Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
भेद-विज्ञान : मुक्ति का सिंहद्वार
सभी भारतीय विचारणाएँ इस सम्बन्ध में एक मत हैं कि अनात्म वरन् जिसके होने पर कानों में सुनने की शक्ति आती है।' इस प्रकार में आत्मबुद्धि, ममत्वबुद्धि या मेरापन ही बन्धन का मूल कारण है। हम देखते हैं कि उपनिषद् का ऋषि भी 'आत्म' या 'स्व' के बोध जो हमारा स्वरूप नहीं है, उसे अपना मान लेना- यही बन्धन है, को एक जटिल समस्या के रूप में ही पाता है। वास्तविकता तो यह इसलिए साधना के क्षेत्र में स्व-रूप का बोध आवश्यक माना गया। है कि यह आत्मा ही सम्पूर्ण ज्ञान का आधार है, उसे ज्ञेय कैसे बनाया जिस प्रक्रिया के द्वारा स्वरूप-बोध उपलब्ध हो सकता है, वह जैन जाए? तर्क भी अस्ति और नास्ति की विधाओं से सीमित है, वह विचारणा में भेद विज्ञान कही जाती है। आचार्य अमृतचन्द्रसूरि कहते विकल्पों से परे नहीं जा सकता, जब कि आत्मा या स्व तो बुद्धि हैं कि जो कोई सिद्ध हुए हैं, वे इस भेद-विज्ञान से ही हुए हैं और की विधाओं से परे है। आचार्य कुन्दकुन्द ने उसे नयपक्षातिक्रान्त कहा जो कर्म में बंधे हैं वे इसी भेद-विज्ञान के अभाव में बंधे हुए हैं। है। बुद्धि या तर्क भी ज्ञायक आत्मा के आधार पर ही स्थित है। वे भेद-विज्ञान का प्रयोजन आत्मतत्त्व को जानना है। साधना के लिए आत्मा के समग्र स्वरूप का ग्रहण नहीं कर सकते। आत्मतत्त्व का बोध अनिवार्य है। प्राच्य एवं पाश्चात्य सभी विचारक मैं सब को जान सकता हूँ, लेकिन उसी तरह स्वयं को नहीं आत्मबोध पर बल देते हैं। उपनिषद् के ऋषियों का सन्देश है कि जान सकता। शायद इसीलिए आत्मज्ञान जैसी घटना भी कठिन और आत्मा को जानो। पाश्चात्य विचारणा भी आत्मज्ञान, आत्मश्रद्धा और दुरूह बनी हुई है। वास्तविकता यह है कि आत्मतत्त्व अथवा परमार्थ आत्म-अवस्थिति को स्वीकार करती है। लेकिन 'स्व' को जानना अज्ञेय नहीं है, लेकिन वह उसी प्रकार नहीं जाना जा सकता जिस अपने-आप में एक दार्शनिक समस्या है, क्योंकि जो भी जाना जा प्रकार से हम सामान्य वस्तुओं को जानते हैं। निश्चय ही आत्मज्ञान सकता है, वह 'स्व' कैसे होगा? वह तो 'पर' का ही होगा। जानना अथवा परमार्थ-बोध वह ज्ञान नहीं है जिससे हम परिचित हैं। परमार्थ-ज्ञान तो 'पर' हो सकता है, 'स्व' तो वह है जो जानता है। 'स्व' ज्ञाता में ज्ञाता-ज्ञेय का सम्बन्ध नहीं है, इसीलिए उसे परम ज्ञान कहा गया है, उसे ज्ञेय (ज्ञान का विषय) नहीं बनाया जा सकता और जब तक है, क्योंकि उसे जान लेने पर कुछ भी जानना शेष नहीं रहता है; 'स्व' को ज्ञान का विषय नहीं बनाया जा सकता तब तक उसका ज्ञान फिर भी उसका ज्ञान पदार्थ-ज्ञान की प्रक्रिया से नितान्त भिन्न होता कैसे होगा? ज्ञान तो ज्ञेय का होता है, ज्ञाता का ज्ञान कैसे हो सकता है। पदार्थ-ज्ञान में विषय-विषयी का सम्बन्ध है, जबकि आत्मज्ञान में है? क्योंकि ज्ञान की प्रत्येक अवस्था में ज्ञाता ज्ञान के पूर्व उपस्थित विषय-विषयी का अभाव। पदार्थ-ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय होते हैं, लेकिन होगा और इस