Book Title: Bramhacharya Sadhna Ka Sarvoccha Shikhar
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf

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Page 4
________________ कि सात्विक गुणों की साधना करने वाले के लिए सात्विक भोजन की नितान्त आवश्यकता है। सात्त्विक भोजन हमारी साधना का मूल आधार है। _ मनुष्य के जीवन की उन्नति तब होती है, जब वह प्राकृतिक रूप से मिलने वाले भोजन से अपने आपको पुष्ट करता रहे। मृदुता, सरलता, सहानुभूति, शान्ति और इनके विपरीत उग्रता, क्रोध, कपट एवं घृणा आदि सब मानव-प्रकृति के गुण-दोष प्रायः भोजन पर ही निर्भर करते हैं। जो व्यक्ति उत्तेजक भोजन करते हैं, वे संयम से किस तरह रह सकते हैं ? राजसी और तामसी आहार करने वाला व्यक्ति यह भूल जाता है कि राजस और तामस उसकी साधना में प्रतिकलता ही उत्पन्न करते हैं, क्योंकि भोजन का तथा हमारे विचारों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। भोजन हमारे संस्कार बनाता है, जिनके द्वारा हमारे विचार बनते हैं। यदि भोजन सात्विक है, तो मन में उत्पन्न होने वाले विचार सात्विक एवं पवित्र होंगे। इनके विपरीत, राजस और तामस भोजन करने वालों के विचार अशुद्ध और विलासमय होंगे। सात्विक भोजन : जो ताजा, रसयुक्त, हलका, सुपाच्य, पौष्टिक और मधुर हो, जिससे जीवन-शक्ति, सत्य, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति बढ़ती हो, उसे सात्विक भोजन कहा जाता है। सात्विक भोजन से चित्त की और मन की निर्मलता एवं एकाग्रता की प्राप्ति होती है। राजसिक भोजन : कड़वा, खट्टा, अधिक नमकीन, बहुत गरम, तीखा, रूखा, एवं जलन पैदा करने वाला, साथ ही दुःख, शोक और रोग उत्पन्न करने वाला भोजन राजसिक होता है। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव मन तथा इन्द्रियों पर पड़ता है। तामसिक भोजन : ____ मांस, मछली, अण्डे और मदिरा तथा अन्य नशीले पदार्थ तामसिक भोजन में परिगणित किए जाते हैं। इसके अतिरिक्त अधपका, दुष्पक्व, दुर्गन्धयुक्त और बासी भोजन भी तामसिक में है । तामसिक भोजन से मनुष्य की विचार-शक्ति मन्द हो जाती है । तामसिक भोजन करने वाला व्यक्ति दिन-रात आलस्य में पड़ा रहता है। इन तीन प्रकार के भोजनों का वर्णन 'गीता' के सतरहवें अध्याय में विस्तार से किया गया है। इन तीनों प्रकार के भोजनों में ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले के लिए सात्विक भोजन ही सर्वश्रेष्ठ बतलाया गया है। ... 'छान्दोग्य उपनिषद्' में कहा गया है कि आहार की शुद्धि से सत्व की शुद्धि होती है। सत्व की शुद्धि से बुद्धि निर्मल बनती है। स्मृति ताजा बनी रहती है। सात्विक भोजन से चित्त निर्मल हो जाता है, बुद्धि में स्फूति रहती है। ब्रह्मचर्य के भेद : मानव मन की वासना, इच्छा या कामना आध्यात्मिक नहीं, भौतिक शक्ति है। वह स्वतंत्र नहीं है, उसका नियंत्रण मनुष्य के हाथ में है। यदि मनुष्य उसे अपने नियंत्रण से बाहर नहीं जाने देता है, तो वह इन्सान का कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकती। आँखों का काम देखना है और अन्य इन्द्रियों के भी अपने-अपने काम है। ब्रह्मचारी की इन्द्रियाँ भी देखने, सुनने, सुंघने, चखने आदि के काम तो करती ही हैं, परन्तु वे उसके नियंत्रण से बाहर नहीं हैं, इसलिए वासना की आग उसका जरा भी बाल बाँका नहीं कर सकती। परन्तु जब मनुष्य का वासना पर से नियंत्रण हट जाता है, वह बिना किसी रोक-टोक के २६२ पन्ना समिक्खए धम्म -www.jainelibrary.org Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only

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