपूर्ण में पूर्ण मान लेने की प्रवृत्ति इतनी अधिक बलवती है कि अगर इसका कुछ इलाज न हुआ तो मनुष्य जातिके उपकार के लिये प्रवृत्त हुआ यह दर्शन मनुष्यताका ही घातक सिद्ध होगा ।
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____ मैं समझता हूँ कि उक्त दोषको दूर करनेके अनेक उपायोंमेंसे एक उपाय यह भी है कि जहाँ दार्शनिक प्रमेयोंका अध्ययन तात्विक दृष्टि से किया जाए वहाँ साथ ही साथ वह अध्ययन ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक दृष्टिसे भी किया जाए । जब हम किसी भी एक दर्शनके प्रमेयोंका अध्ययन ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक दृष्टि से करते हैं तब हमें अनेक दूसरे दर्शनोंके बारे में भी जानकारी प्रास करनी पड़ती है। यह जानकारी अधूरी या विपर्यस्त नहीं। पूरी और यथासम्भव यथार्थ जानकारी होते ही हमारा मानस व्यापक शानके आलोकसे भर जाता है । शानकी विशालता और स्पष्टता हमारी दृष्टिमेंसे संकुचितता तथा तज्जन्य भय श्रादि दोषोंको उसी तरह हटाती है जिस तरह प्रकाश तमको । हम असर्वज्ञ
और अपूर्ण हैं, फिर भी अधिक सत्यके निकट पहुँचना चाहते हैं। अगर हम योगी नहीं हैं फिर भी अधिकाधिक सत्य तथा तच्च-दर्शनके अधिकारी बनना चाहते हैं तो हमारे वास्ते साधारण मार्ग यही है कि हम किसी भी दर्शनको यथासम्भव सर्वाङ्गीण ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक दृष्टि से भी पढ़ें। __म्यायकुमुदचन्द्र के सम्पादक पं. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने मूल प्रन्थके नीचे एक-एक छोटे-बड़े मुद्देपर जो बहुश्रुतत्वपूर्ण टिप्पण दिए हैं और प्रस्ता. वनामें जो अनेक सम्प्रदायोंके प्राचार्योंके ज्ञानमें एक दूसरेसे लेन-देनका ऐतेि. हासिक पर्यालोचन किया है, उन सबकी सार्थकता उपर्युक्त दृष्टि से अध्ययन करनेकराने में ही है। सारे न्यायकुमुदचन्द्र के टिप्पण तथा प्रस्तावनाका महेश अगर कार्य साधक है तो सर्वप्रथम अध्यापकोंके लिए। जैन हो या जैनेतर, सच्चा जिज्ञासु इस में से बहुत कुछ पा सकता है। अध्यापकोंकी दृष्टि एक बार साफ हुई, उनका अवलोकन प्रदेश एक बार विस्तृत दुआ, फिर वह सुवास विद्याथियोंमें तथा अपढ़ अनुयायियोंमें भी अपने-आप फैलने लगती है। इस भावो लाभको निश्चित प्राशासे देखा जाए तो मुझको यह कहने में लेश भी संकोच नहीं होता कि सम्पादकका टिप्पण तथा प्रस्तावना विषयक श्रम दार्शनिक अध्ययन क्षेत्रमें साम्प्रदायिकताकी संकुचित मनोवृत्ति दूर करनेमें बहुत कारगर सिद्ध होगा। ___ भारतवर्षको दर्शनोंकी जन्मस्थली और क्रीड़ाभूमि माना जाता है । यहाँका अपढ़जन भी ब्रह्मज्ञान, मोक्ष तथा अनेकान्त जैसे शब्दोंको पद-पदपर प्रयुक्त करता है, फिर भी भारतका दार्शनिक पौरुषशून्य क्यों हो गया है ? इसका विचार करना जरूरी है । हम देखते हैं कि दार्शनिक प्रदेशमें कुछ ऐसे दोष दाखिल हो गए हैं जिनकी ओर चिन्तकोंका ध्यान अवश्य जाना चाहिए । पहली बात दर्शनों के पठन संबन्धी उद्देश्य की है। जिसे कोई दूसरा क्षेत्र न मिले और बुद्धिप्रधान आजीविका करमी हो तो बहुधा वह दर्शनोंकी ओर
