Book Title: Bhautik aur Adhyatma Vigyan Author(s): Rameshmuni Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 4
________________ AVAJ. FOOFREObva उतने-उतने रूप में आत्म-स्वरूप में निखार आता साधक आत्मा नहीं चाहती कि मुझे भौतिक र चला जाता है। इस तरह सुप्त आत्मिक शक्तियों सम्पदा की प्राप्ति हो तथापि घास-फूस न्यायवत् र को जागृत होने का, आत्मिक ऊर्जा-ऊष्मा के उद्गम अध्यात्म-साधना की बदौलत अनायास कई लब्धियों केन्द्रों को सक्रिय होने का अवसर मिलता है। के अज्ञात केन्द्र खुल जाते हैं। साधक के चरणों में ॐ आत्म-विज्ञान को अनठी विशेषता भास्कर की कई सिद्धियाँ लौटने लगती हैं। जैसे पांचों इन्द्रियाँ भांति तेजस्विता प्रखरता का प्रतीक रही है। -श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन एक-एक जिसमें “सत्यं-शिवं-सुन्दरम्" इन तत्वों का समन्वित विषय को अपना ग्राह्य बनाती रही हैं किन्तु जब र रूप ही उसकी सार्थकता, सम्पूर्णता और शाश्वतता आत्मविज्ञ साधक आत्मा को संभिन्न श्रोत नामक | स्वयंसिद्ध हैं। आत्म-विज्ञान जितना सत्य है, उतना लब्धि की प्राप्ति हो जाती है, तब शरीर के दे ही सुन्दर और जितना सुन्दर उतना ही शिवदायक अज्ञात केन्द्र स्वतः खुल जाते हैं और वह साधक रहा है / यह विशेषता भौतिक विज्ञान में कहाँ ? आत्मा सभी इन्द्रियों से सुनने, देखने, सूंघने लगती अध्यात्म विज्ञान ने बताया, तु आत्मा है। जो तेरा है या इन लब्धि वाले साधक को रूप, रस, गंध || स्वभाव है, वही तेरा धर्म है। जो कभी मिथ्या और स्पर्शन का ज्ञान-अनुभव किसी भी इन्द्रिय से नहीं होता। तीनों काल में सत्य ही सत्य रहता है। हो जाता है, उक्त विशेषता भौतिकविज्ञान में कहाँ ? चित् का अर्थ चैतन्य रूप; ज्ञान का प्रतीक, जो कभी प्राणघातक बीमारियाँ जैसे-जलोदर, भंगदर, * जड़त्व में नहीं बदला, और आनन्दरूप जो कभी कुष्ठ, दाह, ज्वर, अक्षिशूल, दृष्टि-शूल और उदरकी दुख में परिवर्तित नहीं हुआ। आत्मा का अपना शूल इत्यादि रोग लब्धिधारी साधक के मुह का धर्म यही है। आत्मा से भिन्न विजातीय कर्म के थूक (अमृत) लगाने मात्र से मिट जाते हैं / चौदह | मेल के कारण ही यह सब दृश्यमान मिथ्या प्रपंच पूर्व जितना लिखित अगाध साहित्य आगम वाङमय है / यही कारण है कि संसारी सभी आत्माओं में को यदि कोई सामान्य जिज्ञासु स्वाध्याय करने में पर्याय की दृष्टि से विभिन्नता परिलक्षित होती है। पुरा जीवन खपा दे तो भी सम्पूर्ण स्वाध्याय नहीं | विभिन्नता का अन्त ही अभिन्नता है / वही आत्मा कर पावेगा किन्तु वे लब्धि प्राप्त साधक केवल 48 का सर्वोपरि विकास है और उस विकास की बुनि- मिनट में सम्पूर्ण 14 (चौदह) पूर्व का अनुशीलनयाद रही है-अध्यात्म विज्ञान / परिशीलन करने में सफल हो जाते हैं। ऐसी एक ___अध्यात्म विज्ञान ने जिस तरह जीव विद्या नहीं अनेक सिद्धियां भ० महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी विज्ञान का विश्लेषण प्रस्तुत किया है उसी तरह गौतम-सुधर्मा गणधर के अलावा और भी अनेकों जड़ जगत् का भी अति सूक्ष्म रीति से शोधन-अनु- महामुनियों को प्राप्त थी। संधान कर हेय-उपादेय का प्रतिपादन किया है। अध्यात्म-विज्ञान-साधना की पृष्ठभूमि जब इतना ही नहीं अध्यात्म-विज्ञान की दूसरी विशेषता उत्तरोत्तर शुद्ध-शुद्धतर बनती चली जाती है, यह रही है कि वह पुनर्जन्म, परलोक, स्वर्ग-अपवर्ग निखार के चरम बिन्दु को छूने लगती है, वहीं - आत्मा-परमात्मा, पुण्य-पाप, संसार-मोक्ष, धर्म-कर्म आत्म-परिकार की सर्वोत्तम कार्य-सिद्धि हो जाती दृष्टि, ध्यान-ज्ञान, योग-अनुष्ठान, जीव-अजीव और है, तब आत्मा शनैः-शनैः मध्यस्थ राहों का अतिजगत् इस तरह अध्यात्म एवं भौतिक विषयों का क्रमण करतो हुई सम्पूर्ण विकास की सीमा तक तलस्पर्शी अनुसंधान-अन्वेषण करता हुआ, वस्तु पहुँच जाती है। सदा-सदा के लिये कृत-कृत्य हो स्थिति का यथार्थ निर्देशन प्रत्यक्ष रूप से करा देता जाती है। भूत, भविष्य, वर्तमान के समस्त गुण है। यही नहीं आत्मा के उन अज्ञात सभी गुण पर्यायों की ज्ञाता-दृष्टा बनकर सर्वज्ञ सर्वदर्शी प्रभु शक्तियों के केन्द्रों को उजागर में ले आता है। रूप हो जाती हैं। चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम 6 . साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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