Book Title: Chahe to Par Karo
Author(s): Vairagyarativijay
Publisher: Pravachan Prakashan Puna

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Page 8
________________ परत्थकरणं च मैं परोपकार के कार्य निरन्तर करूं। सुहगुरुजोगो मुझे शुभ गुरु का योग हो। फूल काँटे अपने पास रखते हैं और परिमल अन्य को देते हैं। वृक्ष धूप और ताप स्वयं सहन करता है लेकिन अन्य को छाँव देता है। सरिता खुद सागर में समाकर खारी हो जाती है परन्तु दूसरों को मीठा जल ही देती है। प्रकृति हर चीज में परार्थभाव ही दिखाई देता है । एक मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जो लगातार अन्य को लूटता रहता है। मानव के पास दूसरों को देने के लिए दो मूल्यवान भावनाएँ है: सद्भाव और सहानुभूति । लेकिन कुछ देने की बात मनुष्य का मस्तिष्क स्वीकार ही नहीं करता। हे परमात्मा ! परार्थभावना के अभाव से दूसरों का अस्तित्व स्वीकारने के लिए भी मैं तैयार नहीं हूँ। इसी कारण मैं अन्य से अलग हो गया हूँ। मेरे जीवन की सभी यातना का मूल यही है: दूसरों की उपेक्षा करना और दूसरों से अपेक्षा रखना। नदी पर्वत से ही निकलती है, लेकिन जैसे जैसे सागर के समीप पहुँचती है -१८ वैसे वैसे विशाल होती जाती है। इतना ही नहीं, किनारों पर हरियाली फैला देती है। पर्वत जैसे जैसे ऊँचा जाता है, वैसे वैसे संकुचित होता जाता है। इसलिए तो पर्वत पर कुछ पैदा नहीं होता है। हे प्रभु ! मेरी आपसे नम्र अरज है कि पर्वत जैसे अभिमान और संकोचवृत्ति को दूर करके विशालहृदया नदी की तरह मुझे भी विशाल हृदय का स्वामी बनाना । हम न सोचे हमे क्या मीला है हम ये सोचे किया क्या है अर्पण फूल खुशियों के बांटे सभी को अपना जीवन ये बन जाये मधुबन अपनी करुणा का जल तूं बहा दे कर दे पावन हर एक मन का कोना..... इतनी शक्ति हमें देना दाना । राजा के महल में ध्वजा और कालीन के बीच चर्चा हुई। ध्वजा ने फरियाद के सूर में कालीन से कहा "तुम कितनी सुखी हो ! है कोई तुम्हें तकलीफ ? तुम तो महल के मुख्य दीवानखण्ड में आराम से पड़ी रहती हो । कहीं जाना नहीं और कुछ करना भी नहीं । मुझे तो सारा दिन हवा के झोंके लगे रहते हैं। गर्मी और ठंडी भी सहन करनी पड़ती हैं। जब भी युद्ध होता है, तो मुझे सबसे आगे रहना पड़ता है।" कालीन ने उनका उत्तर देते हुए कहा : "ध्वजाबहन ! सच कहुँ ? आपके दुःख का और मेरे सुख का मुझे तो सिर्फ एक ही कारण दिखाई देता है। आपको तो सबकी उपर और सबसे आगे रहना ही अच्छा लगता है। इसलिए आप दुःखी हो । मैं सबके पग के नीचे ही रहती हूँ, इसलिए ही सुखी हूँ।" हे परमात्मा ! इस जगत में सबको महान बनना अच्छा लगता है लेकिन महत्ता का मूल्य चुकाने की किसी की तैयारी नहीं है। -१९

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