Book Title: Bramhacharya
Author(s): Narendravijay
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 3
________________ - यतीन्द्र सूरिस्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार सिद्ध अरिहंत मन में रमाते चलें। चम्पानगर में एक जिनदास श्रावक था। वह घोड़े पर संयत इंद्रियाँ जीवन में सखशांति और असंयत इंद्रियाँ पौषधशाला जाता, प्रवचन के बाद घर आता, फिर दुकान जाता अशांति का सृजन करती हैं। स्वामी शंकराचार्य ने तो इंद्रियों को और शाम को घर लौट आता। घोड़ा इतना सध गया था कि चोर से बढ़कर कहा हैं। चोर जिस घर में रहता है. उसमें चोरी पहली एड़ लगाते ही पौषधशाला, दूसरी में घर, तीसरी में दुकान नहीं करता। किन्तु ये इंद्रियाँ तो आत्मा के आश्रित रहकर भी और चौथी में वापस घर आ जाता। एक बार रात में चोर ने घोडा आत्मा को ही धोखा देती है और सख के स्थान पर उसे दःखों में चुराने के लिए खूटे से खोलकर उस पर सवार होकर एड़ लगाई ला पटकती हैं। अत: इंद्रियों को सदैव संयमित रखना चाहिये। तो वह पौषधशाला और दूसरी एड़ लगाई तो घर आ गया। फिर एड लगायी तो दुकान चला गया। चौथी एड़ में घर आ गया। ___मन का संयम बड़ा दुष्कर है, क्योंकि मन बड़ा चंचल है। चोर ने बहुत प्रयत्न किया पर घोड़ा तो पौषधशाला, दुकान और दस चंचल इस प्रकार हैंमनो मधुकरो मेघो, मानिनी मदनो मरुत्। घर के ही चक्कर काटता रहा। आखिर घोड़े को छोड़कर चोर मा मदो मर्कटो मत्स्यो, मकारा दश चंचलाः।। को भागना पड़ा। हमारा मन भी घोड़ा है। इसे इतना साध लें कि वह कुसंगति में जाये नहीं। मन को वश में करने से सब वश में योगी आनंदघनजी ने भी मन के विषय में कहा है हो जाते हैं। कहा भी गया हैकुन्थु जिन। मनड़ो किम ही न बाजे। ज्यों-ज्यों जतन करीने राखं, त्यों-त्यों अधिको भाजे॥ भाषा तो संयत भली, संयत भला शरीर। रजनी बासर बसती उजड़, गयन पयाले जाय। जो मन को वश में करे, वही संयमी वीर।। साँप खायने मुखड़ो, थोथो, ए उखाणो न्याय॥ संयम के चार भेद हैं- मनसंयम, वचनसंयम, कायसंयम मैं जाणु ए लिंग नपुसंक, सकल मरद ने ठेले। __ और उपकरणसंयम। मनसंयम बता चुके हैं। धीजी बातां समरथ के नर, एह ने कोई न ठेले॥ वचनसंयम का भी बड़ा महत्त्व है। जीभ एक है पर इसके अर्थात हे!, कुन्थुनाथ प्रभो! मन वश में नही होता है। काम तीन हैं। बोलना, खाना तथा स्पर्श करना। कहीं इसका जितना यत्न करता हूँ उतना ही अधिक भागता है यह रात-दिन दुरुपयोग न हो इसलिए इसे ३२ दाँतों के परकोटे में बंद करके बस्ती, उजाड़, आकाश, पाताल सर्वत्र जाता है। सर्प खाता है तो । रखा गया है फिर भी जीभ कहती हैभी उसका मुँह खाली ही रहता है। वैसे ही यह मन है। मैं जानता हूँ कि मन नपुंसक है, फिर भी यह सभी पुरुषों को हराने वाला तुम बत्तीस अकेली मैं, तुम में आऊँ-जाऊँ मैं। है। अन्य बातों में पुरुष समर्थ होते हैं, पर इसको कोई पराजित एक बात जो ऐसी कह दूं, बत्तीसी तुड़वाऊँ मैं।। नहीं कर सकता। तीन इंच की जीभ छह फुट के आदमी को मरवाने की किसी तांत्रिक ने एक भूत को वश में कर लिया। वह ताकत रखती है। द्रौपदी के एक वाक्य ने महाभारत करवा दिया भूत निरंतर काम चाहता था। यदि उसे काम न बताये तो उस था। अतः वाणी पर संयम रखना अत्यावश्यक है। कहावत हैतंत्रवादी पर आक्रमण कर सकता था। उसे जो भी काम 'बोलना न सीखा तो सारा सीखा गया धूल में कैसे बोलना बताया जाता वह क्षण भर में पूरा कर देता। तब उसने भत से चाहिये? इसका उत्तर ज्ञानियों ने यों दिया हैएक लंबा बाँस गाड़ने को कहा। फिर भूत से कहा कि जब 'सत्यं ब्रूयात्, प्रियं ब्रूयात् मा ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।' तक दूसरी आज्ञा न दूँ तब तक इसी पर चढ़ो और उतरो। अर्थात् सत्य बोले, प्रिय बोले, किन्तु जो सत्य होकर भी हमारा मन भी भूत है। उसे निरंतर कुछ काम चाहिये। उसे अप्रिय है. उसे न बोले। श्रावक को वाणी के आठ गण ध्यान में खाली रखोगो तो वह शैतान हो जायेगा। उसे सदैव ज्ञान, ध्यान, स्वाध्याय में लगाये रखें। अल्प आवश्यक मीठा चतुरा, मयनकारी, भाषा बोले। श्रावक सूत्र सिद्धांत न्याय से, सर्वहितैषी भाषा बोले। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7