Book Title: Bharatiya darshanik Parampara aur Syadwad
Author(s): Umravkunvar Mahasati
Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय दार्शनिक-परम्परा और स्याद्वाद (श्रमणसंघीय साध्वी श्रीउमरावकुंवरजी "अर्चना") विश्व का विचार एवं चिन्तन करनेवाली परस्पर दो धाराएँ हैं हो जाता है। यह एक माना हुआ सत्य सामान्य-गामिनी और विशेष-गामिनी। पहली धारा अथवा दृष्टि सारे है कि वस्तु अनन्त धर्मात्मक है, उसके संसार में विद्यमान वस्तुमात्र में समानता ही देखती है और दूसरी दृष्टि असंख्य पहलू हैं। ऐसी स्थिति में किसी सारे विश्व में असमानता ही असमानता देखती है। सामान्य-गामिनी एक शब्द द्वारा किसी एक धर्म के दृष्टि में एक मात्र जो विषय प्रतिभाषित होता है, वह एक है, अखंड कथन से वस्तु का समग्र स्वरूप है तथा सत् है। विशेष-गामिनी दृष्टि में एकता की तो बात ही क्या? प्रतिपादित नहीं होता। तब समग्र स्वरूप समानता भी कृत्रिम प्रतीत होती है। विश्व की प्रत्येक वस्तु एक दूसरे के प्रामाणिक प्रतिपादन के लिए एक से अत्यंत भिन्न परस्पर असंपृक्त, निरन्वय भेदों का पुंजमात्र है। इन ही चारा है कि वस्तु के किसी एक दोनों दृष्टियों के आधार पर निर्मित प्रत्येक भारतीय दर्शन ने अपनी- साध्वी श्रीउमरावकुंवरजी धर्म को मुख्य रूप से कहा जाय और अपनी चिन्तन प्रणाली निश्चित की है। सामान्य-गामिनी दृष्टि अद्वैतवाद 'अर्चना' शेष धर्मों को गौण रूप में स्वीकार के नाम से तथा विशेष-गामिनी दृष्टि शून्यवाद, क्षणिकवाद के नाम किया जाय। इस मुख्य और गौण भाव को अर्पणा और अनर्पणा से विख्यात हुई। कहते हैं। भारतीय-दर्शनों में जैन-दर्शन के अतिरिक्त श्रमण भगवान् महावीर मुख्य एवं गौण भाव से अथवा अपेक्षा या अनपेक्षा से वस्तु के समय जो दर्शन अति विख्यात थे तथा जो वर्तमान में अति तत्व की सिद्धि होती है। अनेकान्त दृष्टि विराट वस्तु तत्व को जानने विख्यात हैं, उनमें सांख्य-योग, वैशेषिक-न्याय, मीमांसक, वेदांत, का वह प्रकार है, जो विवक्षित धर्म को जानकर भी अन्य धर्मों का बौद्ध और शाब्दिक हैं-ये दर्शन मुख्य हैं। वैदिक दर्शनों में षड्दर्शनों निषेध नहीं करता, उन्हें गौण या अविवक्षित कर देता है अर्थात् की परिगणना हो जाती है और अवैदिक दर्शनों में चार्वाक, जैन और अस्तित्व की प्रधान रूप से विवक्षा है और नास्तित्व आदि की गौण बौद्ध दर्शन आते हैं। इस प्रकार भारतीय-दर्शन परम्परा में मूल में रूप से। इस प्रकार स्याद्वाद, वस्तु तत्व के सम्यक् प्रतिपादन की नव दर्शन होते हैं-चार्वाक, जैन, बौद्ध, सांख्य, योग, वैशेषिक, निर्दोष शैली है। न्याय, मीमांसा और वेदांत। ये नव दर्शन भारत के मूल दर्शन हैं। अन्य दर्शनकारों ने अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एक-एक धर्म को कछ विद्वानों ने यह भी कहा है कि अवैदिक दर्शन भी छह हैं- जैसे पकड़कर उसे ही समग्र वस्त मान लेने की भूल की है। जैसे बौद्ध चार्वाक, जैन, सौत्रान्तिक वैभार्षिक, योगाचार