प्रकार ज्ञान के हर प्रयास में वह अज्ञेय ही बना रहेगा। आत्मज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का द्वैत नहीं रहता। वहाँ तो मात्र ज्ञान ज्ञाता को जानने की चेष्टा तो आँख को उसी आँख से देखने की होता है। वह शुद्ध ज्ञान है, क्योंकि उसमें ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय तीनों चेष्टा की भाँति होगी। जिस प्रकार आग स्वयं को जला नहीं सकती, अलग-अलग नहीं रहते। ज्ञान की इस पूर्ण शुद्धावस्था का नाम ही नट स्वयं के कन्धे पर चढ़ नहीं सकता, वैसे ही ज्ञाता व्यावहारिक आत्मज्ञान है। इसे ही परमार्थ-ज्ञान कहा जाता है। लेकिन प्रश्न तो ज्ञान के माध्यम से स्वयं को नहीं जान सकता। ज्ञाता जिसे भी जानेगा यह है कि ऐसे विषय और विषयी से अथवा ज्ञाता और ज्ञेय से रहित वह तो ज्ञाता के ज्ञान का विषय होगा और ज्ञाता के ज्ञान का विषय ज्ञान की उपलब्धि कैसे हो? साधारण व्यक्ति जिस ज्ञान से परिचित होने से ज्ञाता से भिन्न होगा। अत: आत्मा स्वयं अपने द्वारा नहीं जानी है वह तो ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध है, अत: उसके लिए ऐसा जा सकेगी, क्योंकि उसके ज्ञान के लिए किसी अन्य ज्ञाता की कौन-सा मार्ग प्रस्तुत किया जाए, जिससे वह इस परमार्थ-बोध को आवश्यकता होगी और यह स्थिति हमें तार्किक दृष्टि से अनन्तताके प्राप्त कर सके। दुश्चक्र में फंसा देगी।
यद्यपि यह सही है कि आत्मतत्त्व को ज्ञाता-ज्ञेयरूप ज्ञान के ____ इसीलिए उपनिषद् के ऋषियों को भी कहना पड़ा था कि विज्ञाता द्वारा नहीं जाना जा सकता; लेकिन अनात्मतत्त्व तो ऐसा है जिसे इस को कैसे जाना जाए? केनोपनिषद् में कहा गया है कि वहाँ तक न ज्ञाता-ज्ञेयरूप के ज्ञान का विषय बनाया जा सकता है। सामान्य व्यक्ति तो किसी इन्द्रिय की पहुँच है, न वाणी और मन की, अत: उसे किस भी इस साधारण ज्ञान के द्वारा इतना तो जान सकता है कि अनात्म, प्रकार जाना जाए यह हम नहीं जानते, वह हमारी समझ से परे है। या उसके ज्ञान के विषय क्या हैं? अनात्म के स्वरूप को जानकर यह विदित से अन्य ही है तथा अविदित से भी परे है, जो वाणी आत्म से विभेद स्थापित किया जा सकता है और इस प्रकार परोक्ष से प्रकाशित नहीं है, किन्तु वाणी ही जिससे प्रकाशित होती है, जो विधि के माध्यम से हम आत्मज्ञान की दिशा में बढ़ सकते हैं। सामान्य मन से मनन नहीं किया जा सकता बल्कि मन ही जिससे मनन किया बुद्धि चाहे हमें यह न बता सकती हो कि परमार्थ क्या है? किन्तु हुआ कहा जाता है। जिसे कोई नेत्र द्वारा देख नहीं सकता वरन् नेत्र निषेधात्मक-विधि द्वारा साधक परमार्थ-बोध की दिशा में आगे बढ़ ही जिसकी सहायता से देखते हैं, जो कान से नहीं सुना जा सकता सकता है। जैन, बौद्ध और वेदान्त दर्शनों की परम्परा में इस विधि
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
भेद-विज्ञान : मुक्ति का सिंहद्वार
४१७
T
