Book Title: Bramhand Adhunik Vigyan aur Jain Darshan
Author(s): B L Kothari
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ ब्रह्माण्ड : आधुनिक विज्ञान और जैन दर्शन - श्री बी० एल० कोठारी (व्याख्याता-भूगोल, आर. एम. वी. सूरजपोल अन्दर, उदयपुर) विगत चालीस वर्षों में अन्तरिक्ष विज्ञान में जो अन्वेषण-कार्य हुए हैं उनसे ब्रह्माण्ड की रचना, विस्तार एवं कार्यप्रणाली सम्बन्धी बहुत से नये रहस्य उद्घाटित हुए हैं। अतिस्पन्दनशील वर्णपट्टमापक, रेडियो, टेलिस्कोप आदि यन्त्रों की सहायता से तथा प्रायोगिक भौतिकी के निष्कर्षों व गणितीय सूत्रों द्वारा ब्रह्माण्ड सम्बन्धी नये तथ्य प्रकट हुए हैं जिनके आधार पर यह धारणा बना लेना अनुचित नहीं है कि अन्तरिक्ष सम्बन्धी पहेली का समाधान बहुत कुछ ढूंढ़ लिया गया है । लेकिन यदि कोई जिज्ञासु अन्तरिक्षविदों व भौतिक विज्ञान के निष्कर्षों का अध्ययन करे तो उसे निराशा ही हाथ लगेगी। ये निष्कर्ष इतने भिन्न-भिन्न एवं परस्पर विरोधी हैं कि इस से पहेली सुलझने के बजाय और उलझती प्रतीत होती है। यन्त्रों द्वारा अध्ययन के प्रति भी अविश्वास उत्पन्न होता है। विश्व क्या है ? इसका प्रारम्भ कब हुआ? इसका विस्तार कितना है आदि प्रश्न आज भी उतने ही अनुतरित हैं जितने शताब्दियों पूर्व थे। ज्योतिविदों के निष्कर्षों में परसर कितना वैषम्य है, यह कतिपय उदाहरणों से ज्ञात हो सकता है। जैसे हमारा सौरमण्डल प्रति सैकण्ड सात मील (प्रति घण्टा २५००० मील) की गति से स्थानीय नक्षत्र प्रणाली की परिक्रमा कर रहा है, यह माना जाता रहा है किन्तु अब यह माना जाता है कि परिक्रमण की यह गति प्रति सैकण्ड तेरह मील है। इसी तरह इस पुरानी मान्यता के विपरीत कि स्थानीय नक्षत्र प्रणाली भी प्रति सैकण्ड २०० मील की गति से आकाश-गंगा के अज्ञात केन्द्र की परिक्रमा कर रही है, सन् १९७४ में अमेरिकन ज्योतिविदों ने दावा किया है कि यह गति प्रति सैकण्ड ६०० मील (प्रति घण्टा बीस लाख मील) है। विश्व की उत्पत्ति व आयु के सम्बन्ध में भी वैज्ञानिक उपलब्धियों में पर्याप्त विषमता है। एक धारणा के अनुसार विश्व की उत्पत्ति ५० करोड़ वर्ष पूर्व हुई, दूसरी धारणा के अनुसार आज से १५ अरब वर्ष पूर्व हुई । इसी तरह विश्व अजन्मा व अविनाशी है अर्थात् अजर-अमर है, के विरुद्ध निश्चित समय पूर्व उत्पत्ति व निश्चित समय पर विनाश की मान्यता प्रचलित है। विश्व असीम है, विश्व ससीम है आदि वैषम्य प्रमुख वैज्ञानिकों व ज्योतिर्विदों में आज भी विवाद का विषय बने हुए हैं। वैज्ञानिक प्रयोगों पर आधारित निष्कर्षों में विभिन्नता होनी नहीं चाहिये फिर भी ऐसा क्यों ? जिन यन्त्रों द्वारा अन्तरिक्ष का निरीक्षण किया जाता है उनकी अपनी सीमाएँ हैं। आज का श्रेष्ठ से श्रेष्ठ दूरदर्शक यन्त्र भी ८ अरब प्रकाश वर्ष स्थित ज्योतिर्मालाओं से परे नहीं देख सकता। भविष्य में और अधिक उन्नत दूरदर्शक यन्त्रों की सहायता से अन्तरिक्ष के नये क्षेत्र दृष्यगम्य होंगे तब पुरानी मान्यताएँ बदलनी पड़ेंगी। यही हाल वर्णपट्टमापक यन्त्रों का है । इनकी संवेदनशीलता में वृद्धि किये जाने पर अवश्य ही अन्तरिक्ष के नये तथ्य प्रकट होंगे। अधिकांश भौतिक प्रयोग और उनके निष्कर्ष हमारे धरातल व वायुमण्डल में सम्पादित होते हैं जो इनकी परिस्थितियों व कार्यप्रणालियों पर निर्भर हैं जबकि यह स्पष्ट हो चुका है कि दूरस्थ ज्योतिर्माला प्रदेशों की परिस्थितियां व कार्यप्रणालियाँ हमारे धरातल से भिन्न प्रकार की हैं; वहाँ की रचना, घनत्व, गतियाँ व पदार्थ भिन्न प्रकार के हैं । ऐसी स्थिति में यहाँ के भौतिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7