Book Title: Chikitsaya Jyotish ke Kshetra me jain Sahitya ka Yogadan
Author(s): Gyanchandra Jain
Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf

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Page 3
________________ जापोंके तिये सलाह दी गई। ऐसा करनेपर लाभ हआ। दन्त पातन रुक गया एवं अन्य लक्षणोंका भी शमन हुआ। रोगी सामान्य जीवन यापनमें सक्षम हो गया। अग्निमांद्य शेष है जो भविष्यके उपचारके निर्देश का सूचक है / इसप्रकार अन्य 15 रोगियोंकी चिकित्सामें इस विधिका सफल प्रयोग किया गया है। इस प्रकारके अवलोकनसे यह स्पष्ट है कि ग्रहोंका व्याधियोंसे सम्बन्ध हैं। इस सम्बन्धमें विस्तृत अध्ययनके लिये ज्योतिषशास्त्रके विभिन्न प्रामाणिक ग्रन्थोंका अध्ययन तथा तदनुरूप प्रयोग करना उपयोगी होगा। इस विषयमें महावीराचार्यका ज्योतिषपटल, श्रीधराचार्यकी ज्योतिनिविधि, दुर्गदेवका रिट्ठसमुच्चय, नरचन्द्रका ज्योतिषप्रकाश आदि ग्रन्थोंके गम्भीर विलोकनकी आवश्यकता हैं / उपरोक्त प्रयोगसे प्रतीत होता है कि ज्योतिषविज्ञानके सहयोगद्वारा रोगोन्मूलनमें अपेक्षाकृत अधिक शीघ्र सफलता प्राप्त होगी। यदि ग्रह प्रभाव मन्दस्वरूपका है, तो रोग शमन शीघ्र होगा / यदि ग्रह प्रकोप अधिक है, तो अधिक सक्रिय उपचारसे लाभ होगा। उग्र ग्रह प्रकोप होनेपर उपचार प्रयासोंद्वारा कमसे कम व्याधि या वेदनामें मन्दता तो लायी ही जा सकेगी। जन्मांग अध्ययनद्वारा भविष्यमें उत्पन्न होनेवाली व्याधिकी पूर्व सूचना प्राप्त होनेपर उसके प्रतिबन्धक उपायों द्वारा अनागत बाधा प्रतिबन्ध जैसे पक्षकी ओर भी अग्रसर हुआ जा सकेगा। यह आशा करनी चाहिये कि चिकित्सीय क्षेत्रमें जैन साहित्यमें वर्णित ज्योतिष विज्ञानके सहयोगसे रोगोन्मूलक एवं रोगप्रतिबन्धक कार्यामें सफलता प्राप्त करनेके लिये पूजाओं और जपोंकी उपयोगिताका अध्ययन एक रोचक एवं ज्ञानवर्धक विषय प्रमाणित होगा। लेखक तो इस विषयके अध्ययनका प्रारम्भ मात्र कर रहा है। - 416 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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