Book Title: Bramhand Adhunik Vigyan aur Jain Darshan Author(s): B L Kothari Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 3
________________ १८२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खाउ ................................................... -.-. -.-.-.-.-. -. -. -. विशाल अणु हो, घनीभूत पदार्थ समूह हो या उन्मुक्त नाइट्रोन हो। यह भी सम्भव है कि वह पदार्थ शक्ति या किसी अन्य रूप में हो । वह पदार्थ क्या था जिससे विशाल अणु अस्तित्व में आया, जिसमें विस्फोट होने से वर्तमान ब्रह्माण्ड की रचना हुई, तथा विशाल अणु का निर्माण करने वाले पदार्थ का भी उससे पूर्व कोई रूप रहा होगा। वह रूप क्या था एवं कब अस्तित्व में आया ? इन प्रश्नों पर सभी वैज्ञानिक मौन हैं। ब्रह्माण्ड-रचना के आदितत्त्व पर विचार करते-करते अतीत की गहराइयों में प्रविष्ट होते जाते हैं व किसी किनारे पर नहीं पहुँच पाते। अत: विश्व-उत्पत्ति की वर्तमान धारणाएँ अत्यन्त संकुचित रह जाती हैं । विश्व-उत्पत्ति उपरोक्त सम्बन्धी धारणाओं की यह भी मान्यता है कि विश्व का एक दिन अवश्य ही अन्त होगा क्योंकि जिस वस्तु की उत्पत्ति निश्चित है उसका अन्त भी निश्चित है । लेकिन यह अन्त कब व कैसे होगा तथा ब्रह्माण्ड स्थित समस्त पदार्थ क्या अस्तित्वहीन हो जायगा इस विषय पर भी प्रायः वैज्ञानिक मौन हैं। सिर्फ ताप-गति-विज्ञान के द्वितीय नियम के आधार पर 'ब्रह्माण्ड की एक दिन निश्चित समाप्ति' का विवरण मिलता है। ताप-गति-विज्ञान का द्वितीय नियम यह प्रतिपादित करता है कि विश्व के समस्त पदार्थ एक ही दिशा में--विनाश की ओर गति कर रहे हैं। सूर्य का ताप धीरे-धीरे घट रहा है । तारे बुझने वाले अंगारे बन रहे हैं। पदार्थ ताप एवं प्रकाश में बदलता जा रहा है और शक्ति (ताप या प्रकाश) शून्य में विलीन हो रही है । ताप-गति-विज्ञान का यह नियम अचल एवं सन्देह से परे है। हम देखते हैं कि ताप सदा उच्च अंश से निम्न अंश की ओर प्रवाहित होता है---इस दृष्टि से अधिक तापयुक्त पदार्थ निम्न तापयुक्त पदार्थ को उष्मा प्रदान करते हैं । इस प्रक्रिया से एक दिन ऐसा आ सकता है कि विश्व-स्थित समस्त पदार्थों का तापमान एक समान हो जायगा। तब ताप का प्रवाह रुक जायगा क्योंकि विश्व के पदार्थों में तापान्तर होगा ही नहीं । विश्व में सर्वत्र समान उर्जा, समान प्रकाश व समान शक्ति का वितरण होगा। ऐसा होने पर विश्व की सभी गतियाँ व व्यवस्थाएँ रुक जायंगी, विश्व गतिहीन-निर्जीव हो जायेगा--एक प्रकार से विश्व का अन्त हो जायगा। विश्व-स्थित सभी पदार्थों का तापमान एक समान होने से विश्व गतिहीन हो जायगा क्या यह मान्यता युक्तिसंगत है ? ताप के क्षय का यह नियम हमारी पृथ्वी के वर्तमान पर्यावरण में लागू होता है, ब्रह्माण्ड के अन्य क्षेत्रों में भी यह नियम इसी रूप में लागू हो यह आवश्यक नहीं; क्योंकि वहाँ की प्राकृतिक परिस्थितियाँ भिन्न हो सकती हैं। प्रकृति के सन्तुलन नियम के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यदि ब्रह्माण्ड के एक भाग में पदार्थ शक्ति में बदलकर शून्य में बिखर रहा है तो कहीं दूसरे भाग में पुन: एकत्रित होकर पदार्थ में बदल रहा हो। "पदार्थ व शक्ति की सुरक्षा का नियम" यह बताता है कि पदार्थ, शक्ति में व शक्ति पुन: पदार्थ में परिवर्तित की जा सकती है । पदार्थ व शक्ति दो भिन्न वस्तु नहीं है। प्रयोगशाला में ताप को पुनः पदार्थ में बदलना सम्भव हुआ है। अवश्य ही ब्रह्माण्ड के किसी कोने में भिन्न परिस्थितियों में ताप या शक्ति से नवीन पदार्थ की रचना सम्भव है। पदार्थ अविनाशी है तो विश्व भी अविनाशी है यह मानना अधिक युक्तियुक्त है। विश्व की निश्चित आदि व अन्त के सिद्धान्तों के विपरीत विश्व अनादि व अनन्त है-भूतकाल में ऐसा कोई समय नहीं था जब विश्व नहीं था, भविष्य में ऐसा कोई समय नहीं आयेगा जब विश्व का अस्तित्व मिट जायगा, यह मानने वालों में केलिफोनिया इन्स्टीट्यूट के डा० टालमेन का कथन है कि विश्व की रचना परवलीय है। वर्तमान में इसका विस्तार हो रहा है जो असंख्य वर्षों तक होता रहेगा। फिर इसका एक बार संकुचन होगा। इसमें भी असंख्य वर्ष लग जायेंगे । अन्य वैज्ञानिकों के अनुसार वर्तमान विश्व विस्तार व संकुचन अथवा पदार्थ के रूप परिवर्तन के अनन्तअनन्त दौर से गुजरा है व गुजरता रहेगा। पदार्थ शक्ति में व शक्ति पदार्थ में बदलती रहेगी-विश्व सदा अविनाशी बना रहेगा। इसी सन्दर्भ में डा० फेड व्हिप्ले की मान्यता है कि वर्तमान में अन्त:नक्षत्रीय क्षेत्र में विचरण कर रहा समस्त सूक्ष्म-अदृश्य पदार्थ पन्द्रह अरब वर्षों में जमकर तारे बन जायेंगे। अजर-अमर विस्तारमान् विश्व के प्रबल समर्थक डा० फेड होयल की स्थायी अवस्था का विश्व सिद्धान्त प्रसिद्ध एवं बहुचर्चित है। उनका कथन है कि विश्व का सतत विस्तार हो रहा है। आज से २० अरब वर्ष पूर्व ब्रह्माण्ड Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7