को बहुलता से निर्देश हुआ है। इसे ही 'भेद-विज्ञान' या 'आत्म-अनात्म अपनी भिन्नता का बोध करना होता है, जो अपेक्षाकृत कठिन-कठिनतर विवेक' कहा जाता है। अगली पंक्तियों में हम इसी भेद-विज्ञान को है, क्योंकि यहाँ इनके और हमारे बीच तादात्म्य का बोध बना रहता जैन, बौद्ध और गीता की विचारणा के आधार पर प्रस्तुत कर रहे हैं। है। फिर भी हमें यह जान लेना होगा कि जो कुछ पर के निमित्त
है वह हमारा स्वरूप नहीं है। हमारे रागादि भाव भी पर के निमित्त जैन विचारणा में भेद-विज्ञान
ही हैं, अत: वे हम में होते हुए भी हमारे निज रूप नहीं हो सकते। आचार्य कुन्दकुन्द 'समयसार'२ में इस भेद-विज्ञान की प्रक्रिया यद्यपि वे आत्मा में होते हैं फिर भी आत्मा से भिन्न हैं, क्योंकि उनका को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- 'रूप आत्मा नहीं है, क्योंकि वह निजस्वरूप नहीं है। जैसे उष्ण पानी में रही हुई उष्णता, उसमें रहते कुछ नहीं जानता, अत: रूप अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन हुए भी उसका स्वरूप नहीं है, क्योंकि वह अग्नि के संयोग के कारण कहते हैं।
है वैसे ही रागादिभाव आत्मा में होते हुए भी उनका अपना स्वरूप 'वर्ण आत्मा नहीं है, क्योंकि वह कुछ नहीं जानता, अत: वर्ण नहीं है। यह स्वरूप-बोध ही जैन साधना का सार है, जिसकी विधि अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं।
है- भेद-विज्ञान अर्थात् जो 'स्व' से भिन्न है उसे 'पर' के रूप में गंध आत्मा नहीं है, क्योंकि वह कुछ नहीं जानता, अत: गंध जानकर उसमें रहे हुए तादात्म्य-बोध को तोड़ देना। वस्तुतः भेद-विज्ञान अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं।
की यह प्रक्रिया हमें जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनों में भी उपलब्ध ___ 'रस आत्मा नहीं है, क्योंकि वह कुछ नहीं जानता, अत: रस होती है। अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं। ___'स्पर्श आत्मा नहीं है, क्योंकि वह कुछ नहीं जानता, अत: स्पर्श बौद्ध विचारणा में भेदाभ्यास अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं।
जिस प्रकार जैन साधना में सम्यक-ज्ञान का वास्तविक उपयोग 'कर्म आत्मा नहीं है, क्योंकि कर्म कुछ नहीं जानता, अत: कर्म भेदाभ्यास माना गया उसी प्रकार बौद्ध साधना में भी प्रज्ञा का वास्तविक अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं।'
उपयोग अनात्म की भावना में माना गया है। भेदाभ्यास की साधना 'अध्यवसाय आत्मा नहीं है, क्योंकि अध्यवसाय कुछ नहीं जानता में जैन साधक वस्तुत: स्वभाव के यथार्थज्ञान के आधार पर 'स्व' स्वरूप (मनोभाव भी किसी ज्ञायक के द्वारा जाने जाते हैं, स्वत: कुछ नहीं (आत्म) और 'पर' स्वरूप (अनात्म) में भेद स्थापित करता है तथा जानते- क्रोध के भाव को जानने वाला ज्ञायक उससे भिन्न है), अतः अनात्म में रही हुई आत्मबुद्धि का परित्याग कर अन्त में अपनी साधना अध्यवसाय अन्य है और आत्मा अन्य है।