और माध्यमिक। इस दर्शन वस्तु के क्षणिक पर्याय को ही समग्र वस्तु मान लेता है और प्रकार भारत के मूल दर्शन द्वादश हो जाते हैं। शंकराचार्य अद्वैतवाद वस्त के द्रव्यात्मक नित्यपक्ष को सर्वथा अस्वीकार करता है। वेदान्त के प्रमुख प्रचारक तथा तथागत बुद्ध शून्यवाद के प्रवर्तक माने जाते एवं सांख्य-दर्शन वस्तु को सर्वथा नित्य-कूटस्थ नित्य मानकर उसे हैं। अद्वैतवाद और शून्यवाद के आधार पर निर्मित दर्शनों ने किसी क्षणिक पर्यायों का सर्वथा निषेध करता है। नैयायिक वैशेषिक दर्शन न किसी एक दृष्टि का आश्रय लेकर तत्त्व चिन्तन किया है। यद्यपि यद्यपि वस्तु में नित्यत्व और अनित्यत्व दोनों को मानते हैं तथापि वे दोनों वाद ऐकांतिक हैं, फिर भी उन्हें अपने कथन को प्रमाणित करने किसी वस्तु को सर्वथा नित्य और किसी वस्तु को सर्वथा अनित्य भी के लिए जैन-दर्शन द्वारा प्ररूपित स्याद्वाद का आश्रय लेना पड़ा है। मानते हैं। साथ ही वे पदार्थ के नित्यत्व और अनित्यत्व को पदार्थ दार्शनिक विचार और वस्तु स्वरूप के कथन के लिए स्यावाद - से सर्वथा भिन्न मानते है. जबकि वह वस्त का तादात्म्य स्वरूप है। सापेक्षवाद ही एक मात्र मार्ग है, शैली है जिसके द्वारा यथार्थ चिन्तन ये दर्शनकार परस्पर विरोधी और एकांगी पक्ष को लेकर परस्पर में एवं यथार्थ कथन किया जा सकता है। विवाद करते हैं। उनका यह विवाद अन्धगज न्याय की तरह है। जैनदर्शन का अन्तर्नाद अनेकान्तवाद है। इसकी भित्तीपर ही योगदर्शन में स्यादवाद: सारा जैन सिद्धान्त आधारित है। 'उप्पने इवा, विगमे इवा, ध्रुवेइवा' योगदर्शन सांख्यदर्शन की एक शाखा है। योग और सांख्य के इस त्रिपदी को सुनकर महामति गणधर चतुर्दश पूर्वो की रचना कर लेते हैं। इस त्रिपदी में जो तत्त्व समाहित हैं, वह अनेकान्त है इस ' 'अर्पितानर्पित सिद्धे' : - आचार्य उमास्वाति दृष्टि से समस्त जैन वाङ्मय का आधार अनेकान्त है, यह प्रमाणित - तत्वार्थ सूत्र अ. ५ सु. ३२ श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना अहंकार में अंध हो, करे सदैव प्रपंच । जयन्तसेन मनुज वही, खोता सगुण संच .Melibrary org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकांश सिद्धान्त समान हैं। इनमें मुख्य अन्तर यही है कि सांख्य पुरुष को अकर्ता मानता है और योग परमेश्वर को मानकर उसकी भक्ति पर विशेष बल देता है इसलिए इसे ईश्वरवादी सांख्य भी कह देते हैं तथा योग पर विशेष बल देने से योगदर्शन कहते हैं। योगदर्शन में भी सांख्य दर्शन की तरह प्रकृति, पुरुष आदि पच्चीस तत्त्व माने गए है किन्तु वर्तमान में योग दर्शन की विधिवत् व्यवस्था करने वाले महर्षि पतंजलि हैं। जगत् की नित्यानित्यता: योग दर्शन (सेश्वरवादी सांख्य दर्शन) के मान्य ग्रन्थ पातंजल योगसूत्र के भाष्य में महर्षि व्यास ने जगत की नित्यानित्यता के बारे में अनेकान्तवाद का आश्रय लेकर निम्न प्रकार से कथन किया है। अपर आह धर्मानभ्यधिको धर्मी पूर्वतत्वानतिक्रमात् । पूर्वापरावस्थाभेदमनुपतितः