Book Title: Chittodgadh ke 2 Uttar Madhyakalin Jinalaya
Author(s): Atul Tripathi
Publisher: Z_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf

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Page 1
________________ चित्तौड़गढ़ के दो उत्तर-मध्यकालीन जिनालय अतुल त्रिपाठी राजस्थान के प्राचीन मेवाड़ प्रदेश में दक्षिण-पूर्व स्थित चित्तौड़गढ़, प्राचीन चित्रकूट, न केवल त्याग, बलिदान, एवं राजपूत शौर्य की भूमि रही बल्कि यह जैन दर्शन एवं कला केन्द्र के रूप में भी विकसित रहा। चित्तौड़ दुर्ग का जैन तीर्थ-स्थल के रूप में उल्लेख प्राचीनकाल से ही मिलना आरम्भ होता है। प्राक्-मध्यकाल व मध्यकाल में यह क्षेत्र जैन धर्म का मानों पर्याय ही बन गया। हरिभद्र सूरि (प्राय: ई० ७००-७८५), जिनवल्लभ सूरि (प्राय: ई० १०७५-१९१९) आदि जैन विद्वद मुनियों के यहां निवास करने के प्रमाणभूत उल्लेख मिलते हैं। यह क्षेत्र अधिकतर श्वेताम्बर प्रभावित प्रतीत होता है। उत्तर-मध्यकालीन श्वेताम्बर स्रोतों के अनुसार राजा अल्लट के समय दिगम्बरों व श्वेताम्बरों के बीच हुए विवाद में श्वेताम्बर आचार्य प्रद्युम्नसूरि विजित हुए। काष्टासंघ के लाट-बागड़ संघ की गुर्वावली के अनुसार चित्तौड़ के (गुहिलवंशीय) राजा नरवाहन (प्राय: ई० ९७१) के समय में मुनि प्रभाचन्द्र द्वारा दुर्जेय शैवों को पराजित करने का उल्लेख है। यहां दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों से संबंधित मन्दिरों का निर्माण, विशेषकर उत्तर-मध्यकाल में हुआ। चित्तौड़ दुर्ग में सातबीस देउरी के पूर्व की ओर स्थित दो पास पास में खड़े जिनालयों का, जो उत्तर एवं दक्षिण दिशा में एक दूसरे से समानान्तर हैं, स्थापत्य एवं शिल्प-कला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। बलुए पत्थर से निर्मित ये दोनों मन्दिर (चित्र १, २) पूर्वाभिमुख है जो एक ऊँची जगती पर स्थित हैं। दोनों मन्दिरों में इतना साम्य है कि एक निगाह में भिन्नता कर पाना मुश्किल कार्य है। दोनों मन्दिरों के साम्य को देखते हुए प्रस्तुत लेख में उत्तरी मन्दिर का वर्णन किया गया है व दक्षिणी मन्दिर में जो भिन्नता है उसी का उल्लेख किया गया है। दोनों ही मंदिर में मूलप्रासाद, गूढ़मंडप, नौचौकी व उससे लगा आगे की ओर चबूतरा है। चबूतरे के उत्तरी, दक्षिणी एवं पूर्वी-मध्य भाग पर सीढ़ियाँ हैं, दक्षिणी मंदिर के पूर्वी सोपान के निकट दो उच्चालक स्तंभो के मध्य आंदोल-तोरण लगा है। ___मंदिर का मूलप्रासाद उदय में पीठ, मण्डोवर व शिखर में विभाजित है। (चित्र ३, ४)। पीठ भाग पुन: तीन भिट्ट जिसमें बीचवाले पर अर्द्धरत्न, तदुपरि भिट्ट पर अर्द्धपद्म अंकित है। तत्पश्चात् जाड्यकुंभ, कर्णक, छाद्यकी एवं ग्रासपट्टी में विभाजित है। जाड़यकुंभ की फलनाओं पर पत्तियों का अंकन है एवं ग्रासपट्टिका के भद्र भाग में लुम्बिका निकली हुई है। मूलप्रासाद का मण्डोवर वेदिबंध, जंघा व वरण्डिका में विभाजित है। वेदिबंध खुर, कुंभ, कलश, अन्तरपट्ट, कपोतपाली इन पांच घटकों में समाविष्ट है। खुर में हंसो की जोड़ी का अंकन है जो दक्षिणी मन्दिर में दो-दो जोड़ी के रूप में है। कुंभ अर्द्धरत्न से अलंकृत है एवं मध्य में मणिबन्ध द्वारा दो भागों में विभाजित है और ऊपरी स्कन्ध भाग पद्म पंक्ति से आभूषित किया गया है। कुंभ के सुभद्र भाग पर ललितासन में विद्यादेवियों एवं यक्षियों का अंकन है। प्रतिरथ के खुरभाग के ऊपर उद्गम है, लेकिन देवी का अंकन नहीं है। दक्षिणी मन्दिर के प्रतिरथ पर भी चामरधारिणी सहित विद्यादेवियों एवं यक्षियों का अंकन है। दक्षिणी मन्दिर के कुंभ पर मणिबंध के ऊपर पतली कर्णिका का अंकन * मैं श्रद्धेय गुरुवर प्रा० एम० ए० ढाकी, निदेशक (शोध) अमेरिकन इंस्टिट्यूट आफ इंडियन स्टडीज, रामनगर, वाराणसी, का विशेष आभारी हूँ, जिन्होनें न केवल लेख का शीर्षक सुझाया बल्कि मार्गदर्शन प्रदान कर लेख लिखने को प्रेरित किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

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