Book Title: Bharatiya darshanik Parampara aur Syadwad Author(s): Umravkunvar Mahasati Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf View full book textPage 2
________________ अधिकांश सिद्धान्त समान हैं। इनमें मुख्य अन्तर यही है कि सांख्य पुरुष को अकर्ता मानता है और योग परमेश्वर को मानकर उसकी भक्ति पर विशेष बल देता है इसलिए इसे ईश्वरवादी सांख्य भी कह देते हैं तथा योग पर विशेष बल देने से योगदर्शन कहते हैं। योगदर्शन में भी सांख्य दर्शन की तरह प्रकृति, पुरुष आदि पच्चीस तत्त्व माने गए है किन्तु वर्तमान में योग दर्शन की विधिवत् व्यवस्था करने वाले महर्षि पतंजलि हैं। जगत् की नित्यानित्यता: योग दर्शन (सेश्वरवादी सांख्य दर्शन) के मान्य ग्रन्थ पातंजल योगसूत्र के भाष्य में महर्षि व्यास ने जगत की नित्यानित्यता के बारे में अनेकान्तवाद का आश्रय लेकर निम्न प्रकार से कथन किया है। अपर आह धर्मानभ्यधिको धर्मी पूर्वतत्वानतिक्रमात् । पूर्वापरावस्थाभेदमनुपतितः कौटस्थ्येन विपरिवर्तेत पद्यन्वयी स्यादिति । अयमदोषः कस्मात् एकान्तानभ्युपगमात् । तदेतत् त्रैलोक्यं व्यक्तरपंति कस्मात् नित्यत्वप्रतिषेधात् । अपेतमप्यस्ति विनाशप्रतिषेधात् । उपर्युक्त सूत्र में बौद्धदर्शन की शंका का समाधान करने के लिए अनेकान्तवाद का अनुसरण करते हुए भाष्यकार ने संकेत किया + अयमदोषः कस्मात् एकांतानभ्युपगमात् । वाचस्पतिमिश्र ने अनेकान्तवाद की कथन प्रणाली का आश्रय लेकर योग- भाष्य की व्याख्या में आप लिखते हैं "कटककुण्डलकेयूरादिम्यो भिन्नाभिन्नस्य सुवर्णस्य भेद विवक्षया सुवर्णस्य कुण्डलादन्यत्वम् । तथा च कटककारी सुवर्णकारः कुण्डलादभिन्नात्सुर्वात् अन्यत्कुर्वन्नन्यत्वकारणम्। " कुल मिलाकर इसका सारांश इतना ही है कि कटक कुण्डल आदि धर्मों से सुवर्ण रूप धर्मी भिन्न अथवा अभिन्न हैं। भेद विवक्षा से वह मित्र है और अभेद विवक्षा से अभिन्न है इसके अलावा योगदर्शन की भोजदेव कृत राजमार्तण्ड नामकवृत्ति में भी अनेकांतवाद के अनुरूप ही धर्म-धर्मी के भेदाभेद को स्वीकार किया गया है। पातंजल योग- भाष्य में जैनदर्शन के अनुरूप पदार्थ को सामान्य- विशेष उभयात्मक माना गया है। उदाहरण के रूप में निम्न सूत्र उद्धत हैं 'सामान्य विशेषणात्मनोऽर्थस्य । ३ य एतेष्वभिव्यक्तानभिव्यते विशेषात्मासोऽन्वयी धर्मी ४ सामान्य- विशेष समुदायोऽत्र द्रव्यम्। * टीकाकार नालाराम उदासीन २ योगसूत्र - विभूतिपाद सूत्र १३ ३ योगसूत्र, समाधिवद सूत्र ७ ४ योगसूत्र, विभूतिपाद सूत्र १४ श्रीमद जयंतसेनरि अभिनंदन मंच वाचना Jain Education International धर्मेष्वनुपाती सामान्य योगसूत्र के उक्त सूत्रपाठों का आशय यह है कि पदार्थ सामान्य विशेष उमवरूप हैं। इस प्रकार योगदर्शन में अनेकान्तवादात्मक