Book Title: Chittodgadh ke 2 Uttar Madhyakalin Jinalaya
Author(s): Atul Tripathi
Publisher: Z_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf

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Page 2
________________ Vol. I-1995 चित्तौड़गढ़ के दो उत्तर... है और विशेष में यहाँ उपभद्रों पर चामरधारी अप्सराओं का अंकन है। दोनों ही मंदिरों का रत्नजडित कलश कारीगरी का उत्तम नमूना प्रस्तुत करता है, इतना ही नहीं, इनके अंकन में विविधता है। दक्षिणी मंदिर का कलश मणिबंध द्वारा दो भागों में विभाजित है (चित्र ४, ५)। वेदिबन्ध के ऊपर मंचिकाश्रित जंघा है, जिसके ऊपर पतला कुमुद है। जंघा का भद्र-खत्तक सकरा एवं गहरा है, जिसमें कायोत्सर्ग मुद्रा में जिन मूर्ति स्थापित है। छाद्यकी के ऊपर इल्लिकावलण-तोरण है जिसके मध्य पद्मासनासीन एवं ध्यान मुद्रा में स्थित जिन प्रतिमा है। दक्षिणी मन्दिर का भद्र-खत्तक अपेक्षाकृत ज्यादा चौड़ा है तथा इसमें पर्यंकासनस्थ जिन अंकित है जिसके दोनों ओर चामरधारिणी व ऊपर हाथी का अंकन है। ऊपर इल्लिकावलण के मध्य ध्यानस्थ जिन के दोनों ओर चामरधारिणी और किन्नरों का अंकन है। मन्दिर के कर्ण एवं कपिली पर अष्टदिक्पाल यथास्थान विद्यमान है। मन्दिर के उपभद्र तथा प्रतिरथ भाग पर मनमोहक अप्सराओं का अंकन है जिसमें दर्पणा किंवा शुचिस्मिता, सिंह या चक्री या तोते से खेलती नायिका, चाकू, ढाल या तलवार लिये सुरसुन्दरी, कर्पूरमन्जरी, नूपुर बाँधती अप्सरा, लीलावती, वल उतारती नायिका आदि प्रमुख है। दक्षिणी मंदिरों में शासनदेवी अम्बिका व पत्रलेखा अप्सरा खास उल्लेखनीय हैं। जंघा के अंगो के बीच में तापस व ऊपर हाथ जोड़े बैठे आराधक का अंकन है। अष्टदिक्पाल व अप्सरायें सपरिकर दिखाये गये है जिन के ऊपर दो स्तरवाले उद्गम है जिनके दोनों ओर कोने पर बैठे हुए बन्दर का अंकन है। उद्गम, ऊपर आनेवाली ग्रासपट्टिका को काटता है जिसके ऊपर कर्णिकायुक्त भरणी एवं विद्याधरपट्टिका है। जंघा का वरण्डिका भाग के ऊपर क्रम में खुरछाद्य उपस्थित है। उत्तरी मन्दिर का शिखर भाग अपेक्षाकृत अधिक सघन है, जो चातुरंग मूलमंजरी, तीन ऊर:मंजरी, प्रतिरथ एवं कर्ण पर दो-दो नवाण्डक कर्मों, जिनके ऊपर एक श्रृंग, कोणिका पर दो-दो कूट_गों व एक तिलक, कोणिका व प्रतिरथ के मध्य भाग पर दो-दो नषश्रृंगों व एक श्रृंग से मिलकर बना है। कोणिका पर कूटशृंग के ऊपर प्रत्यंग है। पूर्वी भाग पर निचली ऊर:मंजरी का स्थान शुकनास ने लिया है। दक्षिणी मंदिर पर नषश्रृंगों के स्थान पर व्यालों का अंकन है। यहाँ पर त्रि-अंग मूलमंजरी व प्रत्यंग अपेक्षाकृत ज्यादा बड़ा है। कर्ण पर दो नवाण्डक कर्मों के ऊपर एक श्रृंग है जबकि प्रतिरथ पर इसका स्थान तिलक ने लिया है (चित्र ५, ६)। दोनों ही मंदिरों के भद्र भाग पर निवली ऊर:मंजरी के नीचे रथिका के ऊपर छोटी रथिका विद्यमान है जिसमें जैन देवियों का अंकन है। नीचे वाली रथिका में दोनों और चामरधारिणी स्त्रियाँ है। दोनों मंदिरों के ऊर:मंजरी के कलश से ऊपर का भाग आधुनिक है, जिसका नवीनीकरण श्वेताम्बर ट्रस्ट द्वारा १९४२ में किया गया। दोनों ही मंदिरों के कपिली व गूढमंडप, मूलप्रासाद की भांति पीठ व मण्डोवर से मिलकर बने है। कपिली के छाद्य के ऊपर दो श्रृंगों का अंकन है जबकि गूढमंडप के छाद्य व उससे ऊपर का भाग अर्वाचीन है। गूढमंडप का भद्र व कर्ण भाग मूलप्रासाद के मुकाबले ज्यादा चौड़ा है। भद्र भाग की अपेक्षाकृत ज्यादा चौड़े खत्तक पर पत्थर की जाली है! भद्र-खत्तक के खुरछाद्य के ऊपर इल्लिकावलण है, जिसके मध्य पशासन में बैठे हुए जिन का अंकन है एवं इनके दोनों ओर चौरीधारिणी नारियों का अंकन है। गूढमंडप के वेदिबंध व जंघा भाग पर ज्यादातर अंकन भद्दा व बाद का है। उत्तरी मंदिर के गूढ़मंडप भाग पर मूर्तिकला का काम अपेक्षाकृत कम है। दोनों मंदिरों के गूढ़मंडप के कर्णभाग पर चतुर्भजी दिक्पालों का अंकन सपत्नीक हुआ है। उत्तरी मन्दिरों में दिक्पाल के ऊपर उद्गम पर चतुर्भुजी सुखासना देवी का अंकन है। दक्षिणी मंदिर के गूढमंडप के जाइयकुंभ पर एक दूसरे की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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