Book Title: Bhavna Ek Chintan
Author(s): Ranjankumar
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 2
________________ यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ भावना की उक्त चर्चा के बाद हमारे समक्ष एक प्रश्न उठ खड़ा होता है, कि भावना का यह चिंतन जैन परंपरा में प्रतिपादित चार भावनाओं से है या बारह भावनाओं से । समाधान के रूप में यही निवेदन किया जा रहा है कि हमारा यह चिंतन बारह भावनाओं का है। वैसे भी प्रारंभ में हमने इस बात का उल्लेख किया है कि जैन परंपरा में भावना या अणुप्रेक्षा का बहुत महत्त्व है। अणुप्रेक्षा से तात्पर्य बारह भावनाओं से है चार भावनाओं से नहीं। अब जब चार प्रकार की भावनाओं का प्रसंग उठा तो इसका उल्लेख करना समीचीन जान पड़ता है, लेकिन यहाँ इतना ध्यान रखना होगा कि बारह भावना और चार भावना दोनों भिन्नभिन्न अवधारणाएँ हैं। - जैन ग्रंथों में मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ इन चारों को भावना कहा गया है। यह मानव-मन की अवस्था है और इसे मानवता का गुण भी कहा जा सकता है, लेकिन जैनाचार्यो द्वारा प्रतिपादित बारह प्रकार की भावनाएँ अलग तथ्य हैं। ये मानव के गुण नहीं बल्कि उसके चिंतन या साधनात्मक अवस्था की परिचायक हैं। ये बारह भावनाएँ इस प्रकार हैं - १. अनित्यभावना, २. अशरण-भावना, ३. संसारभावना, ४. एकत्वभावना, ५. अन्यत्व - भावना, ६ . अशुचिभावना, ७. आस्रव-भावना, ८. संवरभावना, ९ निर्जराभावना, १०. लोकभावना, ११. धर्म भावना एवं १२. बोधि - भावना । इन बारह भावनाओं का जैनाचार्यो ने उल्लेख किया ही है साथ ही साथ जैनेतर परंपराओं में भी इन पर चिंतन हुआ है । यथाप्रसंग उन्हें भी प्रस्तुत करने का हर संभव प्रयास किया जाएगा। १. अनित्य - भावना - संसार के सभी पदार्थों को अनित्य, नाशवान्, क्षणभंगुर मानना ही अनित्य - भावना है। धन संपत्ति, अधिकार-वैभव ये सब क्षणभंगुर हैं। कालक्रम से संसार के समस्त पदार्थों में परिवर्तन होता रहता है। पदार्थ का जो स्वरूप प्रातःकाल था, वह मध्याह्नकाल में नहीं रहता है और जो मध्याह्नकाल में था वह अपराह्नकाल में नहीं रहता है। रूप, जैनाचार्यों का कहना है कि समग्र सांसारिक वैभव, इंद्रियाँ, यौवन, बल, आरोग्यादि सभी इंद्रधनुष के समान क्षणिक है, संयोगजन्य हैं। यही कारण है कि वे व्यक्ति को समग्र सांसारिक उपलब्धियों में आसक्त नहीं रहने का संदेश देते हैं, क्योंकि जो वस्तु अनित्य है, उसके प्रति राग या द्वेष का भाव रखने में कोई लाभ नहीं होता है। Ambi Jain Education International जैन-साधना एवं आचार उत्तराध्ययन में लिखा है कि मनुष्य का यह शरीर अनित्य है, अपवित्र है और अशुचि से इसकी उत्पत्ति हुई है। इसमें जीव का निवास भी अशाश्वत है। यह शरीर दुःख एवं क्लेशों का भाजन है अर्थात् यह शरीर स्वभाव से ही अनित्य है । इस अनित्य शरीर की अपेक्षा से ही नित्य और शाश्वस्त जीव अनित्य एवं अशाश्वत जान पड़ता है। शारीरिक एवं मानसिक जितने भी क्लेश हैं, वे सब इस शरीर के आश्रय से ही हैं।" तात्पर्य यह है कि क्लेश उत्पन्न करने वाले शरीर के प्रति व्यक्ति को किसी प्रकार का ममत्व नहीं रखना चाहिए, क्योंकि इससे व्यक्ति की सांसारिक वासनाओं के प्रति आस्था दृढ़ होती है और वह अपने कर्मबंधन को ज्यादा मजबूत बनाता है। संसार की सभी वस्तुएँ अनित्य हैं। एक क्षण ये किसी से जुड़ती हैं तो दूसरे क्षण उससे अलग भी हो जाती है। मरणविभत्ति में कहा गया है कि देव, सुर, असुर, सिद्धि, ऋद्धि, माता, पिता, पुत्र, पत्नी, बंधु, मित्र, भवन, उपवन, यान, वाहन, बल, वीर्य, रूप, यौवन, देहादि सब कुछ अनित्य है । " मनुष्य का यह शरीर जिस पर वह अभिमान करता है तथा जिसे सबसे अधिक प्रेम करता है वह भी क्षणिक है, अनित्य है। आचार्य शिवार्य अपनी कृति भगवती आराधना में व्यक्ति के शरीर की उपमा फेन के बुलबुले से करते हैं। उनका कहना है कि जिस प्रकार फेन के बुलबुले बनते और नष्ट होते हैं ठीक उसी प्रकार यह मानवशरीर उत्पन्न होता है एवं विनाश को प्राप्त करता है।' फेन के बुलबुले में हवा और पानी दोनों होते हैं। बुलबुले के अंदर हवा रहती है और जब तक इसका दाब बाहरी वायुमंडल के दा बराबर रहता है, बुलबुले का अस्तित्व बना रहता है। जब यह दाब वायुमंडलीय दाब से अधिक हो जाता है, तब बुलबुला फट जाता है और विनष्ट हो जाता है। बुलबुले के विनाश की प्रक्रिया अत्यल्प समयावधि में सम्पन्न हो जाती है। ठीक इसी प्रकार मानव-शरीर भी अत्यंत सीमित अवधि में समाप्त हो जाता है । अतः व्यक्ति को अत्यल्प समय में नष्ट होने वाले शरीर के प्रति न तो अभिमान करना चाहिए और न ही किसी प्रकार का राग - भाव ही रखना चाहिए। २९ यह शरीर नष्ट होने वाला है ऐसा जानकार जीव को किसी तरह का प्रमाद नहीं करना चाहिए। अपने जीवनकाल में उसे यह चिंतन करते रहना चाहिए कि हमारे शरीर की स्थिति यहाँ For Private Personal Use Only MENDADA www.jainelibrary.org

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