Book Title: Collection of Kalka Story Part 02
Author(s): Ambalal P Shah
Publisher: Sarabhai Manilal Nawab

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Page 232
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२८ श्रीरामचन्द्रसूरिविरचिता नवसई तेणऊएहिं, समयकतेहि बद्धमाणाओ । पज्जोसवणचउत्थी, कालगसूरी हिंतो उविया ॥१२॥ श्रीमहावीरना निर्वाण तु नवसई त्र्याणू वरिसे ग्ये हउँते पर्युषणा पर्व श्रीकालिकाचार्य गुरु पंचमी हूंतूं चतुर्थीई आणिसिई । इस्युं रायनु अनुग्रह कीधओ । अनह नंदीश्वरनु तप करती राज्ञी तेहर्नु पारणुं हुइ । अनइ साधु महात्मा रहई श्रीकल्प प्रत्याख्यानूं ओत्तरवारणउं हुइ । एह कारण चतुर्थी पर्युषणा पर्व कोजइ । तत्राहि चातुव(वर्ष यत्, पूज्यन्ते साधवो जनैः । तत्र देशे प्रवृत्तस्तु, साधुपूजालयोत्सवः ॥१३॥ अजी आज लगइ तिहां पयहाणपुरि देशमाहि भाद्रवा सुदि पडिवे नंह(नई) दिनि साधुपूजालयोत्सव हुइ ॥ एतलई कालना वशेष तु शिष्य प्रमादी जाणी कहिउँ न करई । मनमाहि श्रीकालिकाचार्य चीतवई । तेहं शिष्य रहई सीषामणा देवा शिज्जातर श्रावक तेडी तेह आगलि सघलीइ वात कही । जु शिष्य प्रमादी, रात्रि दीह सूता रहई । शास्त्राभ्यास न करई, क्रियाकलाप सामाचारी तेहनइ विषइ प्रमाद पर हुआ । तो एह रहई किसी शिष्या(क्षा) दीजइ । अझे शिष्यनु शिष्य सुवर्णपुरि श्रीसागरचंद्रसुरि इसिं नामिइं छइ, तिहां जईइ छइ । जि वारई तुम्ह कन्हलि अपार घणु आगरहु करी पूछई, गाढा हाकली चोयण करीतु । अम्ह रहई श्रीसागरचंद्रसूरि कन्हइ ग्या कहिग्यो । शय्यातर रहइं जणावीनई रात्रि पाछिली शिष्य सूता जि मुंकी गुरु श्रीकालिकाचार्य एकला जि चाल्या । सुवर्णपुरि नगरि पुहुता । तेहे गुरे अणओलख्या भणी सामा हि न ओलख्या । वृद्ध को तपोधन एकला आव्यु छइ । व्याख्यानइ नमउ कउं । साहमी प्रतिपत्ति न कीधी । तीणइ प्रति श(शि)ष्य श्रीसागरचंद्रि पूछउं । हे वडा तपोधन ! माहरु व्याख्यान किस्युं ?-कहिनई तई आगई असउं व्याख्यान कही कन्हि सांभलिउं इतउं कि ना ! । गुरु तु कहीनई वषोडइं नही पणि मनि चीतवई-शास्त्रलगइ अहंकार ऊपजइ । जु भव्य ओत्तम डाहोआर सज्जनई भणिउं हूंतउं अहंकार फेडइ । तेह जि शास्त्र दुर्जन पापी मूर्ष अज्ञान रहई साहy अहंकार प्रमाद नीपजावइ । जिम श्रीसूर्य देषी घूक धूघा रहई । साहy अंधार थाइ । जे सूर्य ऊगिई देवनां द्वार ऊघडई । गाइना गाला छूटई, स्वैरिणी स्वेच्छाचार टलई, सहू कार्यक(क्र)म करई। जगच्चक्षु श्रीसूर्यई अंधारां जाई । घूघा रहई सामहूं अंधार थाइ । शास्त्र श्रीसर्य समान छइ । जे अहंकार करई ते घूक समान जाणिवा । पणि मई कालिकाचार्यई वाणिवउं जि भलओं(3) वषाण करु छउ । ति वारइं सागरचंद्रि कहिउं मुह कन्हइ कांइ पूछओ । गुरि श्रीकालिकाचार्यि पूछिउं-कहु संसारमाहि रूडउं सं छह । सागरचंद्रि सरि कहिलं। धर्म टाली अन्य(नित्य जि देषीइ । सहइ काई धर्म उत्तम छ । पिता(ता) माता(ता) कलत्र मित्र स्वामी राजा भाइए पुत्रे देवताए मंत्रे जंत्रे ऊषधे जे काज न सीझई ते धर्मिई हेलामात्रि सीझई । दुःख फेडइ । मृत्यु मरणि सार्थि आवइ । ब(बु)द्विवंते धर्म जि करिवउं । गुरे कहउं धर्म किम हुइ । अहंकारि हुइ । विरध(वृद्ध)वाकि सांभली रीसाणो सागरचंद्र । वृद्धत्त सुं जाणइ । संपूर्ण शास्त्र सिद्धांत न जाणा, इम वाद करतां। पाछलि प्रमादी शिपे(ये) शिज्जातर श्रावक पूछिओ तेतलई श्रावक बोलिओ, तम्हे गुरु श्रीपूज्यतणी आण लोपी अनई नसंप(क) हुआ। मझ कन्हइ सिउं पूछओ । तम्हे 'गुरे छांड्या । माहरी दृष्टि आगलथा परहा जाओ। असउं आकरुं वचन शज्जातरि कहउँ । ति वारई तेहे शिषे क्षमावी, अपार पश्चाता(ता)प धरी शिज्जातर प्रति वली पूछउं । एक वार दया करी अम्हं कहु-गुरु किहां पुहता। शिजातरि ते क्षमा वली जाणी ओरत्या जाणी कहिउं । गुरु For Private And Personal Use Only

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