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________________ _____इस प्रकार वेद, उपनिषद्, गीता आदि सभी में अनेकान्तवाद इस प्रकार स्याद्वाद में न तो निरपेक्ष काल्पनिक वस्तु है और का आश्रय लिया गया है, कारण कि स्वयं पदार्थ है जो अनन्त न प्रत्यक्षादि प्रमाण विरुद्ध काल्पनिक दृष्टिकोण / देशकाल की सीमाओं धर्मात्मक है और उन अनन्त धर्मों की अभिव्यक्ति के लिए कथन के बन्धन से भी परे उसकी दृष्टि है, उसके नियम सार्वदेशिक और प्रणाली तद्नुरूप ही होनी चाहिए। सार्वकालिक हैं। जिसके कारण कोई भी दर्शन उसका अंग बन सकता बौद्ध - दर्शन में स्याद्वाद: है। यदि सभी दर्शन अपने अन्तर्विरोधों को समाप्त कर परस्पर सहयोग बुद्ध की मान्यता बौद्धदर्शन कहलाता है। जैन - धर्म में वर्णित स्थापित करना चाहते हैं तो उनके लिये स्याद्वाद स्वीकार करने के 14 गुणस्थानों की भांति बौद्धधर्म में भी 10 पारमिताएँ मानी गई हैं। अलावा अन्य कोई उपाय नहीं है। समन्वय के लिए स्यादवादात्मक जैनधर्म के अनुसार जैसे तेरहवें गुणस्थान में पहँचने पर जीव जिन दृष्टि अपनाने की प्रक्रिया वर्तमान में चालू हो गई है। और उसकी बनता है, वैसे ही बौद्धधर्म के अनुसार दसवीं बोधिसत्व भूमि में जाने पूर्णता होने पर सम्पूर्ण विश्व सह-अस्तित्व की सुधा का पान कर के बाद जीव बुद्ध बनता है। बौद्ध दर्शन को सुगत दर्शन भी कहते सकेगा, ऐसी आशा है। भारतीय दार्शनिक परम्परा में स्यावाद का कहाँ किस रूप में अनेकान्तवाद को ध्वनित करने वाला दूसरा शब्द विभज्यवाद प्रयोग हुआ है उसका संक्षेप में दिग्दर्शन कराया गया है। जिससे यह स्पष्ट है कि अनेकान्तवाद यथार्थ रूप से वस्तुरूप का निर्णय करने 99) में शभ माणवक के प्रश्न के उत्तर में बद्ध ने अपने को वाला सुनिश्चित सिद्धान्त है। अन्य दर्शनों ने किसी न किसी रूप से विभज्यवादी बताया है, एकांशवादी नहीं। मज्झिमनिकाय सूत्र (99) इस अपनाया है, इसा कारण यह कहा गया है कि - से तथागत बुद्ध के एकान्तवाद और विभज्यवाद का परस्पर विरोध स्याद्वादं सार्वतांत्रिकम्। स्पष्ट सूचित हो जाता है और जैन टीकाकारों ने विभज्यवाद का अर्थ महान् आचार्यों ने स्याद्वाद की संस्तुति करते हुए कहा हैस्याद्वाद, अनेकान्तवाद किया है। भगवतीसत्र में अनेक प्रश्नोत्तर हैं, जेणविणा लोगस्स-वि ववहारो सव्वहान निव्वडइ / जिनमें भगवान महावीर की विभज्यवादी शैली के दर्शन होते हैं। तस्सत भुवणेक्क-गुरुणो णमो अणेगंतवायस्स // मुक्ति का मार्ग ..... (पृष्ठ 59 का शेष) (1) सामायिक (2) छेदोपस्थापनीय (3) परिहार विशुद्धि (4) सूक्ष्मसंपराय और (5) यथाख्यात चारित्र। मुख्य चारित्र के दो प्रकार हैं- द्रव्य चारित्र और भाव प.रत्र। आत्मा के उद्धार और मोक्ष सुख प्राप्ति का आधार भाव चारित्र है। मात्र द्रव्यचारित्र से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है, द्रव्य चारित्र का पालन तो अभव्य जीव भी कर सकते हैं पर वे मोक्ष में नहीं जा सकते, किन्तु द्रव्य चारित्र के बिना भाव चारित्र प्राप्त करना कठिन है। संयम के सत्रह भेद भी है। पाँच आश्रवों का त्याग, पांच इन्द्रिय का निग्रह, चार कषाय पर विजय और तीन दंड से निवृत्ति ये 17 भेद हैं। संसार रूप अटवी में भटकते हुए भव्यात्माओं को मोक्षमार्ग की तरफ ले जाने वाला चारित्र मार्गदर्शक है, आत्मा के लिए जीवन के विकास के लिए और मोक्ष में जाने के लिए चारित्र सच्चा मार्ग है। समस्त सावध योग से रहित शभ-अशभ रूप कषाय भाव से विमुक्त जगत से उदासीनता रूप निर्मल आत्मलीनता ही सम्यग् चारित्र पहले सम्यग्दर्शन को पूर्व रूप से प्रत्यय करके प्राप्त करना चाहिए, क्योंकि इसके होने पर ही ज्ञान सम्यवज्ञान रूप और चारित्र सम्यक्चारित्र रूप परिणत होता है। सम्यग् दर्शन के बिना समस्त ज्ञान अज्ञान और समस्त महाव्रतादि रूप शुभाचरण मिथ्याचारित्र ही रहता है। पप सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र को रत्नत्रयी भी कहते हैं और यही मक्ति का मार्ग है। येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति येनांशेन ज्ञानं तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति येनांशेन चारित्रं तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति इस आत्मा के जिस अंश में सम्यग्दर्शन है, सम्यग्ज्ञान और चारित्र है उस अंश में बंधन नहीं है और जिस अंश में राग है उस अंश में बंधन होता है। अत: यदि हमें बन्ध का अभाव करना है अर्थात् दुःख से छुटकारा पाना है तो रत्नत्रयी परिणमन करना चाहिए, एक मात्र सांसारिक दुःखों से छूटने के लिए यही सच्चा मुक्ति का मार्ग है। “तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयलेन / तस्मिन् सत्येव यतो भवति ज्ञानं चारित्रं च // " सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान, सम्यग् चारित्र इन तीनों में सबसे . . श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन पंच/चाचना मैं मैं करना छोड़ दे, मत कर नर अभिमान / जयन्तसेन बड़े बड़े, छोड़ चले नीज प्राण // www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.211553
Book TitleBharatiya darshanik Parampara aur Syadwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmravkunvar Mahasati
PublisherZ_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf
Publication Year
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Philosophy
File Size3 MB
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