कौटस्थ्येन विपरिवर्तेत पद्यन्वयी स्यादिति । अयमदोषः कस्मात् एकान्तानभ्युपगमात् । तदेतत् त्रैलोक्यं व्यक्तरपंति कस्मात् नित्यत्वप्रतिषेधात् । अपेतमप्यस्ति विनाशप्रतिषेधात् । उपर्युक्त सूत्र में बौद्धदर्शन की शंका का समाधान करने के लिए अनेकान्तवाद का अनुसरण करते हुए भाष्यकार ने संकेत किया + अयमदोषः कस्मात् एकांतानभ्युपगमात् । वाचस्पतिमिश्र ने अनेकान्तवाद की कथन प्रणाली का आश्रय लेकर योग- भाष्य की व्याख्या में आप लिखते हैं "कटककुण्डलकेयूरादिम्यो भिन्नाभिन्नस्य सुवर्णस्य भेद विवक्षया सुवर्णस्य कुण्डलादन्यत्वम् । तथा च कटककारी सुवर्णकारः कुण्डलादभिन्नात्सुर्वात् अन्यत्कुर्वन्नन्यत्वकारणम्। " कुल मिलाकर इसका सारांश इतना ही है कि कटक कुण्डल आदि धर्मों से सुवर्ण रूप धर्मी भिन्न अथवा अभिन्न हैं। भेद विवक्षा से वह मित्र है और अभेद विवक्षा से अभिन्न है इसके अलावा योगदर्शन की भोजदेव कृत राजमार्तण्ड नामकवृत्ति में भी अनेकांतवाद के अनुरूप ही धर्म-धर्मी के भेदाभेद को स्वीकार किया गया है। पातंजल योग- भाष्य में जैनदर्शन के अनुरूप पदार्थ को सामान्य- विशेष उभयात्मक माना गया है। उदाहरण के रूप में निम्न सूत्र उद्धत हैं 'सामान्य विशेषणात्मनोऽर्थस्य । ३ य एतेष्वभिव्यक्तानभिव्यते विशेषात्मासोऽन्वयी धर्मी ४ सामान्य- विशेष समुदायोऽत्र द्रव्यम्। * टीकाकार नालाराम उदासीन २ योगसूत्र - विभूतिपाद सूत्र १३ ३ योगसूत्र, समाधिवद सूत्र ७ ४ योगसूत्र, विभूतिपाद सूत्र १४ श्रीमद जयंतसेनरि अभिनंदन मंच वाचना धर्मेष्वनुपाती सामान्य योगसूत्र के उक्त सूत्रपाठों का आशय यह है कि पदार्थ सामान्य विशेष उमवरूप हैं। इस प्रकार योगदर्शन में अनेकान्तवादात्मक आपेक्षिक कथनों के दर्शन होते हैं। सांख्यदर्शन में स्यादवाद सांख्य दर्शन भी जैन और बौद्ध दर्शनों की तरह वेदों को प्रमाण नहीं मानता है। यह यज्ञयागादि हिंसा मूलक कर्मकांड का विरोधी है और मुक्ति के तत्त्वज्ञान एवं अहिंसा को मुख्यता देता है। जैनदर्शन के आत्म- बाहुल्यवाद और बौद्ध दर्शन के क्षणिकवाद की तरह परिणामवाद को मानता है। सांख्य दर्शन के आद्य प्रणेता प्रवर्तक या व्यवस्थापक महर्षि कपिल माने जाते हैं और इनका जन्म भी जैन और बौद्ध तीर्थकरों की तरह क्षत्रियकुल में होना माना जाता है। कुछ लोग कपिल को ब्रह्मा का पुत्र बताते हैं और भागवत में इन्हें विष्णु का अवतार कहा है। सांख्य दर्शन की दो धाराएँ हैं- सेश्वरसांख्य और निरीश्वरसांख्य । सेश्वर सांख्य योग दर्शन और निरीश्वरसांख्य सिर्फ सांख्यदर्शन के नाम - से अभिहित होता है। उक्त दोनों प्रकार के सांख्यों ने अपने-अपने चिन्तन में अनेकान्तवाद का आश्रय लिया है। जैन दर्शन की तरह निरीश्वरवादी ने भी प्रकृति को उत्पाद-व्यय-धौव्यात्मक माना है या आचार्य वाचस्पति के अनुमान के उदाहरण में वह्नित्व को सामान्य विशेषात्मक मानते हुए अनेकान्तवाद का समर्थन किया है। यथा“यथा धूमात् वह्नित्वसामान्यविशेषः पर्ततेऽनु मीयते ।” जैसे के ज्ञान से वह्नित्व रूप सामान्य विशेषका पर्वत में अनुमान होता है। यहाँ पर वह्नित्व को सामान्य एवं विशेष उभयरूप से स्वीकार करने में ही अनेकान्तवाद की स्वीकृति है। अनेकान्तवाद भी तो यही कहता है कि वस्तु सामान्य विशेष, नित्य-अनित्य आदि धर्मों से संयुक्त है, लेकिन उनका कथन – अभिव्यक्ति अपेक्षा से होती है। मीमांसा दर्शन में स्यादवाद मीमांसा - दर्शन के प्रथम प्रस्तावक महर्षि जैमिनी माने जाते हैं। उनके द्वारा रचित मीमांसा सूत्रों के कारण इसे जैमिनीय दर्शन भी कह दिया जाता है। जैमिनी कृत मीमांसा सूत्र पर कुमारिल भट्ट ने ईसा की सातवीं सदी में श्लोक वार्तिक, तन्त्रवार्तिक और दुष्टी ये तीन टीकाएँ लिखीं। मीमांसादर्शन में सामान्यतः पाँच प्रमाण माने गये है— प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, शब्द कुमारिलभट्ट ने छठा अभाव प्रमाण भी माना है। जैनदर्शन में जैसे द्रव्य का लक्षण उत्पाद-व्यय धौव्यात्मक माना है तथा द्रव्य स्वरूप से श्रीव्यात्मक और अपनी पर्यायों से उत्पादव्ययात्मक है, प्रव्यनित्य है और पर्याय अनित्य वैसे ही मीमांसा दर्शन में भी द्रव्य-पर्याय के नित्यानित्यत्व को इस प्रकार प्रकट किया योग सूत्र, विभूतिपाद सूत्र ४७ ४६ तन धन बल अरु बुद्धि का, उचित नहीं अभिमान । जयन्तसेन मिले सदा, कदम कदम अपमान ॥ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया हैअतो न द्रव्यस्यकदाचिदागामापायोवा उपर्युक्त सूत्रों में उपस्कार एवं भाष्य का आशय यह है कि घर घटपटगवाश्व शुक्लरक्ताद्यवस्थानामेवागमापायौ - आह च - अपने निजी स्वरूप से तो है और पररूप से नहीं है अश्व अपने अश्व आविर्भाव - तिरोभाव - धर्मकष्वनुयायिमत् ।। स्वरूप से सत् है और गौ रूप से असत् है। इसका अर्थ यह हुआ तद् धर्मी तत्रच ज्ञानं प्रारधर्मग्रहणात् भवेत् ॥ कि घरादि प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप की अपेक्षा सत् और परादि तथा च यादशमस्मामिरभिहितं द्रव्यं तादृश प्रत्येक पर-रूप की अपेक्षा से असत् है इस कथन से यह सिद्ध हुआ स्यैव हि सर्वस्य गुणएव भिद्यते न स्वरूपम् । कि प्रत्येक पदार्थ स्व पर रूप की अपेक्षा सत्-असत् दोनों रहते हैं। अर्थात् द्रव्य की कभी उत्पत्ति और विनाश नहीं होता है, किन्तु इसी बात को अनेकान्तवाद भी व्यक्त करता है कि प्रत्येक पदार्थ उसके रूप और आकारादि विशेष का ही उत्पत्ति-विनाश होता है। स्व-पर रूपापेक्षा सदसदात्मक है। कहा है- उत्पत्ति और विनाशशील धर्मों में अन्वय रूप से जिसकी न्यायदर्शन में स्याद्वाद: उपलब्धि होती है, वह धर्मी और उसका ज्ञान प्राग्धर्म के ग्रहण से प्रत्येक वस्तु को न्याय की कसौटी पर कसना न्याय दर्शन है। होता है अत: उत्पाद-विनाश स्वभावी धर्मों में मिट्टी रूप द्रव्य-धर्मी इस दर्शन के आद्य प्रवर्तक महर्षि गौतम हैं। नैयायिक दर्शन में प्रमाण, सर्वत्र अनुगत रहता है। अन्य विद्वानों की अपेक्षा कुमारिलभट्ट ने स्पष्ट प्रमेय, संशय, प्रयोजन आदि १६ तत्त्व माने जाते हैं। महर्षि गौतम शब्दों में अनेकान्तवाद का समर्थन किया है। कुमारिल भट्ट का पदार्थों के अनुसार सोलह तत्त्व का ठीक-ठीक ज्ञान होने से मुक्ति होती है। को उत्पाद, स्थितिरूप सिद्ध करना, अवयव को स्वरूप एवं पर-रूप महर्षि गौतम के न्यायसूत्र के भाष्यकार वात्स्यायन ने पदार्थ विवेचन से सत् असत् स्वीकार करना तथा सामान्य विशेष को सापेक्ष मानना में निम्न प्रकार से अनेकान्तवाद का आश्रय लिया हैअनेकान्तवाद का समर्थन करना ही माना जाता है। इस प्रकार आचार्य विमृश्य पक्ष प्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णय : कुमारिल भट्ट ने वस्तु विवेचन के लिए अनेकान्तवादात्मक शैली का एतच्च विरुद्धयोरेकधर्मिस्थयो बर्बोधव्यं, यत्र ...... अनुसरण किया है। दूसरे शब्दों में हम यों कह सकते हैं कि आचार्य अर्थात् पक्ष-प्रतिपक्ष द्वारा विचार करके पदार्थ को जो निश्चय कुमारिल भट्ट जैन दार्शनिक हैं। किया जाता है, उसे निर्णय कहते हैं। परंतु यह विचार करने का वैशेषिक - दर्शन में स्याद्वाद: अवसर तभी आता है जब एक धर्मी में विरुद्ध धर्मों की स्थिति हो। यह दर्शन विशेष (परमाणु) से सृष्टि की उत्पत्ति मानता है अतः लेकिन जहाँ धर्मी सामान्य में धर्मों की सत्ता प्रामाणिक रूप से सिद्ध इसका नाम वैशेषिक दर्शन है। इस दर्शन के आद्यप्रवर्तक कणाद हो वहाँ पर समुच्चय ही मानना चाहिये, क्योंकि प्रामाणिक रूप से ऋषि माने जाते हैं। वैशेषिक दर्शन में प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो ऐसा ही सिद्ध है। वहाँ पर तो परस्पर विरुद्ध दोनों ही धर्मों को प्रमाण स्वीकार किये गये हैं। वैशेषिक सूत्र के अनुसार द्रव्यत्व, गुणत्व स्वीकार करना चाहिये। इस प्रकार न्याय दर्शन में यथा प्रसंग अनेकांतवाद और कर्मत्व ये सामान्य भी हैं और विशेष भी। का आश्रय लेकर ग्रंथकारों ने अपने सिद्धान्त का पोषण किया है। प्रशस्तपाद - भाष्य में उक्तसूत्र की व्याख्या करते हुए जैन-दर्शन वेदान्त - दर्शन में स्यादवाद : के मंतव्य की तरह सामान्य-विशेष उभय रूप में मानकर स्पष्ट रूप इस दर्शन का निर्माण वेदों के अन्तिम भाग उपनिषदों के आधार में कहा है से हुआ। इस कारण वह वेदान्त - दर्शन कहलाता है। सर्व प्रथम "सामान्यं द्विविध परमपरं सद्विशेषाख्यामपि लभते ।। वेदान्त दर्शन उपनिषदों में पाया जाता है। वेदान्त का प्रधान सिद्धान्त सारांश यह है कि सामान्य सिर्फ सामान्य है रूप ही नहीं है को ब्रह्म द्वितीयं नास्ति' है। वेदान्त के अनसार व्यक्ति को सदा किन्त विशेष रूप भी है। द्रव्यत्व, गुणत्व आदि यद्यपि सामान्य रूप तत्त्वमसि का ही ध्यान करना चाहिए। हैं लेकिन सत्ता की अपेक्षा उनमें विशेषत्व और पृथ्वीत्वादि की अपेक्षा आमा प्रवृत्ति और निवृत्ति इन दोनों विरोधी धर्मों को प्रकृति में नहीं सामान्य रूपता यह दोनों ही धर्म रहते हैं। मानकर ईश्वर में स्वीकार करने के लिए शंकराचार्य ने अनेकान्तवाद _ इस प्रकार महर्षि कणाद ने स्पष्ट रूप