के लक्ष्य अर्थात् निर्वाण की प्राप्ति करता है। बौद्ध साधना में भी साधक 'अपने शुद्ध ज्ञायक स्वरूप की दृष्टि से आत्मा न राग है, न प्रज्ञा के सहारे जागतिक उपादानों (धर्म) के स्वभाव का ज्ञान कर, द्वेष है, न मोह है, न क्रोध है, न मान है, न माया है, न लोभ है। उनके अनात्म स्वरूप में आत्मबुद्धि का परित्याग कर, निर्वाण का लाभ अपने शुद्ध ज्ञायक स्वरूप में वह इनका कारण और कर्ता भी नहीं करता है। दोनों ही विचारणाएँ यह स्वीकार करती हैं कि स्वभाव का
बोध होने पर ही निर्वाण की उपलब्धि होती है। अनात्म के स्वभाव वस्तुत: आत्मा जब अपने शुद्ध ज्ञाता स्वरूप में अवस्थित होती का ज्ञान और उसमें आत्मबुद्धि का परित्याग, दोनों दर्शनों में साधना है, संसार के समस्त पदार्थ ही नहीं वरन् उसकी अपनी चित्तवृत्तियाँ का अनिवार्य तत्त्व है। जिस प्रकार जैन विचारकों ने रूप, वर्ण, देह,
और मनोभाव भी उसे 'पर' (स्व से भित्र) प्रतीत होते हैं। जब वह इन्द्रिय, मन और अध्यवसाय आदि को अनात्म कहा, उसी प्रकार 'पर' को 'पर' के रूप में जान लेता है और उससे अपनी पृथक्ता बौद्ध आगमों में भी देह, इन्द्रियाँ और उनके विषय- शब्द, रूप, का बोध कर लेता है, तब वह अपने शुद्ध ज्ञायक स्वरूप को जानकर गन्ध, रस, स्पर्श तथा मन आदि को अनात्म कहा गया है तथा दोनों उसमें अवस्थित हो जाता है। यही वह अवसर होता है, जब मुक्ति विचारणाओं ने साधक के लिए यह स्पष्ट निर्देश किया कि वह उनमें का द्वार उद्घाटित होता है, क्योंकि जिसने पर को पर के रूप में आत्मबुद्धि न रखे। लगभग समान शब्दों और शैली में दोनों ही जान लिया है उसके लिए ममत्व या राग कोई स्थान ही नहीं रखता अनात्मभावना या भेद-विज्ञान की अवधारणा को प्रस्तुत करते हैं, जो है। राग के गिर जाने पर वीतराग का प्रकटन होता है और मुक्ति का तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययनकर्ता के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। आपने द्वार खुल जाता है।
जैन साधना में भेदाभ्यास की इस धारणा का आस्वादन किया, अब भेद-विज्ञान की इस प्रक्रिया में आत्मा सब से पहले वस्तुओं जरा इसी सन्दर्भ में बुद्ध-वाणी के निर्झर में भी अवगाहन कीजिये; एवं पदार्थों से अपनी भिन्नता का बोध करती है। चाहे अनुभति के बुद्ध कहते हैंस्तर पर इनसे भिन्नता स्थापित कर पाना कठिन हो, किन्तु ज्ञान के 'भिक्षुओं! चक्षु अनित्य है जो अनित्य है वह दुःख है, जो दु:ख स्तर पर यह कार्य कठिन नहीं है; क्योंकि यहाँ तादात्म्य नहीं रहता है वह अनात्म है, जो अनात्म है न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरी आत्मा है, अत: पृथकता का बोध सुस्पष्ट रूप से होता है। किन्तु इसके बाद है, इसे यथार्थतः प्रज्ञापूर्वक जान लेना चाहिए। क्रमश: उसे शरीर से, मनोवृत्तियों से एवं स्वयं के रागादि भावों से “भिक्षुओं! प्राण अनित्य है, जिह्वा अनित्य है, काया अनित्य
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१८
जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
है, मन अनित्य है, जो अनित्य है वह दुःख है, जो दुःख है वह को 'परमार्थ के अर्थ में ग्रहण किया। वस्तुतः राग का प्रहाण हो जाने अनात्म है, जो अनात्म है, वह न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरी आत्मा पर 'मेरा' तो शेष रहता ही नहीं है, जो कुछ रहता है वह मात्र परमार्थ है, इसे यथार्थतः प्रज्ञापूर्वक जान लेना चाहिए।
