Book Title: Chikitsa ke Prati Samaj Sanskrutik Upagam Author(s): Ramnarayan, Ranjankumar Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf View full book textPage 2
________________ - यतीन्दसूरिस्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्मभ्रष्टाचार, सामाजिक अत्याचार व मानसिक विकार एक प्रकार चिकित्सा एवं ध्यानयोग से अपरिहार्य ही हैं तथा जिसमें मानव समाज के अधिकांश भाग को, अपरिहार्य रूप से गरीबी, महँगाई, भखमरी बीमारी (1) भावातीत ध्यान (Transcendental Meditation) अभाव, मिथ्या अकाल व काल की निरंतर काली छाया में रहने तनाव मुक्ति (Tension-reduction or relaxation) की को ही विवश रहना पड़ता है। अतः इस संबंध में यहाँ तर्कसंगत यह एक ऐसी महत्त्वपूर्ण विधि है, जिसके अंतर्गत व्यक्ति एक रूप से यह प्रश्न उठता है कि क्या इस आदिमकालिक समाज ऐसी सीधी परंतु शिथिल ध्यानआसन की स्थिति में बैठा होता सांस्कृतिक व्यवस्था की निजी सम्पत्ति जैसी अति जर्जर व है, जिसमें संबंधित व्यक्ति के मन (अथवा मस्तिष्क के चिंतन भ्रष्टाचारजन्य सामाजिक संस्था के उन्मलन, अथवा इसमें गंभीर संबंधी केन्द्रों) पर न तो किसी प्रकार का भार रहता है और न संशोधन की आवश्यकता नहीं है? इस संबंध में यहाँ यह भी तनावशील नियंत्रण ही रहता है। वस्तुतः यह ध्यान (Meditaदेखा जाना आवश्यक है कि मानवसमाज में मानव के मल tion) की ऐसी शारीरिक व मानसिक स्थिति होती है, जिसमें अधिकारों के दमन व शोषण तथा सामाजिक अत्याचार व व्यक्ति का तंत्रिका तंत्र व्यावहारिकतः शिथिल तथा निष्क्रिय भ्रष्टाचार के लिए राजनीतिक स्तर पर सामान्यवाद व उपनिवेशवाद ही बना रहता है, परंतु इस प्रक्रम में वह प्रायः एक मंत्र का कहाँ तक उत्तरदायी हैं? अपने मन में कुछ उच्चारण व जाप अवश्य करते रहता है। निजी सम्पत्ति की प्रचीन संस्था में व्यापक परिवर्तन इस भावातीत ध्यान की स्थिति के सुबह व शाम के अभ्यास से एक तनावग्रस्त व्यक्ति कुछ ही दिनों में अपने की आवश्यकता-- मानसिक तनाव से मुक्त होते देखा जाता है। वस्तुत: भावातीत वस्तुतः स्थायी मानसिक चिकित्सा व मानसिक स्वास्थ्य ध्यान की स्थिति में व्यक्ति की विचार की गति, श्वास की गति के लिए वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था पर आधारित प्रत्येक राष्ट्र व नाड़ी की गति भी एकदम शिथिल पड़ जाती है। इस स्थिति में को अपनी ऐतिहासिक व राजनीतिक पृष्ठभूमि में भारी परिवर्तन व्यक्ति को पसीना भी कम ही आता है, जो कि प्रायः शारीरिक अथवा आमूल परिवर्तन की आवश्यकता जान पड़ती है, क्योंकि दृष्टि से, इस सत्य की ओर संकेत करता है कि व्यक्ति इस व्यापक रूप से संसार में एक प्रकार से मूलदुश्चिन्ता की स्थिति में पूर्णतः विश्रामदायक व शांतिदायक मुद्रा में है। वस्तुतः कुण्ठाकारक व विकासजन्य स्थिति समाजवादी व्यवस्था वाले भावातीत ध्यान की ऐसी स्थिति के निरंतर अभ्यास से एक राष्ट्रों में प्रायः देखने को नहीं मिलती। निश्चिततः यहाँ इस कथन व्यक्ति अपने उत्तेजनशीलता, आक्रामकता, विरोध, अवसाद व का यह उद्देश्य कदापि नहीं है कि वर्तमान लोकतांत्रिक व उन्माद आदि भावों से कुछ ही समय पश्चात् मुक्त होते देखा पूँजीवादी व्यवस्था के स्थान पर समाजवादी व्यवस्था का अंधा जाता है। अनुकरण किया जाए, परंतु यहाँ यह समझना है कि पूँजीवादी तनावमुक्ति की इस पद्धति के प्रतिपादक महर्षि महेश समाजों की वर्तमान सामाजिक व्यवस्था ही अनेक मानसिक योगी हैं। आधुनिक काल में यह पद्धति न केवल भारतवर्ष में, व्याधियों की जननी है, क्योंकि इसके अंतर्गत अनेक निजी बल्कि विदेशों के अनेक बड़े नगरों जैसे लॉस एंजिल्स, कनाडा, सम्पत्ति व विशेषाधिकारों जैसी लगभग आदिकाल की संस्थाओं साउथ अफ्रीका आदि में भी अधिक उपयोगी सिद्ध हुई है तथा को जो कि इस आधुनिक युग में अपनी जर्जर अवस्था में पहुँच इस कारण इसके प्रचलन में नित्य वृद्धि होती जा रही है। गई हैं, इस युग में उन्हें स्थिर रखना, सामाजिक न्याय की दृष्टि से कहाँ तक उचित व न्यायसंगत है। स्पष्टतः इसमें व्यापक स्तर । (ii) योग चिकित्सा (Yoga Therapy)- मूलरूप से इस पर आमल परिवर्तन की ऐतिहासिक आवश्यकता है व इसमें चिकित्सा पद्धति के प्रतिपादक महर्षि पतञ्जलि है, जिन्होंने व्यापक परिवर्तन लाने से ही मानव समाज अनेक भ्रष्ट विचारों, लगभग ईसा से ४०० वर्ष पूर्व इसका सूत्रपात किया था। इस मिथ्या विश्वासों, भ्रामक लालसाओं व दूषित तथा विकारजन्य । चिकित्सा-पद्धति की मूल अवधारणा यह है कि जब तक व्यक्ति प्रभावों से मुक्त हो सकता है। का मन व व्यवहार उसके पर्यावरण के प्रभाव के कारण दृषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8