आपेक्षिक कथनों के दर्शन होते हैं। सांख्यदर्शन में स्यादवाद सांख्य दर्शन भी जैन और बौद्ध दर्शनों की तरह वेदों को प्रमाण नहीं मानता है। यह यज्ञयागादि हिंसा मूलक कर्मकांड का विरोधी है और मुक्ति के तत्त्वज्ञान एवं अहिंसा को मुख्यता देता है। जैनदर्शन के आत्म- बाहुल्यवाद और बौद्ध दर्शन के क्षणिकवाद की तरह परिणामवाद को मानता है। सांख्य दर्शन के आद्य प्रणेता प्रवर्तक या व्यवस्थापक महर्षि कपिल माने जाते हैं और इनका जन्म भी जैन और बौद्ध तीर्थकरों की तरह क्षत्रियकुल में होना माना जाता है। कुछ लोग कपिल को ब्रह्मा का पुत्र बताते हैं और भागवत में इन्हें विष्णु का अवतार कहा है। सांख्य दर्शन की दो धाराएँ हैं- सेश्वरसांख्य और निरीश्वरसांख्य । सेश्वर सांख्य योग दर्शन और निरीश्वरसांख्य सिर्फ सांख्यदर्शन के नाम - से अभिहित होता है। उक्त दोनों प्रकार के सांख्यों ने अपने-अपने चिन्तन में अनेकान्तवाद का आश्रय लिया है। जैन दर्शन की तरह निरीश्वरवादी ने भी प्रकृति को उत्पाद-व्यय-धौव्यात्मक माना है या आचार्य वाचस्पति के अनुमान के उदाहरण में वह्नित्व को सामान्य विशेषात्मक मानते हुए अनेकान्तवाद का समर्थन किया है। यथा“यथा धूमात् वह्नित्वसामान्यविशेषः पर्ततेऽनु मीयते ।” जैसे के ज्ञान से वह्नित्व रूप सामान्य विशेषका पर्वत में अनुमान होता है। यहाँ पर वह्नित्व को सामान्य एवं विशेष उभयरूप से स्वीकार करने में ही अनेकान्तवाद की स्वीकृति है। अनेकान्तवाद भी तो यही कहता है कि वस्तु सामान्य विशेष, नित्य-अनित्य आदि धर्मों से संयुक्त है, लेकिन उनका कथन – अभिव्यक्ति अपेक्षा से होती है। मीमांसा दर्शन में स्यादवाद मीमांसा - दर्शन के प्रथम प्रस्तावक महर्षि जैमिनी माने जाते हैं। उनके द्वारा रचित मीमांसा सूत्रों के कारण इसे जैमिनीय दर्शन भी कह दिया जाता है। जैमिनी कृत मीमांसा सूत्र पर कुमारिल भट्ट ने ईसा की सातवीं सदी में श्लोक वार्तिक, तन्त्रवार्तिक और दुष्टी ये तीन टीकाएँ लिखीं। मीमांसादर्शन में सामान्यतः पाँच प्रमाण माने गये है— प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, शब्द कुमारिलभट्ट ने छठा अभाव प्रमाण भी माना है। जैनदर्शन में जैसे द्रव्य का लक्षण उत्पाद-व्यय धौव्यात्मक माना है तथा द्रव्य स्वरूप से श्रीव्यात्मक और अपनी पर्यायों से उत्पादव्ययात्मक है, प्रव्यनित्य है और पर्याय अनित्य वैसे ही मीमांसा दर्शन में भी द्रव्य-पर्याय के नित्यानित्यत्व को इस प्रकार प्रकट किया योग सूत्र, विभूतिपाद सूत्र ४७ ४६ For Private & Personal Use Only तन धन बल अरु बुद्धि का, उचित नहीं अभिमान । जयन्तसेन मिले सदा, कदम कदम अपमान ॥ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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