होता है। चाहे उसे आत्मा कहें, चाहे उसे शून्यता, विज्ञान या परमार्थ 'भिक्षुओं! रूप अनित्य है, जो अनित्य है वह दुःख है, जो दु:ख कहें, अन्तर शब्दों में हो सकता है, मूल भावना में नहीं। है वह अनात्म है, जो अनात्म है वह न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरी आत्मा है, इसे यथार्थत: प्रज्ञापूर्वक जान लेना चाहिए।
गीता में आत्म-अनात्म विवेक (भेद विज्ञान) ____ भिक्षुओं! शब्द, अनित्य है, जो अनित्य है वह दुःख है जो गीता का आचार दर्शन अनासक्त दृष्टि से उदय और अहं के दुःख है वह अनात्म है, जो अनात्म है वह न मेरा है, न मैं हूँ, न विगलन को साधना का महत्त्वपूर्ण तथ्य मानता है; लेकिन यह कैसे मेरी आत्मा है, इसे यथार्थत: प्रज्ञापूर्वक जान लेना चाहिए। हो? डॉ० राधाकृष्णन् के शब्दों में हमें उद्धार की उतनी आवश्यकता ___भिक्षुओं! इसे जानकर पण्डित, आर्यश्रावक चक्षु में वैराग्य करता नहीं है जितनी अपनी वास्तविक प्रकृति को पहचानने की, लेकिन है, श्रोत्र में, प्राण में, जिह्वा में, काया में, मन में वैराग्य करता है। अपनी वास्तविक प्रकृति को कैसे पहचाना जाए? इसके साधन के वैराग्य करने से, रागरहित होने से विमुक्त हो जाता है, विमुक्त होने रूप में गीता भी भेद-विज्ञान को स्वीकार करती है। गीता का तेरहवाँ से विमुक्त हो गया ऐसा ज्ञात होता है। जाति क्षीण हुई, ब्रह्मचर्य पूरा अध्याय हमें इसी भेद-विज्ञान को सिखाता है, जिसे गीताकार की भाषा हो गया, जो करना था सो कर लिया, पुन: जन्म नहीं होगा यह जान में 'क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-ज्ञान' कहा गया है। गीताकार ज्ञान की व्याख्या करते लेता है।
हुए कहता है कि 'क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को यथार्थ रूप में जानने वाला भिक्षुओं! इसे जानकर पण्डित आर्यश्रावक अतीत के रूप में ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है। गीता के अनुसार शरीर क्षेत्र है और भी अनपेक्ष होता है, अनागत रूप आदि का अभिनन्दन नहीं करता इसको जानने वाली ज्ञायक स्वभाव युक्त आत्मा ही क्षेत्रज्ञ है। वस्तुतः
और वर्तमान रूप आदि के निर्वेद, विराग और निरोध के लिए यत्नशील समस्त जगत् जो ज्ञान का विषय है, वह क्षेत्र है; और परमात्मस्वरूप होता है।
विशुद्ध आत्मतत्त्व ही ज्ञाता है, क्षेत्रज्ञ है। इन्हें क्रमश: प्रकृति और इस प्रकार हम देखते हैं कि दोनों विचारणाएँ भेदाभ्यास या अनात्म पुरुष भी कहा जाता है। गीता के अनुसार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ, प्रकृति भावना के चिन्तन में एक-दूसरे के अत्यन्त समीप आ जाती हैं। बौद्ध और पुरुष या अनात्म और आत्म का यथार्थ विवेक या भिन्नता का विचारणा में समस्त जागतिक उपादानों को 'अनात्म' सिद्ध करने का बोध कर लेना ही सच्चा ज्ञान है। गीता में सांख्य शब्द का ज्ञान के आधार है-उनकी अनित्यता एवं तज्जनित दु:खमयता। जैन विचारणा अर्थ में प्रयोग हुआ है और उसकी व्याख्या