Book Title: Bhed Vigyan Mukti ka Sinhdwar
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ भेद-विज्ञान : मुक्ति का सिंहद्वार सभी भारतीय विचारणाएँ इस सम्बन्ध में एक मत हैं कि अनात्म वरन् जिसके होने पर कानों में सुनने की शक्ति आती है।' इस प्रकार में आत्मबुद्धि, ममत्वबुद्धि या मेरापन ही बन्धन का मूल कारण है। हम देखते हैं कि उपनिषद् का ऋषि भी 'आत्म' या 'स्व' के बोध जो हमारा स्वरूप नहीं है, उसे अपना मान लेना- यही बन्धन है, को एक जटिल समस्या के रूप में ही पाता है। वास्तविकता तो यह इसलिए साधना के क्षेत्र में स्व-रूप का बोध आवश्यक माना गया। है कि यह आत्मा ही सम्पूर्ण ज्ञान का आधार है, उसे ज्ञेय कैसे बनाया जिस प्रक्रिया के द्वारा स्वरूप-बोध उपलब्ध हो सकता है, वह जैन जाए? तर्क भी अस्ति और नास्ति की विधाओं से सीमित है, वह विचारणा में भेद विज्ञान कही जाती है। आचार्य अमृतचन्द्रसूरि कहते विकल्पों से परे नहीं जा सकता, जब कि आत्मा या स्व तो बुद्धि हैं कि जो कोई सिद्ध हुए हैं, वे इस भेद-विज्ञान से ही हुए हैं और की विधाओं से परे है। आचार्य कुन्दकुन्द ने उसे नयपक्षातिक्रान्त कहा जो कर्म में बंधे हैं वे इसी भेद-विज्ञान के अभाव में बंधे हुए हैं। है। बुद्धि या तर्क भी ज्ञायक आत्मा के आधार पर ही स्थित है। वे भेद-विज्ञान का प्रयोजन आत्मतत्त्व को जानना है। साधना के लिए आत्मा के समग्र स्वरूप का ग्रहण नहीं कर सकते। आत्मतत्त्व का बोध अनिवार्य है। प्राच्य एवं पाश्चात्य सभी विचारक मैं सब को जान सकता हूँ, लेकिन उसी तरह स्वयं को नहीं आत्मबोध पर बल देते हैं। उपनिषद् के ऋषियों का सन्देश है कि जान सकता। शायद इसीलिए आत्मज्ञान जैसी घटना भी कठिन और आत्मा को जानो। पाश्चात्य विचारणा भी आत्मज्ञान, आत्मश्रद्धा और दुरूह बनी हुई है। वास्तविकता यह है कि आत्मतत्त्व अथवा परमार्थ आत्म-अवस्थिति को स्वीकार करती है। लेकिन 'स्व' को जानना अज्ञेय नहीं है, लेकिन वह उसी प्रकार नहीं जाना जा सकता जिस अपने-आप में एक दार्शनिक समस्या है, क्योंकि जो भी जाना जा प्रकार से हम सामान्य वस्तुओं को जानते हैं। निश्चय ही आत्मज्ञान सकता है, वह 'स्व' कैसे होगा? वह तो 'पर' का ही होगा। जानना अथवा परमार्थ-बोध वह ज्ञान नहीं है जिससे हम परिचित हैं। परमार्थ-ज्ञान तो 'पर' हो सकता है, 'स्व' तो वह है जो जानता है। 'स्व' ज्ञाता में ज्ञाता-ज्ञेय का सम्बन्ध नहीं है, इसीलिए उसे परम ज्ञान कहा गया है, उसे ज्ञेय (ज्ञान का विषय) नहीं बनाया जा सकता और जब तक है, क्योंकि उसे जान लेने पर कुछ भी जानना शेष नहीं रहता है; 'स्व' को ज्ञान का विषय नहीं बनाया जा सकता तब तक उसका ज्ञान फिर भी उसका ज्ञान पदार्थ-ज्ञान की प्रक्रिया से नितान्त भिन्न होता कैसे होगा? ज्ञान तो ज्ञेय का होता है, ज्ञाता का ज्ञान कैसे हो सकता है। पदार्थ-ज्ञान में विषय-विषयी का सम्बन्ध है, जबकि आत्मज्ञान में है? क्योंकि ज्ञान की प्रत्येक अवस्था में ज्ञाता ज्ञान के पूर्व