Book Title: Danadikulak Vrutti
Author(s): Devendrasuri, Labhkushal Gani
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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दाना निपतति तावागधराचार्येण सा निवारिता. प्रोक्तं च वाले वालमरणं मा कुरु? तदा सा गुरुसमी. वृत्तिः पमागत्य दूरात्तच्चरणे लग्ना. गुरुणा प्रतियोधिता सती परमश्राविका जाता. सुखेन गृहे समागत्या
नेकतपांसि कुर्वाणा तिष्टति. परं दो ग्यत्वात्तां कोऽपि परिणेतुं नेहनि, वैराग्येण जिनधर्ममाराध्य प्रांते तयानशनं कृतं.
श्तश्च स सामानिकसुरो ललितांगंप्रति वक्ति, अहो ललितांग ! (वं तस्याः स्वकीयं रूपं द. शय ? तव रूपं दृष्ट्वा सा ते चिंतनं करिष्यति, तेनैव ध्यानेन मृत्वा च तव सार्या जविष्यति. ल. लितांगेन तथेति प्रतिपद्य निर्नामिकायै स्वं रूपं दर्शितं. सापि तं दृष्ट्वा तव्यानवशान्मरणं प्राप्य तस्थाने स्वयंप्रना नाम्नी देवी समुत्पन्ना. अथ तो देवदंपती विषयसुखानि जानौ तिष्टतः, अ नुक्रमेणायुःप्रांते ततश्युतो, इति पंचमो जवः ५. इहैव जंबूद्दीपे पूर्वमहाविदेहे पुष्कलावती विजये लोहार्गलनानि पुरखरे सुवर्णजंघराजा, लक्ष्मीर्जार्या, तयोः पुत्रो वज्रजंघनामा स जातः देवी स्वयं प्रनापि तत्रैव विजये पुंडरीकिण्यां नगर्या वज्रसेनचक्रवर्ती. गुणवती चार्या, तयोः पुत्री श्रीमती जा । ता, सर्वकालान्यासतः सा प्रवीणा जाता. एकदा स्वमंदिरगवादास्था सती मनोरमाख्ये नद्याने सु.
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