Book Title: Bramhacharya
Author(s): Narendravijay
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 2
________________ यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ जैन-साधना एवं आचार है। यह तभी संभव है, जब संयमी सजग रहे, एक कवि ने क्या ही सुंदर कहा है काँटे हों या फूल, फर्क क्या पड़ता है बोलो। कुटिया हो या महल, आँख भीतर की खोलो।। माटी हो या स्वर्ण, जागना तो भीतर है। जो भीतर से जगा, , कौन उससे बढ़कर है। आपको जैसा सर्प का भय है, वैसा पाप का भय है क्या? घर में सर्प कुंडली मार कर बैठा हो तो नींद आयेगी क्या? कभी नहीं। दिमाग में भय का भूत सवार रहेगा। इसी प्रकार अपने अन्तर्कक्ष में विविध पाप रूपी सर्प कुंडली मारकर बैठे हैं। उन्हें हटाने का कभी विचार भी आता है क्या? जैसे सर्प से डरकर जागते रहते हैं वैसे ही पाप से डर कर अंदर से जाग्रत रहेंगे तो आत्मा में स्वस्थता, शांति और निश्चिन्तता आयेगी । मोटर ड्रायवर को मोटर चलाने का लायसेंस तभी मिलता है, जब वह जाग्रत, सावधान और ठीक ढंग से गाड़ी चलाने की परीक्षा दे देता है। ड्रायवर को आगे पीछे दायें, बायें सब तरफ से देखना होता है। ऐसे ही हमने यदि अपने जीवन की गाड़ी को पाप की दुर्घटना से क्षतिग्रस्त कर दिया तो मोटर चालक की भाँति अपना ही मनुष्य-जीवन का लायसेंस छीन लिया जायेगा । फिर निकट भविष्य में मोक्ष दिलाने वाला मनुष्य - भव मिलना कठिन हो जायेगा। अन्तर्जागरण के अभाव में दुष्प्रवृत्ति हो जाती है । भगवान् महावीर अपने पूर्व भव में त्रिपृष्ठ वासुदेव थे । उत्तम कुल था, वासुदेव का पद था, पर पद का अहंकार और राजसत्ता का मद उन्माद में ले गया। वे कर्णप्रिय संगीत के रसिक बने। शय्या पालक को आज्ञा दी कि जब मुझे नींद आ जाये तो संगीत बंद करवा देना। पर शय्यापालक स्वयं संगीत में इतना बेभान हो गया कि उसे पता ही न रहा कि महाराज कब सो गये हैं । सूर्योदय तक संगीत चलता रहा। जब महाराज जागे तो शय्यापालक से पूछा कि संगीत बंद क्यों नहीं करवाया? उसने निवेदन किया कि वह संगीत में इतना बेभान हो गया था कि उसे महाराज के निद्राधीन हो जाने का ध्यान ही न रहा । महाराज को इतना क्रोध आया कि शय्यापालक के कानों में उबलता हुआ शीशा डलवा दिया। उसी कर्म के विपाक स्वरूप Jain Education International ग्वाले ने महावीर के कानों में कीलें मारी थीं। कर्म किसी को हीं छोड़ता, चाहे वह तीर्थंकर ही क्यों न हो। कर्म को कोई शर्म नहीं है। आप लोग व्यावहारिक बातों में तो जाग्रत रहते है, किन्तु धर्म के विषय में अजाग्रत रहते हैं। घी खरीदते हैं, तो सूँघ कर, परीक्षा करके लेते हैं। एक घड़ा खरीदते हैं तो उसे बजाकर देख लेते हैं, कहीं फूटा न हो। कभी चखकर, कभी सूँघकर, कभी बजाकर माल लेते हैं, किन्तु अपने जीवन में कहीं गुण के बदले अवगुण तो गुण का रूप लेकर प्रवेश नहीं कर रहे हैं। इस बात का विचार नहीं करते। आजकल बाहर का प्रकाश बढ़ा है। अंदर का विचार-प्रकाश मंद हो रहा है। भरतजी की भाँति जागृति करनी चाहिये। उन्होंने तो वृद्ध श्रावकों को नियुक्त कर दिया था कि अन्तर्जागरण का संदेश देते रहें । तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है, 'कषाय-योग-निग्रहः संयमः ।' अर्थात्, कषाय और मन, वचन, काया के योगों का निग्रह करना संयम है। जिस प्रमाण में निग्रह हो उसी प्रमाण में संयम है। गृहस्थ का निग्रह कम हो जाता है अतः वह अल्पसंयमी है, जो पूर्ण निग्रह कर लेते हैं, वे अनुत्तर संयमी हैं। धवला टीका में कहा गया है- संयमनं संयमः ।' अर्थात् उपयोग को पर-पदार्थो से हटाकर आत्मसम्मुख करना, अपने में सीमित करना संयम है। उपयोग में स्वसम्मुखता - स्वलीनता ही संयम है। सम्यक्ज्ञान के आधार से स्वयं का स्वयं पर अनुशासन करना संयम है। 'आत्मनं प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्। " जो स्वयं की आत्मा के प्रतिकूल हो ऐसा व्यवहार दूसरों के साथ नहीं करना चाहिये। अंग्रेजी में भी कहावत है Do unto others, as you would have others do unto you. अर्थात् आप जैसा व्यवहार अन्य से चाहते हैं, वैसा ही व्यवहार स्वयं भी अन्य के साथ करें। संयम दो प्रकार का है- इन्द्रियसंयम और मनसंयम । पाँचों इंद्रियों को विशेषकर स्पर्श इंद्रिय को नियंत्रण में रखना, उन्हें विषयों में न जाने देना इंद्रियसंयम है। किसी ने कहा है इंद्रियों के न घोड़े, विषयों में अड़ें। जो अड़ें भी तो संयम के कोड़े पड़ें। तन के रथ को सुपथ पर चलाते रहें । १२ Janউমট For Private Personal Use Only Strande www.jainelibrary.org

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