से अनेकान्तवाद का का ही आश्रय लिया है। परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले धर्मों को प्रतिपादन किया है। भाष्यकार लिखते हैं सापेक्ष रूप से एक वस्तु में स्वीकार करना ही तो अनेकान्तवाद है। तदेवं रूपान्तरेण सदप्यन्येन रूपेण सद् भवतीत्युक्तम्.... शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र के शंकर भाष्य में अनेक स्थलों पर अपेक्षावाद अश्वात्मना सन्नप्यश्वो न गवात्मनास्तीति । का आश्रय लेकर अपने मत को अभिव्यक्त किया है एवं उनका 'शास्त्रदीपिका पार्थसार मिश्र रचित पृ. १४६-१४७ अनिर्वचनीय शब्द तो अनेकान्तवाद के आशय को ही स्पष्ट करता २'द्रव्य व्वं गुणव्वकर्मत्वं च सामान्यानि विशेषाश्च ।' - वैशेषिक सूत्र १/२/५ ३ वैशेषिक भाष्य -पृ. ३१५ ५ न्याय सत्र ११४१ अचार श्रीमद् जयंतसेनहरि अभिनंदन ग्रंथावाचना X9 असभ्य बन कर मानवी, क्यों करता अभिमान । जयन्तसेन सभ्य बनो, जीवन बने महान Library.org Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _____इस प्रकार वेद, उपनिषद्, गीता आदि सभी में अनेकान्तवाद इस प्रकार स्याद्वाद में न तो निरपेक्ष काल्पनिक वस्तु है और का आश्रय लिया गया है, कारण कि स्वयं पदार्थ है जो अनन्त न प्रत्यक्षादि प्रमाण विरुद्ध काल्पनिक दृष्टिकोण / देशकाल की सीमाओं धर्मात्मक है और उन अनन्त धर्मों की अभिव्यक्ति के लिए कथन के बन्धन से भी परे उसकी दृष्टि है, उसके नियम सार्वदेशिक और प्रणाली तद्नुरूप ही होनी चाहिए। सार्वकालिक हैं। जिसके कारण कोई भी दर्शन उसका अंग बन सकता बौद्ध - दर्शन में स्याद्वाद: है। यदि सभी दर्शन अपने अन्तर्विरोधों को समाप्त कर परस्पर सहयोग बुद्ध की मान्यता बौद्धदर्शन कहलाता है। जैन - धर्म में वर्णित स्थापित करना चाहते हैं तो उनके लिये स्याद्वाद स्वीकार करने के 14 गुणस्थानों की भांति बौद्धधर्म में भी 10 पारमिताएँ मानी गई हैं। अलावा अन्य कोई उपाय नहीं है। समन्वय के लिए स्यादवादात्मक जैनधर्म के अनुसार जैसे तेरहवें गुणस्थान में पहँचने पर जीव जिन दृष्टि अपनाने की प्रक्रिया वर्तमान में चालू हो गई है। और उसकी बनता है, वैसे ही बौद्धधर्म के अनुसार दसवीं बोधिसत्व भूमि में जाने पूर्णता होने पर सम्पूर्ण विश्व सह-अस्तित्व की सुधा का पान कर के बाद जीव बुद्ध बनता है। बौद्ध दर्शन को सुगत दर्शन भी कहते सकेगा, ऐसी आशा है। भारतीय दार्शनिक परम्परा में स्यावाद का कहाँ किस रूप में अनेकान्तवाद को ध्वनित करने वाला दूसरा शब्द विभज्यवाद प्रयोग हुआ है उसका संक्षेप में दिग्दर्शन कराया गया है। जिससे यह स्पष्ट है कि अनेकान्तवाद यथार्थ रूप से वस्तुरूप का निर्णय करने 99) में शभ माणवक के प्रश्न के उत्तर में बद्ध ने अपने को वाला सुनिश्चित सिद्धान्त है। अन्य दर्शनों ने किसी न किसी रूप से विभज्यवादी बताया है, एकांशवादी नहीं। मज्झिमनिकाय सूत्र (99) इस अपनाया है, इसा कारण यह कहा गया है कि - से तथागत बुद्ध के एकान्तवाद और विभज्यवाद का परस्पर