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________________ भारतीय दार्शनिक-परम्परा और स्याद्वाद (श्रमणसंघीय साध्वी श्रीउमरावकुंवरजी "अर्चना") विश्व का विचार एवं चिन्तन करनेवाली परस्पर दो धाराएँ हैं हो जाता है। यह एक माना हुआ सत्य सामान्य-गामिनी और विशेष-गामिनी। पहली धारा अथवा दृष्टि सारे है कि वस्तु अनन्त धर्मात्मक है, उसके संसार में विद्यमान वस्तुमात्र में समानता ही देखती है और दूसरी दृष्टि असंख्य पहलू हैं। ऐसी स्थिति में किसी सारे विश्व में असमानता ही असमानता देखती है। सामान्य-गामिनी एक शब्द द्वारा किसी एक धर्म के दृष्टि में एक मात्र जो विषय प्रतिभाषित होता है, वह एक है, अखंड कथन से वस्तु का समग्र स्वरूप है तथा सत् है। विशेष-गामिनी दृष्टि में एकता की तो बात ही क्या? प्रतिपादित नहीं होता। तब समग्र स्वरूप समानता भी कृत्रिम प्रतीत होती है। विश्व की प्रत्येक वस्तु एक दूसरे के प्रामाणिक प्रतिपादन के लिए एक से अत्यंत भिन्न परस्पर असंपृक्त, निरन्वय भेदों का पुंजमात्र है। इन ही चारा है कि वस्तु के किसी एक दोनों दृष्टियों के आधार पर निर्मित प्रत्येक भारतीय दर्शन ने अपनी- साध्वी श्रीउमरावकुंवरजी धर्म को मुख्य रूप से कहा जाय और अपनी चिन्तन प्रणाली निश्चित की है। सामान्य-गामिनी दृष्टि अद्वैतवाद 'अर्चना' शेष धर्मों को गौण रूप में स्वीकार के नाम से तथा विशेष-गामिनी दृष्टि शून्यवाद, क्षणिकवाद के नाम किया जाय। इस मुख्य और गौण भाव को अर्पणा और अनर्पणा से विख्यात हुई। कहते हैं। भारतीय-दर्शनों में जैन-दर्शन के अतिरिक्त श्रमण भगवान् महावीर मुख्य एवं गौण भाव से अथवा अपेक्षा या अनपेक्षा से वस्तु के समय जो दर्शन अति विख्यात थे तथा जो वर्तमान में अति तत्व की सिद्धि होती है। अनेकान्त दृष्टि विराट वस्तु तत्व को जानने विख्यात हैं, उनमें सांख्य-योग, वैशेषिक-न्याय, मीमांसक, वेदांत, का वह प्रकार है, जो विवक्षित धर्म को जानकर भी अन्य धर्मों का बौद्ध और शाब्दिक हैं-ये दर्शन मुख्य हैं। वैदिक दर्शनों में षड्दर्शनों निषेध नहीं करता, उन्हें गौण या अविवक्षित कर देता है अर्थात् की परिगणना हो जाती है और अवैदिक दर्शनों में चार्वाक, जैन और अस्तित्व की प्रधान रूप से विवक्षा है और नास्तित्व आदि की गौण बौद्ध दर्शन आते हैं। इस प्रकार भारतीय-दर्शन परम्परा में मूल में रूप से। इस प्रकार स्याद्वाद, वस्तु तत्व के सम्यक् प्रतिपादन की नव दर्शन होते हैं-चार्वाक, जैन, बौद्ध, सांख्य, योग, वैशेषिक, निर्दोष शैली है। न्याय, मीमांसा और वेदांत। ये नव दर्शन भारत के मूल दर्शन हैं। अन्य दर्शनकारों ने अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एक-एक धर्म को कछ विद्वानों ने यह भी कहा है कि अवैदिक दर्शन भी छह हैं- जैसे पकड़कर उसे ही समग्र वस्त मान लेने की भूल की है। जैसे बौद्ध चार्वाक, जैन, सौत्रान्तिक वैभार्षिक, योगाचार और माध्यमिक। इस दर्शन वस्तु के क्षणिक पर्याय को ही समग्र वस्तु मान लेता है और प्रकार भारत के मूल दर्शन द्वादश हो जाते हैं। शंकराचार्य अद्वैतवाद वस्त के द्रव्यात्मक नित्यपक्ष को सर्वथा अस्वीकार करता है। वेदान्त के प्रमुख प्रचारक तथा तथागत बुद्ध शून्यवाद के प्रवर्तक माने जाते एवं सांख्य-दर्शन वस्तु को सर्वथा नित्य-कूटस्थ नित्य मानकर उसे हैं। अद्वैतवाद और शून्यवाद के आधार पर निर्मित दर्शनों ने किसी क्षणिक पर्यायों का सर्वथा निषेध करता है। नैयायिक वैशेषिक दर्शन न किसी एक दृष्टि का आश्रय लेकर तत्त्व चिन्तन किया है। यद्यपि यद्यपि वस्तु में नित्यत्व और अनित्यत्व दोनों को मानते हैं तथापि वे दोनों वाद ऐकांतिक हैं, फिर भी उन्हें अपने कथन को प्रमाणित करने किसी वस्तु को सर्वथा नित्य और किसी वस्तु को सर्वथा अनित्य भी के लिए जैन-दर्शन द्वारा प्ररूपित स्याद्वाद का आश्रय लेना पड़ा है। मानते हैं। साथ ही वे पदार्थ के नित्यत्व और अनित्यत्व को पदार्थ दार्शनिक विचार और वस्तु स्वरूप के कथन के लिए स्यावाद - से सर्वथा भिन्न मानते है. जबकि वह वस्त का तादात्म्य स्वरूप है। सापेक्षवाद ही एक मात्र मार्ग है, शैली है जिसके द्वारा यथार्थ चिन्तन ये दर्शनकार परस्पर विरोधी और एकांगी पक्ष को लेकर परस्पर में एवं यथार्थ कथन किया जा सकता है। विवाद करते हैं। उनका यह विवाद अन्धगज न्याय की तरह है। जैनदर्शन का अन्तर्नाद अनेकान्तवाद है। इसकी भित्तीपर ही योगदर्शन में स्यादवाद: सारा जैन सिद्धान्त आधारित है। 'उप्पने इवा, विगमे इवा, ध्रुवेइवा' योगदर्शन सांख्यदर्शन की एक शाखा है। योग और सांख्य के इस त्रिपदी को सुनकर महामति गणधर चतुर्दश पूर्वो की रचना कर लेते हैं। इस त्रिपदी में जो तत्त्व समाहित हैं, वह अनेकान्त है इस ' 'अर्पितानर्पित सिद्धे' : - आचार्य उमास्वाति दृष्टि से समस्त जैन वाङ्मय का आधार अनेकान्त है, यह प्रमाणित - तत्वार्थ सूत्र अ. ५ सु. ३२ श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना अहंकार में अंध हो, करे सदैव प्रपंच । जयन्तसेन मनुज वही, खोता सगुण संच .Melibrary org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.211553
Book TitleBharatiya darshanik Parampara aur Syadwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmravkunvar Mahasati
PublisherZ_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf
Publication Year
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Philosophy
File Size3 MB
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