में आचार्य शङ्कर ने यही ने अपने भेदाभ्यास की साधना में जागतिक उपादानों में अन्यत्व भावना दृष्टि अपनायी है। वे लिखते हैं कि 'यह त्रिगुणात्मक जगत् या प्रकृति का आधार उनकी संयोगिकता को माना है, क्योंकि यदि सभी संयोगजन्य ज्ञान के विषय हैं, मैं उनसे भिन्न हूँ (क्योंकि ज्ञाता और ज्ञेय, दृष्टि हैं तो निश्चय ही संयोगकालिक होगा और इस आधार पर वह अनित्य और दृश्य एक नहीं हो सकते), उनके व्यापारों का द्रष्टा या साक्षी भी होगा।
मात्र हूँ, उनसे विलक्षण हूँ, इस प्रकार आत्मस्वरूप का चिन्तन करना बुद्ध और महावीर दोनों ने ज्ञान के समस्त विषयों में 'स्व' या ही ज्ञान है। ज्ञायक स्वरूप आत्मा को अपने यथार्थ स्वरूप के बोध 'आत्मा' का अभाव पाया और उनमें ममत्व-बुद्धि के निषेध की बात के लिए जगत् के जिन अनात्म तथ्यों से विभेद स्थापित करना होता कही, लेकिन बुद्ध ने साधनात्मक जीवन की दृष्टि पर विश्रान्ति लेना है वे हैं- पञ्च महाभूत, देह अहंभाव, विषययुक्त बुद्धि, सूक्ष्म प्रकृति, उचित समझा, उन्होंने साधक को यही बताया कि तुझे यह जान लेना पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, मन, पाँचों इन्द्रियों के विषय-ईर्ष्या, है कि 'पर' या अनात्म क्या है, 'स्व' को जानने का प्रयास करना द्वेष, सुख, दुःख, सुख-दुःखादि भावों की चेतना आदि। ये सभी क्षेत्र ही व्यर्थ है। इस प्रकार बुद्ध ने मात्र निषेधात्मक रूप में अनात्म का हैं अर्थात् ज्ञान के विषय हैं और इसलिए ज्ञायक आत्मा इनसे भिन्न प्रतिबोध कराया, क्योकि आत्मा के प्रत्यक्ष में उन्हें अहं, ममत्व या है। गीता यह मानती है कि 'आत्म का अनात्म से अपनी भिन्नता आसक्ति की ध्वनि प्रतीत हुई। जबकि महावीर की परम्परा ने अनात्म का बोध नहीं होना ही बन्धन का कारण है।' जब वह पुरुष प्रकृति के निराकरण के साथ आत्म की स्वीकृति भी आवश्यक मानी। पर से उत्पन्न हुए त्रिगुणात्मक पदार्थों को प्रकृति में स्थित होकर भोगता या अनात्म का परित्याग और स्व या आत्म का ग्रहण यह दोनों प्रत्यय है तो अनात्म प्रकृति में आत्मबुद्धि के कारण ही वह अनेक अच्छी-बुरी जैन विचारणा में स्वीकृत रहे हैं। आचार्य कुन्दकुन्द सयमसार' में लिखते योनियों में जन्म लेता है'।१० दूसरे शब्दों में अनात्म में आत्मबुद्धि हैं कि इस शुद्धात्मा को जिस तरह पहले प्रज्ञा से भिन्न किया था, करके जब उसका भोग किया जाता है तो उस आत्मबुद्धि के कारण उसी तरह प्रज्ञा के द्वारा ग्रहण करना। लेकिन जैन और बौद्ध परम्पराओं ही आत्मा बन्धन में आ जाती है। वस्तत: इस शरीर में स्थित होती का यह विवाद इसलिए अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है कि बौद्ध परम्परा हुई भी आत्मा इससे भिन्न ही है, यही परमात्मा कही जाती है।११ ने आत्म शब्द से 'मेरा' अर्थ ग्रहण किया जबकि जैन परम्परा ने आत्मा पर परमात्मस्वरूप आत्मा शरीर आदि विषयों में आत्मबुद्धि करके ही
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