विरोध स्याद्वादं सार्वतांत्रिकम्। स्पष्ट सूचित हो जाता है और जैन टीकाकारों ने विभज्यवाद का अर्थ महान् आचार्यों ने स्याद्वाद की संस्तुति करते हुए कहा हैस्याद्वाद, अनेकान्तवाद किया है। भगवतीसत्र में अनेक प्रश्नोत्तर हैं, जेणविणा लोगस्स-वि ववहारो सव्वहान निव्वडइ / जिनमें भगवान महावीर की विभज्यवादी शैली के दर्शन होते हैं। तस्सत भुवणेक्क-गुरुणो णमो अणेगंतवायस्स // मुक्ति का मार्ग ..... (पृष्ठ 59 का शेष) (1) सामायिक (2) छेदोपस्थापनीय (3) परिहार विशुद्धि (4) सूक्ष्मसंपराय और (5) यथाख्यात चारित्र। मुख्य चारित्र के दो प्रकार हैं- द्रव्य चारित्र और भाव प.रत्र। आत्मा के उद्धार और मोक्ष सुख प्राप्ति का आधार भाव चारित्र है। मात्र द्रव्यचारित्र से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है, द्रव्य चारित्र का पालन तो अभव्य जीव भी कर सकते हैं पर वे मोक्ष में नहीं जा सकते, किन्तु द्रव्य चारित्र के बिना भाव चारित्र प्राप्त करना कठिन है। संयम के सत्रह भेद भी है। पाँच आश्रवों का त्याग, पांच इन्द्रिय का निग्रह, चार कषाय पर विजय और तीन दंड से निवृत्ति ये 17 भेद हैं। संसार रूप अटवी में भटकते हुए भव्यात्माओं को मोक्षमार्ग की तरफ ले जाने वाला चारित्र मार्गदर्शक है, आत्मा के लिए जीवन के विकास के लिए और मोक्ष में जाने के लिए चारित्र सच्चा मार्ग है। समस्त सावध योग से रहित शभ-अशभ रूप कषाय भाव से विमुक्त जगत से उदासीनता रूप निर्मल आत्मलीनता ही सम्यग् चारित्र पहले सम्यग्दर्शन को पूर्व रूप से प्रत्यय करके प्राप्त करना चाहिए, क्योंकि इसके होने पर ही ज्ञान सम्यवज्ञान रूप और चारित्र सम्यक्चारित्र रूप परिणत होता है। सम्यग् दर्शन के बिना समस्त ज्ञान अज्ञान और समस्त महाव्रतादि रूप शुभाचरण मिथ्याचारित्र ही रहता है। पप सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र को रत्नत्रयी भी कहते हैं और यही मक्ति का मार्ग है। येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति येनांशेन ज्ञानं तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति येनांशेन चारित्रं तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति इस आत्मा के जिस अंश में सम्यग्दर्शन है, सम्यग्ज्ञान और चारित्र है उस अंश में बंधन नहीं है और जिस अंश में राग है उस अंश में बंधन होता है। अत: यदि हमें बन्ध का अभाव करना है अर्थात् दुःख से छुटकारा पाना है तो रत्नत्रयी परिणमन करना चाहिए, एक मात्र सांसारिक दुःखों से छूटने के लिए यही सच्चा मुक्ति का मार्ग है। “तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयलेन / तस्मिन् सत्येव यतो भवति ज्ञानं चारित्रं च // " सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान, सम्यग् चारित्र इन तीनों में सबसे . . श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन पंच/चाचना मैं मैं करना छोड़ दे, मत कर नर अभिमान / जयन्तसेन बड़े बड़े, छोड़ चले नीज प्राण //