Book Title: Bharatiya Yoga aur Jain Chintandhara Author(s): Chhaganlal Shastri Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 4
________________ १६२ कर्मयोगी केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतर्थ खण्ड आचार्य हरिभद्र की प्राकृत भाषा में भी योग पर योगशतक तथा योगविशिका नामक दो कृतियाँ हैं। उन द्वारा संस्कृत में रचित षोडशकप्रकरण भी सुप्रसिद्ध है, जिसके कतिपय अध्यायों में उन्होंने योग के सम्बन्ध में विवेचन किया है। ध्यानशतक नामक एक प्राचीन प्राकृत-रचना है, जिसकी ४६-४७ गाथाएँ आचार्य वीरसेन द्वारा रचित धवला में उद्धृत हैं । आचार्य हरिभद्र ने इस पर टीका की। उपाध्याय यशोविजय ने आचार्य हरिभद्र प्रणीत योगविशिका तथा षोडशक पर संस्कृत मे टीकाएँ लिखकर प्राचीन गूढतत्त्वों का बड़ा विशद विश्लेषण किया। उन्होंने पतंजलि के योगसूत्र के कतिपय सूत्रों पर भी एक वृत्ति की रचना की, जिनमें पातंजल योग तथा जैन योग का तुलनात्मक विवेचन है। अज्ञातकर्तृक योगप्रदीप नामक एक पुस्तक प्राप्त है, जिसमें १४३ या १४४ श्लोक मिलते हैं। पुस्तक के परिशीलन से प्रतीत होता है, यह आचार्य शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव तथा आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र के आधार पर लिखी गई है। इसी प्रकार योगसार नामक एक और ग्रन्थ भी श्वेताम्बर साहित्य में उपलब्ध है, जिसके रचनाकार का उसमें उल्लेख नहीं है। उसमें प्रयुक्त दृष्टान्त आदि से अनुमेय है कि उसकी रचना भी संभवतः आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र के आधार पर ही हुई है। यशस्तिलक चम्पू के रचयिता आचार्य सोमदेव सूरि की योग पर "योगमार्ग" नामक एक अद्भुत पुस्तक है जो शिखरिणी छन्द में एक अत्यन्त प्रौढ़ रचना है। १२वीं शती में हुए आचार्य भास्करानंदि की संस्कृत में ध्यानस्तव नामक रचना है, जिसमें ध्यान का सुन्दर विश्लेषण है। उपाध्याय यशोविजय द्वारा संस्कारित तथा अनूदित समाधिशतक नामक कृति भी उल्लेखनीय है, जिसमें कर्ता का नाम नहीं है । मंगलाचरण के अन्तर्गत आये एक श्लोक से प्रतीत होता है, उसके कर्ता कोई दिगम्बर विद्वान् रहे हों। वह श्लोक निम्नांकित है जयन्ति यस्यावदतोऽपि भारती, विभूतयस्तीर्थकृतोऽप्यनीहतुः । शिवाय धात्रे सुगताय विष्णवे, जिनाय तस्मे सकलात्मने नमः ।। यहाँ प्रयुक्त "अवदत: अपि भारती" ये पद दृष्टव्य है, जिनसे दिगम्बर-परम्परा में स्वीकृत अभाषात्मक, ॐकारध्वनिमयी भगवद्-देशना का संकेत प्राप्त होता है। जैन तत्त्वज्ञान का स्रोत जैन तत्त्वज्ञान का मुख्य स्रोत अद्धमागधी प्राकृत में ग्रथित अंग, उपांग, मूल, छेद, चूलिका एवं प्रकीर्णक सूत्र हैं। इन आगम सूत्रों पर प्राकृत तथा संस्कृत में नियुक्ति, भाष्य, चूणि, टीका आदि के रूप में व्याख्या तथा विश्लेषणपरक साहित्य प्रणीत हुआ । संस्कृत-प्राकृत के मिश्रित रूप के प्रयोग की जैनों में विशेष परम्परा रही है, जिसे मणि-प्रवालन्याय की संज्ञा से अभिहित किया गया है। श्वेताम्बर चूर्णी-साहित्य में इस शैली का प्रयोग द्रष्टव्य है। दिगम्बर आचार्य भूतबलि और पुष्पदन्त (लगभग प्रथम-द्वितीय शताब्दी) द्वारा रचित षट् खण्डागम पर आठवीं-नौवीं ई० शती में आचार्य वीरसेन ने बहत्तर सहस्र श्लोक प्रमाण धवला नामक टीका लिखी। आचार्य भूतबलि और पुष्पदन्त के लगभग समसामयिक आचार्य गुणधर के कषाय प्राभूत पर भी उन्होंने टीका लिखना चालू किया। पर, वे ३० सहस्र श्लोक-प्रमाण टीका लिखकर स्वर्गवासी हो गये। टीका-लेखन कार्य आचार्य वीरसेन के विद्वान् शिष्य आचार्य जिनसेन ने पूर्ण किया । कषाय प्राभूत की समग्र टीका साठ सहस्र श्लोक प्रमाण है। यह जयधवला के नाम से प्रसिद्ध है । धवला और जयधवला में चूर्णियों की तरह मणि-प्रवाल-न्यायात्मक संस्कृत-प्राकृत मिश्रित शैली स्वीकार की गई है । अस्तु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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