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________________ मुकता है। मानों दार्शनिक अभ्यासका उद्देश्य या तो प्रधानतया श्राजीविका हो गया है या वादविजय एवं बुद्धिविलास | इसका फल हम सर्वत्र एक ही देखते हैं कि या तो दार्शनिक गुलाम बन जाता है या सुखशील / इस तरह जहाँ दर्शन शाश्वत अमरताकी गाथा तथा अनिवार्य प्रतिक्षण मृत्युकी गाथा सिखाकर अभयका संकेत करता है वहाँ उसके अभ्यासी हम निरे भीरु बन गए हैं / जहाँ दर्शन हमें सत्यासत्यका विवेक सिखाता है वहाँ हम उलटे असत्यको समझने में भी असमर्थ हो रहे हैं, तथा अगर उसे समझ भी लिया, तो उसका परिहार करनेके विचारसे ही काँप उठते हैं। दर्शन जहाँ दिन-रात आत्मैक्य या श्रात्मौपम्य सिखाता है वहाँ हम भेद-प्रभेदोंको और भी विशेष रूपसे पुष्ट करनेमें ही लग जाते हैं। यह सब विपरीत परिणाम देखा जाता है / इसका कारण एक ही है और वह है दर्शन के अध्ययनके उद्देश्यको ठीक-ठीक न समझना / दर्शन पढनेका अधिकारी वही हो सकता है और उसे ही पढ़ना चाहिए कि जो सत्यासत्यके विवेकका सामर्थ्य प्राप्त करना चाहता हो और जो सत्यके स्वीकारकी हिम्मतकी अपेक्षा असत्यका परिहार करनेकी हिम्मत या पौरुष सर्व-प्रथम और सर्वाधिक प्रमाणमैं प्रकट करना चाहता हो / संक्षेपमें दर्शनके अध्ययनका एक मात्र उद्देश्य है जीवनकी बाहरी और भीतरी शुद्धि / इस उदेश्यको सामने रखकर ही उसका पठन-पाठन जारी रहे तभी वह मानवताका पोषक बन सकता है। / दूसरी बात है दार्शनिक प्रदेश में नए संशोधनोंकी / अभी तक यही देखा जाता है कि प्रत्येक सम्प्रदायमें जो मान्यताएँ और जो कल्पनाएँ रूढ़ हो गई हैं उन्हींको उस सम्प्रदायमें सर्वज्ञ प्रणीत माना जाता है और आवश्यक नए विचारप्रकाशका उनमें प्रवेश ही नहीं होने पाता / पूर्व-पूर्व पुरखोंके द्वारा किये गए और उत्तराधिकारमें दिये गए चिन्तनों तथा धारणाओंका प्रवाह ही सम्प्रदाय है / हर एक सम्प्रदायका माननेवाला अपने मन्तव्योंके समर्थन में ऐतिहासिक तथा वैज्ञानिक दृष्टिकी प्रतिष्ठाका उपयोग तो करना चाहता है, पर इस दृष्टिका उपयोग वहाँ तक ही करता है जहाँ उसे कुछ भी परिवर्तन न करना पड़े। परिवर्तन और संशोधन के नामसे या तो सम्प्रदाय घबड़ाता है या अपने में पहलेसे ही सब कुछ होनेकी डींग हाँकता है। इसलिए भारतका दार्शनिक पछि पड़ गया। जहाँ-जहाँ वैज्ञानिक प्रमेयोंके द्वारा या वैज्ञानिक पद्धतिके द्वारा दार्शनिक विषयों में संशोधन करनेकी गुंजाइश हो वहाँ सर्वत्र उसका उपयोग अगर न किया जाएगा तो यह सनातन दार्शनिक विद्या केवल पुराणोंकी ही वस्तु रह जाएगी। अतएव दार्शनिक क्षेत्रमें संशोधन करने की प्रवृत्तिकी ओर भी मुकाव होना जरूरी है।