भेद-विज्ञान बन्धन में रहती है, अतः जब भी इस भेद विज्ञान के द्वारा अपने यथार्थ स्वरूप का बोध हो जाता है वह मुक्त हो जाती है। अनात्म में रही आत्मबुद्धि को समाप्त करना यही भेद-विज्ञान है और यही क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ - ज्ञान है। इसी के द्वारा अनात्म एवं आत्म के यथार्थ स्वरूप का बोध होता है और यही मुक्ति का मार्ग भी है। गीता कहती है'जो व्यक्ति अनात्म त्रिगुणात्मक प्रकृति और परमात्मस्वरूप शायक आत्मा के यथार्थ स्वरूप को तत्व-दृष्टि से जान लेता है वह संसार में रहता हुआ भी तत्त्व रूप से इस संसार से ऊपर उठ जाता है, वह पुर्नजन्म को प्राप्त नहीं होता है। १२
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन विचारणा के समान गीता भी इसी आत्म-अनात्म-विवेक पर बल देती है। दोनों के निष्कर्ष समान हैं । शरीरस्थ ज्ञायक स्वरूप आत्मा का बोध कर लेना, यही दोनों आचार दर्शनों का मन्तव्य है। गीता में श्रीकृष्ण ज्ञान असि के द्वारा अनात्म में आत्मबुद्धि रूप जो अज्ञान है उसके छेदन का निर्देश करते हैं,
सन्दर्भ:
१. केनोपनिषद्, प्रका०- संस्कृति संस्थान, बरेली, १/४ ।
२.
३.
-
समयसार, कुन्दकुन्द, प्रका० अहिंसा प्रकाशन मन्दिर, दरियागंज, देहली, १९५९, ३९२-४०२ ।
नियमसार, अनु०- अगरसेन, प्रका० अजिताश्रम, लखनऊ,
-
१९६३, ७७-८१ ।
४. संयुक्तनिकाय, संपा० भिक्षु जगदीश काश्यप एवं भिक्षु धर्मरक्षित, प्रका० महाबोधिसभा, सारनाथ, वाराणसी, १९५४, परिच्छेद ४,
-
२४/१-१०।
प्रकाशन मन्दिर, दरियागंज,
समयसार, कुन्दकुन्द, अहिंसा प्रका०देहली, १९५९, २९६ ।
६. भगवद्गीता, डॉ. राधाकृष्णन्, अनु० विराज, प्रका०- राजपाल
मुक्ति का सिंहद्वार
४१९
तो समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द प्रज्ञा-छैनी से इस आत्म और अनात्म (जड़) को अलग-अलग करने की बात करते हैं । १३. १३
इस तरह हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जैन, बौद्ध और गीता सभी में भेद - विज्ञान, अनात्म-विवेक या क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ ज्ञान ज्ञानात्मक साधना का लक्ष्य है। यह निर्वाण की उपलब्धि का एक आवश्यक अङ्ग है। जब तक अनात्म में आत्मबुद्धि का परित्याग नहीं होगा तब तक आसक्ति समाप्त नहीं होगी और आसक्ति के समाप्त न होने से निर्वाण या मुक्ति की उपलब्धि नहीं होगी। आचाराङ्गसूत्र में कहा गया है— जो 'स्व' से अन्यत्र दृष्टि नहीं रखता वह 'स्व' से अन्यत्र रमता भी नहीं है और जो 'स्व' से अन्यत्र रमता नहीं है वह 'स्व से अन्यत्र दृष्टि भी नहीं रखता है । १४
इस आत्म- दृष्टि का उदय भेद-विज्ञान के द्वारा ही होता है और भेद-विज्ञान की कला से निर्वाण या परमपद की प्राप्ति होती है।
एण्ड सन्स, देहली, १९६२, पृष्ठ ५४३ ।
गीता, प्रका० गीता प्रेस, गोरखपुर, वि०सं० २०१८, १३ / २।
वही,
१३/२।
वही, १३/५-६।
७.
८.
९.
१०. वही, १३ / २१।
१९. वही, १३ / २१ ।
१२ . वही, १३ / २३ । १३. वही, ४/४३ ।
१३ अ. समयसार, कुन्दकुन्द, प्रका० अहिंसा प्रकाशन मन्दिर, दरियागंज देहली, १९५९, २९४ । १४. आचाराङ्गसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८०, १ / २ / ६ ।
-
-
.