उपस्थित विषय-विषयी का अभाव। पदार्थ-ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय होते हैं, लेकिन होगा और इस प्रकार ज्ञान के हर प्रयास में वह अज्ञेय ही बना रहेगा। आत्मज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का द्वैत नहीं रहता। वहाँ तो मात्र ज्ञान ज्ञाता को जानने की चेष्टा तो आँख को उसी आँख से देखने की होता है। वह शुद्ध ज्ञान है, क्योंकि उसमें ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय तीनों चेष्टा की भाँति होगी। जिस प्रकार आग स्वयं को जला नहीं सकती, अलग-अलग नहीं रहते। ज्ञान की इस पूर्ण शुद्धावस्था का नाम ही नट स्वयं के कन्धे पर चढ़ नहीं सकता, वैसे ही ज्ञाता व्यावहारिक आत्मज्ञान है। इसे ही परमार्थ-ज्ञान कहा जाता है। लेकिन प्रश्न तो ज्ञान के माध्यम से स्वयं को नहीं जान सकता। ज्ञाता जिसे भी जानेगा यह है कि ऐसे विषय और विषयी से अथवा ज्ञाता और ज्ञेय से रहित वह तो ज्ञाता के ज्ञान का विषय होगा और ज्ञाता के ज्ञान का विषय ज्ञान की उपलब्धि कैसे हो? साधारण व्यक्ति जिस ज्ञान से परिचित होने से ज्ञाता से भिन्न होगा। अत: आत्मा स्वयं अपने द्वारा नहीं जानी है वह तो ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध है, अत: उसके लिए ऐसा जा सकेगी, क्योंकि उसके ज्ञान के लिए किसी अन्य ज्ञाता की कौन-सा मार्ग प्रस्तुत किया जाए, जिससे वह इस परमार्थ-बोध को आवश्यकता होगी और यह स्थिति हमें तार्किक दृष्टि से अनन्तताके प्राप्त कर सके। दुश्चक्र में फंसा देगी। यद्यपि यह सही है कि आत्मतत्त्व को ज्ञाता-ज्ञेयरूप ज्ञान के ____ इसीलिए उपनिषद् के ऋषियों को भी कहना पड़ा था कि विज्ञाता द्वारा नहीं जाना जा सकता; लेकिन अनात्मतत्त्व तो ऐसा है जिसे इस को कैसे जाना जाए? केनोपनिषद् में कहा गया है कि वहाँ तक न ज्ञाता-ज्ञेयरूप के ज्ञान का विषय बनाया जा सकता है। सामान्य व्यक्ति तो किसी इन्द्रिय की पहुँच है, न वाणी और मन की, अत: उसे किस भी इस साधारण ज्ञान के द्वारा इतना तो जान सकता है कि अनात्म, प्रकार जाना जाए यह हम नहीं जानते, वह हमारी समझ से परे है। या उसके ज्ञान के विषय क्या हैं? अनात्म के स्वरूप को जानकर यह विदित से अन्य ही है तथा अविदित से भी परे है, जो वाणी आत्म से विभेद स्थापित किया जा सकता है और इस प्रकार परोक्ष से प्रकाशित नहीं है, किन्तु वाणी ही जिससे प्रकाशित होती है, जो विधि के माध्यम से हम आत्मज्ञान की दिशा में बढ़ सकते हैं। सामान्य मन से मनन नहीं किया जा सकता बल्कि मन ही जिससे मनन किया बुद्धि चाहे हमें यह न बता सकती हो कि परमार्थ क्या है? किन्तु हुआ कहा जाता है। जिसे कोई नेत्र द्वारा देख नहीं सकता वरन् नेत्र निषेधात्मक-विधि द्वारा साधक परमार्थ-बोध की दिशा में आगे बढ़ ही जिसकी सहायता से देखते हैं, जो कान से नहीं सुना जा सकता सकता है। जैन, बौद्ध और वेदान्त दर्शनों की परम्परा में इस विधि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6